Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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हिन्दू धर्म महान है।
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(श्रीमती ऐनी बेसेन्ट)
महान धर्मों में से जिस सर्वप्रथम धर्म का विवेचन करना है, वह कभी तो ‘हिन्दू धर्म’ के नाम से जाना जाता है, कभी ब्राह्मण धर्म के नाम से।
जिसे आधुनिक समय में हम हिन्दू कहते हैं, किन्तु प्राचीन समय में जिसे सदैव आर्य कहा जाता था- उत्तर भारत के आर्यावर्त्त नामक प्रान्त में आकर बसा और वहीं क्रमशः उस निर्दिष्ट दिशा में विकास पाता रहा, जो कि इस के मनु एवं उसके सहकारी महर्षियों ने इसके लिए निर्धारित की थी। इस प्रथम परिवार को हम समग्र जाति के आदर्श का पूर्ण प्रतिरूप पाते हैं, जो कुछ पूर्ण रूप से पुनरुत्पन्न किया जाना चाहिए, वह उसमें पूर्ण रूप से अभिव्यक्त था और उस अभिव्यक्ति की पूर्णता का श्रेय उन्हें ही था जिन पर वे प्रारम्भिक संस्कार अंकित किये गये थे।
प्रारम्भिक घटनाओं को आध्यात्म योग के प्रकाश में दिव्य दृष्टि द्वारा देखने पर हम पाते हैं कि आर्य जाति के प्रारम्भिक काल में उत्पन्न जीवात्माएँ विविध एवं विभिन्न प्रकार की थीं। शासक और विधायक के रूप में मनु सबके अध्यक्ष थे; फिर वे जीवन्मुक्त प्राचीन भारत के ऋषि जो कि जनता के शिक्षक एवं पथ प्रदर्शक थे। उनसे नीचे बहुत बड़ी संख्या में वे आत्मायें जन्म ले रहीं थीं जो पूर्व लोकों में पहले से ही नैतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उन्नति पर थीं और उच्च श्रेणी को प्राप्त कर चुकीं थीं, उनके नीचे वे अल्प वयस्क जीवात्माएं थीं, जिन्हें अभी बहुत विकास करना शेष था। अन्त में कुछ जीवात्माएं वे थीं, जिनका विकास काल तो अपेक्षाकृत बहुत अल्प था, किन्तु उस अल्प काल में ही जिन्होंने चतुर्थ जाति के लिए निर्दिष्ट विकास को पार कर लिया था और जो मनुष्य जाति के उस विशाल विभाग के सबसे सफल सदस्य थे। वे विविध प्रकार के लोग सर्वग्राही धर्म, दर्शन, विज्ञान एवं नीति के संस्कारों को ग्रहण करने की क्षमता रखते थे एवं एक आदर्श रूप बन कर अपने-अपने अल्प विकसित उत्तराधिकारियों को यह परम्परा प्रदान कर सकते थे कि एक आर्य को किस आदर्श का अनुशासन करना चाहिए। उन्हें धर्म, नीति विज्ञान, दर्शन एवं व्यवहार धर्म के संरक्षक बनने के योग्य बनाया गया था अतः वे आर्य जाति के लिए निर्दिष्ट विकास के निर्दोष प्रतीक थे।
इस प्राचीन जाति को प्रदत्त धर्म का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इस धर्म में विकास की विविध श्रेणियों में स्थित सम्पूर्ण मानव जाति के लिए शिक्षण विद्यमान है और यह धर्म मनुष्य के न केवल आध्यात्मिक एवं बौद्धिक जीवन का ही पथ-प्रदर्शक वरंच यह उसके राष्ट्रीय एवं पारिवारिक जीवन के सहयोगियों के साथ भी सब प्रकार के सम्बन्ध व्यवहारों की शिक्षा देता है। यह सम्पूर्ण सभ्यता ही धर्म प्राण है। मनुष्य जीवन का कोई भी अंग इसमें भौतिक या धर्मनिरपेक्ष नहीं माना गया।
हिन्दू धर्म को आप कभी न समझ सकेंगे जब तक कि आप यह न जान लें कि यह धर्म व्यवस्था उन आध्यात्म योगी ऋषियों द्वारा आयोजित की गयी थी, जिन्हें अदृश्य जगत का प्रत्यक्ष ज्ञान था। अदृश्य जगत के सत्यों पर आधारित व्यवस्था का अनुशीलन करवा कर लोगों को इस के ज्ञान की प्राप्ति के योग्य बनाना ही उन्हें अभीष्ट था। इस धर्म के मूलाधार को जान लेने पर ही इसके विविध विभागों का परिशीलन कर सकेंगे।
हिन्दू धर्म में हमें मानवीय ज्ञान और अज्ञान के विविध तारतम्य के अनुसार ही विधि-विधान, अनुष्ठान, संस्कार तथा प्रतिमाएं आदि उपासना के अगणित रूप मिलते हैं, किन्तु उन सभी का उद्देश्य प्रेम को दिखा देना, भक्ति को प्रेरणा देना एवं उपासना को फलवती बनाना ही है। इन साधनों द्वारा क्रमशः उन्नति करते हुए मनुष्य उस विश्वेश्वर के परम स्वरूप की कल्पना तक उस सर्वोच्च ईश्वर की धारणा तक पहुँचते हैं, ईश्वर की धारणा तक पहुँच जाने पर फिर चाहे वे उसकी उपासना विष्णु स्वरूप में करें या उनके किसी अवतार के रूप में अथवा उस पर गोपयोगी ज्ञान के अधिष्ठाता शिव के रूप में ही करें, परन्तु इन अगणित व्यक्त रूपों के मूलाधार उस एक ब्रह्म की धारणा तक पहुँच जाते हैं।
अब हमें यह देखना है कि आत्मा के व्यक्तिगत जीवन में यह शिक्षा किस प्रकार प्रयुक्त होती थी? इस व्यक्तिगत जीवन को हिन्दू धर्म में चातुवर्ण्य व्यवस्था के रूप से चार विशद श्रेणियों में विभक्त किया गया है जिनमें आत्मा के क्रम विकास की सुव्यवस्था है। हिन्दू धर्म में तो आर्य जाति की आदर्श नीति के रूप में इसे राष्ट्र का एक सामाजिक अंग ही बना दिया था, किन्तु जीवात्मा का विकास चाहे कहीं भी हो, उसे इन चार श्रेणियों में से यद्यपि बाह्य जन्मों में नहीं, किन्तु आँतरिक सत्यों में होकर जाना ही पड़ता है। हिन्दू धर्म का निर्माण बाह्य रूपों के पर्याय से आन्तरिक उन्नति का प्रतिनिधित्व करने के लिये ही हुआ था, ताकि मनुष्य इन बाह्य चित्रों को देख आध्यात्मिक सत्यों को सीख लें।
चातुवर्ण्य व्यवस्था में निम्नतम श्रेणी शूद्र की थी, जिसके लिए आज्ञाकारिता एवं सेवा के कर्त्तव्य के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं था। तत्पश्चात् वैश्य की श्रेणी थी जिसमें अर्थ प्राप्ति एवं इसके संग्रह के लिए आज्ञा एवं प्रोत्साहन था, ताकि जीवात्मा अर्थ के परिग्रह में भी निःस्वार्थता की शिक्षा को प्राप्त करें। सेवा कार्यों में धन का सदुपयोग करना ही इस जाति की निर्दिष्ट शिक्षा है। तीसरी श्रेणी क्षत्रियों की रखी गयी थी, जिसमें जीवन को केवल भौतिक भलाइयों से ही पूर्ण नहीं बनाना वरन् सम्पूर्ण जीवन को त्याग का ही स्वरूप बना देना है। और अन्त में ब्राह्मण वर्ग आता है, जिस में किसी भी अनित्य वस्तु में- उसे आकर्षित करने की शक्ति रहती, और जो जीवात्मा का अन्तिम जन्म होता है इन चारों वर्गों में जन्म लेकर इनके द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षा को ग्रहण कर लेने पर इन सब से परे संन्यासी का पद आता है, जिस का कोई वर्ग नहीं, जिस के लिए किसी अनुष्ठान, यज्ञ-योग, संस्कार आदि की आवश्यकता नहीं रहती और जो किसी भी अनित्य वस्तु का परिग्रह नहीं करता। यह संन्यासी देहाभिमानी व्यक्तित्व से इतना पूर्ण रूपेण निर्लिप्त होता है कि लोग उस का अभिवादन भी ‘नमो नारायणाय’ कह कर ही करते हैं अर्थात् उस के बाह्य रूप को नहीं उस के अन्तस्थ नारायण को ही नमन करते हैं।
पृथ्वी पर का भौतिक जीवन चार आश्रमों में विभक्त है। प्रथम है विद्यार्थी जीवन जिस में उसे मानो नवीन शरीर में उन सब गुणों का पुनर्प्रयोग करना है जो कि उसे शूद्र वर्ग के अंतर्गत अपने पूर्व विकास काल में सीखने पड़े थे अर्थात् आज्ञाकारिता, अनुशासन, श्रद्धा, ब्रह्मचर्य, उद्योग और अपने से बड़ों के प्रति कर्त्तव्य परायणता। यह व्यक्तिगत जीवन की प्रथम श्रेणी है। तब दूसरी श्रेणी आती है दाम्पत्य जीवन की, एक नागरिक के रूप में, पति के रूप में, परिवार के स्वामी के रूप में मनुष्य के जीवन की, जो कि राज्य और गृह दोनों के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करता है। यह दूसरी श्रेणी गृहस्थाश्रम गृहस्थों की है, जो कि निःस्वार्थ धर्म का शिक्षालय है और धर्म से पूर्णतया ओत-प्रोत है। यहाँ उसे देव, पितर, ऋषि, मनुष्य और पशुओं को अर्पण करते हुए नित्य पंचयज्ञ करना होता है और इस प्रकार वह अपने नित्य धर्म का पालन करते हुए निःस्वार्थ दान का अभ्यास करता है। इस प्रकार दृश्य और अदृश्य सभी के ऋण से मुक्त हुआ जाता था। इसके अतिरिक्त जीवन के साँस्कृतिक विकास को लक्षित कर विशेष अनुष्ठानों अर्थात् संस्कारों का विधान था। बालक के जन्म के पूर्व के जीवन से संबंधित पुँस वनादि संस्कार, जन्मकाल के जात कर्मादि संस्कार, विवाह संस्कार, मृत्यु के समय के दाहादि संस्कार एवं परलोक तक जीवात्मा का अनुसरण करते हुए मृत्यु के पश्चात किये जाने वाले श्राद्धादि संस्कार इन सब की रचना एक आध्यात्मिक ढांचे के अंतर्गत ही हुई।
दाम्पत्य जीवन का श्रेष्ठतम आदर्श संसार को हिन्दू धर्म ने ही दिया है, जिस में पति-पत्नी का संयोग शारीरिक कामनाओं के कारण नहीं, अपितु आत्मिक संबन्ध द्वारा माना जाता है और आध्यात्मिक विकास एवं उन्नति के लिए ही वे लोग विवाह के अटूट बंधन में सम्बद्ध होते हैं। पुरुष बहुत से अनुष्ठानों को पत्नी के बिना नहीं कर सकता पत्नी, पति की जो कि पति के साथ-साथ उसका गुरु भी है शिष्या मानी जाती है पारिवारिक जीवन में पिता-पुत्र, माता-पुत्र, भाई-बहिन के सुन्दर सम्बन्धों को देखिए, सभी की रचना सावधानी और विवेकपूर्वक की गयी है, जिनमें लक्ष्य सर्वदा एक ही रहा है, मनुष्य के भीतर अंकुरित होते हुए आध्यात्मिक प्रेम को विकसित करना है।