Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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सिनेमा नैतिक पतन का प्रचारक है।
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(श्री किशोरीलाल मशरु वाला)
सिनेमा मनोरंजन के साथ लोक शिक्षण का एक कीमती साधन तो बन सकता है, परन्तु आज जिस तरह सिनेमा फूला-फला और फैला है, वह तो शराब से भी ज्यादा बुराई फैला रहा है,- इस कथन में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है। कुछ वर्ष पहले मेरे इन विचारों को सुनकर एक बन्धु को शंका उत्पन्न हुई। उन्होंने लिखा कि क्या आप ‘तुकाराम’ जैसे धार्मिक चित्रपट को भी भिन्न श्रेणी का नहीं मान सकते। उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे देखकर इस विषय में अपने विचारों की परीक्षा कर लूँ। इसके कुछ समय बाद मैं बम्बई गया और वहाँ उस समय ‘तुकाराम’ की धूम मची हुई थी। घर के बच्चे तो सिनेमा पर मुग्ध थे ही। वे इस आशा से मुझसे उक्त चित्रपट देखने का आग्रह करने लगे कि अगर मैं एकाध बार सिनेमा हो आऊं तो उनका सिनेमा-प्रेम सर्वथा अक्षम्य न माना जायेगा। वर्षों से मैंने सिनेमा न देखा था और बोलने वाली फिल्म में विज्ञान की कौन सी करामात काम करती है, इस बात को जानने का कुछ कौतूहल मन में था। इन सब बातों के अतिरिक्त उक्त मित्र ने तथा घर के बच्चों ने तुकाराम को निर्दोषिता का जो प्रमाण पत्र दे रखा था उसकी सचाई का पता लगाने की भी इच्छा हुई। इस लिये मैं उसे देखने गया। मेरी निगाह में तुकाराम जैसा फिल्म भी विष रहित नहीं है। उसमें विष को धर्म के अनुपान के साथ मिला दिया जाता है। इस लिए एक दृष्टि से वह खुल्लमखुल्ला अनीति का प्रचार करने वाले चित्रों से भी ज्यादा हानिकारक है।
पहली बात तो यह है कि ऐसे धार्मिक या ऐतिहासिक माने जाने वाले चित्र झूठे जीवन चरित्र तथा झूठा इतिहास उपस्थित करते हैं। उदाहरण के लिए इस चित्र में तुकाराम के प्रतिपक्षी के रूप में सालोमाल वेश्या का जैसा चित्रण किया गया है और तुकाराम के जीवन की प्रत्येक घटना के साथ उसका जैसा मेल दिखाया गया है, वह बिल्कुल बनावटी है। तुकाराम के वास्तविक जीवन चरित्र को न जानने वाले भोले दर्शक उसी को जीवन का सच्चा वर्णन समझ लेने की भूल करते हैं, और वास्तविक तुकाराम के बदले अपने दिमाग में एक काल्पनिक तुकाराम को स्थान देते हैं। सिनेमा वालों ने एक तुकाराम का ही नहीं तुलसीदास, कबीरदास आदि सभी संत महात्माओं के चरित्र को इसी प्रकार तोड़ा मरोड़ा है।
इतिहास को इस प्रकार तोड़ने-मरोड़ने का एक मात्र उद्देश्य धन कमाना है। सिनेमा की अधिकाँश कमाई घटिया दर्जे के मनोरंजन से रीझने वाले लोगों से होती है। बिना उन्हें रिझाये सिनेमा वालों का काम चलता ही नहीं। अतएव उन्हें संतुष्ट करने वाले दृश्य उन्हें देने ही पड़ते हैं। तुकाराम के चरित्र की अकेली सात्विक और भक्तिपूर्ण बातों में उनको क्या मजा आ सकता है। इसके लिए रंगभूमि पर सालोमाल का वीभत्स वेश्या जीवन खड़ा किया गया है, और तुकाराम के अमृत के साथ उसमें वेश्या जीवन का उतना ही विष भी घोला गया है।
हम यह कह सकते हैं कि कामोद्दीपन, चोरी और हत्या की कला- ये सिनेमा के स्थायी अंग हैं। शराबी, शराब का नशा उतरने पर भला मानस बन सकता है, लेकिन सिनेमा के पर्दे पर दिखाये जाने वाले वीभत्स दृश्य बालकों और तरुणों के मन पर जो संस्कार डालते हैं, उनका प्रभाव उनके समस्त जीवन को बर्बाद करने की शक्ति रखता है। लेकिन पढ़ी लिखी जनता भी अगर ऐसे ही दृश्यों की भूखी हो, तो इसका क्या उपाय? युवक और युवतियों को नाच अच्छे लगते हैं, शृंगार प्रधान चित्रों और कहानियों में वे आनन्द का अनुभव करते हैं, इस लिये वे तो देखने जायेंगे ही अगर देखने नहीं गये तो रेडियो के सामने बैठकर उनके गीत सुनेंगे।
विद्यालयों में सिनेमा का-सा नाच या गाना सिखाना बुरा नहीं समझा जाता। ऐसी दशा में जो लोग खुद यह सब देखने जाते हैं, सिखाते हैं, वे अपने बच्चों को किस मुँह से कह सकते हैं कि वह उनके देखने लायक नहीं हैं।
जिस प्रकार कानून का बंधन हो या न हो, अपना सुरक्षा चाहने वाले को शराब का त्याग करना उचित है, उसी तरह सिनेमा का त्याग भी आवश्यक है।