Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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शान्ति-दूत (Kavita)
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रणभेरी बन्द करो, अब मेरी धरती पर,
संहारों के ये गीत न गाए जाएँगे,
तलवारें अब लोहू से नहीं नहाएँगी-
बे-मौसम नन्हें फूल नहीं मुरझाएँगे।
छाया विनाश का यह जो घना-अँधेरा है,
रवि के अँगारों में इस को जलना होगा,
जीवन की लता फली-फूली लहराएगी-
पतझर के पैरों को पीछे हटना होगा।
विध्वंस! और अपनी ताकत अजमा देखो,
सोने वालों पर वार किया, क्या वार किया!
इतना आभार मानते हैं हम भी तेरा,
तेरी चोटों ने बहुत बड़ा उपकार किया,
हम एक-दो नहीं, आज एशिया के जवान-
दुनिया भर का विष पी जाने को मचले हैं,
सिर कफ़न बाँध कर, शीश हथेली पर ले कर,
अपना पावन-परचम लहराने निकले हैं।
आ बैठे ठंडी साँसों में उन्चास पवन,
नयनों में धधक उठी पौरुष की ज्वाला है,
सोए अरमानों ने आकाश छू लिया है-
वाणी में पाँचजन्य का घोष निराला है।
अँगारों पर धर चरण चले हैं दीवाने,
है कौन एशिया का जो शीश झुकाएगा?
कारवाँ शांति के दूतों का घर से निकला,
मंजिल से पहले कदम नहीं लौटाएगा।
धरती ने करवट बदली, डोला आसमान,
सम्हलो, सम्हलो, भूगोल बदलने वाला है,
खौलने लगा है हिन्द महासागर का जल,
मन्थन से कोई रत्न निकलने वाला है।
गंगा की लहरों में यह कैसी सिकुड़न है!
गिरिराज-हिमाचल ने क्यों शीश उठाया है?
इतिहास खुल गए हैं किसकी अगवानी में?
कारवाँ शाँति के दूतों का बढ़ आया है।
घंटे बजते हैं सोमनाथ के मन्दिर के,
ऐलोर-अजन्ता की प्रतिमाएँ बोल रहीं,
कारवाँ शाँति के दूतों का बढ़ आया है,
बाधाएँ खुद अपनी जड़-गाँठें खोल रहीं।
कारवाँ शाँति के दूतों का यह नया,
हम ने दुनिया को सदा राह दिखलाई,
जीवन की जय के गीत सदा हम,
पीढ़ियाँ जिसे अब तक दुहराती आँयी।
वह सत्य, कर्म की महिमा, गीता का नारा,
‘वसुधा कुटुम्ब’ है, हर मनुष्य से प्यार करो,
धरती के नक्षत्रों! अँधियारे पर टूटो,
मिट जाओ, पर मानवता का शृंगार करो।
अभियान बुद्ध का, शाँति-अहिंसा का
एशिया न केवल, विश्व झुका जिसके आंडडडड
गाँधी, जिसकी वाणी की तुलना नहीं
क्या कहूँ! काल का दर्प थका जिसके अंडडडडड
नेहरू के फौलादी हाथों का यह मशाल,
रोशनी दे रही है जग के अँधियारे को,
हिंसा के मेघों! लील नहीं पाओगे अब,
जगमगा रहे मानव के भाग्य-सितारे को।
यह कोटि-कोटि बलिदानी वीरों का प्रंडडडडडड
इतिहासों की कालिख धो देने आयंडडडडडड
एशिया, शाँति का दूत एशिया, ध्वंस
बूढ़े-युग का शृंगार, जवानी लाया है।
दुनिया देखे, खूनी-एटम से टकराने-
हम ‘पंचशील’ की सुदृढ़ ढाल लेकर आए,
निश्चय के दृढ़ हाथों में बाधा के पहाड़,
समता के बल पर हम सब आज उठा लाए।
कैसा विरोध? कैसी विपदाएँ? कैसा गं
यह गीत शाँति का जग भर को गाना होगा,
सौ कवच भेदकर भी विनाश के आज,
अलका को धरती पर उतार लाना होगा।
*समाप्त*
(श्री आनन्द मिश्र)
(श्री आनन्द मिश्र)