Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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इन्द्रिय संयम द्वारा सद्बुद्धि
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(श्री सीताराम जी एडवोकेट, आगरा)
यद्यपि बुद्धि शब्द बहुत साधारण सा शब्द है और प्रायः हमारी दैनिक बोलचाल में प्रयोग होता है परन्तु बहुत कम व्यक्ति ऐसे हैं, जो इसके वास्तविक महत्व को समझते हों और उसके विकास का प्रयत्न करते हों। बुद्धि मानव मात्र की निधि है। परमेश्वर की ओर से मानव को मिली एक अद्भुत और अनोखी देन है। बुद्धि मानव जीवन का गौरव है तथा उसके कल्याण और सफलता की कुँजी है। संसार के किसी भी व्यापार, व्यवसाय या विज्ञान की और देखिये सर्वत्र मानव शरीर का नहीं, मानव बुद्धि का ही चमत्कार व मूल्य है।
प्रायः कहा जाता है कि बुद्धि तो पशु, पक्षी आदि शरीरों में भी होती है, फिर इसे मानव ही की विशेषता क्यों मानी जावे। यह सत्य है कि अन्य योनियों में भी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करने की शक्ति है, परन्तु उस शक्ति को बुद्धि का नाम देना उचित न होगा, और यदि उसे बुद्धि मान भी लें तो वह केवल भोग बुद्धि है। मानव के पास जो बुद्धि है वह है निश्चय करने की शक्ति, जिसे दूसरे शब्दों में विवेक कहते हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि ‘विवेक युक्त जीवन ही मानव जीवन है और विवेक हीन जीवन पशु जीवन है।’
गीता की विशेषता यह है कि वह कोरे सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन नहीं करती बल्कि सिद्धाँत के साथ साधन भी बताती है। साधन रहित व्यक्ति को तो गीता अयुक्त अर्थात् बिना युक्ति वाला कहती है। अतः स्थित प्रज्ञ के लक्षण बतलाते हुए भगवान ने अर्जुन को निमित्त बना कर मानव कल्याण के लिए एक बड़ा सुन्दर साधन बुद्धि को स्थिर करने का भी बतला दिया और वह यह कि जब कोई व्यक्ति सब ओर से अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है। दूसरे शब्दों में, मन सहित इन्द्रियों को अपने वश में करके उनके विषयों को जब भोगता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। इसी को इन्द्रिय संयम कहते हैं।
बुद्धि योग प्राप्त करने का यह इन्द्रिय संयम रूपी साधन गीता ज्ञान सागर में छिपा हुआ नहीं बल्कि ऊपर तैरता हुआ अनमोल रत्न है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि इसे पकड़ा कैसे जाय अर्थात् गृहस्थ जीवन में इसे कैसे काम में लाया जावे। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने इसे बड़ी कुशलता से पकड़ा था और उसे पकड़ने की युक्ति भी बतलाई थी। विनोबा जी और उनके बहुत से अनुयायी इस समय भी इसको पकड़े हुए हैं। यह पकड़ है “अस्वाद व्रत”। संसार के महापुरुषों के जीवनों का यदि आप बारीकी से अध्ययन करेंगे तो आप पायेंगे कि उनकी महानता का रहस्य उनके इसी अस्वाद व्रत में छिपा हुआ था। इन्द्रिय संयम की यह सबसे प्रथम, सबसे सरल और सबसे सफल सीढ़ी है। रसना इन्द्रि पर विजय प्राप्त कर लेने पर शेष सब इन्द्रियाँ स्वतः ही पराजित हो जाती हैं।
अस्वाद का अर्थ है स्वाद का गुलाम न होना। अस्वाद का यह अर्थ नहीं कि हम संसार के भोग्य पदार्थों का सेवन न करें, या षट रसों का पान न करें या जिह्वा की रस ज्ञान की शक्ति को खो दें। अस्वाद व्रत ऐसा नहीं कहता। वह तो कहता है कि शरीर के पोषण, स्वास्थ्य तथा रक्षा के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता हो उनका पान करो परन्तु केवल जीभ के चोंचले पूरा करने के लिए किसी वस्तु का पान न करो, दूसरे स्पष्ट शब्दों में जिह्वा के गुलाम न बनो। उसके ऊपर सदैव अपना स्वामित्व कायम रखो। ऐसे रहो कि वह तुम्हारे आदेश पर चले। ऐसा न हो कि तुम ही उसके संकेत पर नाचने लगो। विनोबा जी के सुन्दर शब्दों में जीभ की स्थिति चम्मच जैसी हो जानी चाहिए। “चम्मच से चाहे हलुआ परोसों, चाहे दाल-भात, उसे उसका कोई सुख-दुख नहीं।”
हनुमान जी के भक्तों ने बहुत बार कथा सुनी होगी कि एक दफा विभीषण भगवान राम के पास आये और कहने लगे कि “प्रभु” लौकिक तथा पारलौकिक सफलता का साधन क्या है? भगवान ने कहा कि यह तो बड़ा सरल प्रश्न है, इसको तो हमको हनुमान जी से ही पूछ लेना चाहिए था और यह कहकर उन्हें हनुमान जी के पास भेज दिया। विभीषण ने जब हनुमान जी के पास जाकर इसी प्रश्न को पूछा तो उन्होंने कोई उत्तर तो नहीं दिया पर अपने हाथ से अपनी जीभ को पकड़ कर बैठ गये। विभीषण के कई बार कहने पर भी जब हनुमान कुछ न बोले तो विभीषण नाराज होकर भगवान के पास फिर वापिस गये और बोले कि ‘भगवन् आपने मुझे कहाँ भेज दिया।’ भगवान ने कहा कि क्या हनुमान जी ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। विभीषण बोले कि प्रभु वह क्या उत्तर देंगे। मैंने उनसे कई बार पूछा पर उन्होंने कोई उत्तर तो दिया नहीं बल्कि अपने हाथ से अपनी जीभ पकड़ कर बैठ गये। भगवान बोले विभीषण, हनुमान जी ने सब कुछ तो बतला दिया और क्या कहते? तुम्हारे प्रश्न का केवल यही उत्तर है कि अपनी जीभ को अपने वश में रखो। यही लौकिक और पारलौकिक सफलता का सबसे सुन्दर साधन है।
श्री महादेव गोविन्द रानाडे के जीवन की एक घटना इस अस्वाद व्रत के सही रूप को समझने में हमें बड़ी मदद देगी। कहते हैं कि एक दिन उनके किसी मित्र ने उनके यहाँ कुछ बहुत सुन्दर आम भेंट में भेजे। उनकी चतुर पत्नी ने उनमें से एक आम को धोकर, ठण्डा करके, बनाकर एक तश्तरी में उनके सामने रखा। रानाडे ने उसमें से एक दो टुकड़े खा कर आम की प्रशंसा करते हुए वह तश्तरी अपनी पत्नी को वापिस कर दी और कहा कि यह आम अब तुम खाना और बच्चों को देना। पत्नी ने उत्तर दिया कि उसके और बच्चों के लिए तो और आम है तो रानाडे बोले कि फिर नौकरों को दे देना। पत्नी बोली कि नौकरों के लिए भी और आम हैं, आप सब खा लीजिए। जब इस पर भी रानाडे आम खाने को तैयार न हुए तो पत्नी ने कहा कि क्या आम अच्छे नहीं हैं? रानाडे बोले कि मैंने अपने जीवन में इससे पहले इतने स्वादिष्ट आम कभी खाये नहीं तो पत्नी ने पूछा “आपका स्वास्थ्य तो ठीक है?” रानाडे बोला मेरा स्वास्थ्य आज इतना सुन्दर है कि कभी रहा नहीं। तब पत्नी ने कहा कि आप भी अजब बात कर रहे हैं आम को भी बड़ा स्वादिष्ट बताते हैं स्वास्थ्य को भी सुन्दर बताते हैं फिर भी कहते हैं कि अब और न खाऊँगा। रानाडे हँसे और बोले कि आम बहुत सुन्दर तथा स्वादिष्ट हैं इसीलिए अब और न खाऊँगा। ऐसा मैं क्यों कर रहा हूँ उसका कारण सुनो। बात यह है कि बचपन में जब मैं बम्बई में पढ़ता था, तब मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले एक धनी घराने की सदस्या रह चुकी थी परन्तु भाग्य के फेर से अब उसके पास वह धन नहीं था पर इतनी आय थी कि वह और उसका लड़का दोनों भली प्रकार भोजन कर सकें और अपना निर्वाह कर सकें। वह महिला बड़ी दुःखी रहती और प्रायः रोया करती थी। एक दिन मैंने जाकर जब उससे उसके दुख का कारण पूछा तो उसने अपना पहला वैभव बतलाते हुए कहा कि मेरे दुख का कारण मेरी जीभ का चटोरापन है, बहुत समझाती हूँ फिर भी दुखी रहती हूँ। जिस जमाने में मैं स्वादिष्ट पदार्थ खाती थी प्रायः रोगी रहा करती थी। औषधियों की दासी बनी हुई थी। अब जब से वह पदार्थ नहीं मिलते बिल्कुल स्वस्थ रहती हूँ, किसी औषधि की शरण नहीं लेनी पड़ती। इसे बहुत समझाती हूँ अब नाना प्रकार के साग, अचार, मुरब्बे, सोंठ, चटनी, रायते, मिठाइयों और पकवानों के दिन गये। अब उनका स्मरण करने से कोई फायदा नहीं फिर भी जीभ मानती नहीं है और मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है और आनन्दित रहता है क्योंकि उसने वह दिन देखे नहीं। वह जिह्वा का गुलाम नहीं हुआ है परन्तु मेरा दो दिन साग बनाये बिना पेट नहीं भरता। रानाडे ने कहा कि जबसे मैंने उस महिला की बात सुनी और उसकी वह दशा देखी तभी से मैंने यह नियम बना लिया कि जीभ जिस पदार्थ को पसन्द करे उसे बहुत थोड़ा खाना। जीभ के वश में न होना। क्योंकि यह आम जीभ को बहुत अच्छा लगा इसीलिए मैं अब और नहीं खाऊँगा।
किसी वस्तु के खाने से पहले अपने आप से प्रश्न कीजिए कि उस समय उस वस्तु का खाना आपके लिए आवश्यक है या नहीं, अथवा उस वस्तु के खाये बिना आप रह सकते हैं या नहीं, यदि उत्तर मिले कि नहीं रह सकते तो उस वस्तु को अवश्य खाइए अन्यथा नहीं।
इस साधन को अपनाने में आपको शारीरिक आर्थिक या सामयिक किसी प्रकार की भी हानि नहीं होगी। इसके विपरीत इन तीनों दिशाओं में भी आपको लाभ ही लाभ होगा। “भोग और स्वाद का आनन्द तो पशु भी लेते हैं” और आपको भी इनका आनन्द लेते न जाने कितना समय बीत गया अब त्याग और अस्वाद का आनन्द भी देख लीजिए।
यदि किसी समय आपको इस कल्याण मार्ग को अपनाने की प्रेरणा मिले तो आप सबसे प्रथम भोजन में से खोआ, मैदा और बेसन से बनी हुई चीजों का त्याग कर दीजिए। यदि आपकी परमार्थिक या धार्मिक जीवन की ओर रुचि न भी हो तब भी इस साधन को अपनाने में आपके स्वास्थ्य को बड़ा लाभ पहुँचेगा। पढ़े-लिखे व्यक्तियों में आजकल जितने रोग हैं उन सबके पीछे उपरोक्त वस्तुओं की भोजन में प्रबलता होना ही मुख्य कारण है।
अस्वाद व्रत द्वारा इन्द्रिय संयम रूपी साधन पर चलने का यदि आपने प्रयास किया और निरन्तर अभ्यास करते रहे तो आप अवश्य बुद्धि योग के द्वारा ज्ञान, भक्ति या कर्म किसी से भी योग करके सच्चा सुख और शाँति प्राप्त करते हुए अपने वास्तविक सत्यं, शिवं, सुन्दरम् स्वरूप को प्राप्त हो जायेंगे।