Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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कल्पवृक्ष आपके पास ही हैं।
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(श्री. श्यामसुन्दर सहाय)
कल्पतरु की कथा भारतीय साहित्य में आदि काल से चली आ रही है। ‘कल्पतरु’ जैसा नाम है, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कहीं यह ‘कल्पना तरु’ न हो। यदि ‘कल्पना तरु’ भी हो तो कल्पना प्रसूत करने की शक्ति तो इसमें है ही। इस पुरातन वृक्ष की छाया हर युग एवं हर एक में अपनी शीतलता प्रदान करती रही है। इसकी गाथा सुरलोक, नरलोक एवं नागलोक तक प्रचलित है।
वास्तव में यह ‘कल्प-तरु’ है क्या? क्या ‘नदंन कानन’ का एक अपूर्व वृक्ष! इन्द्र का मनोरथ पूर्ण करने वाला पारिजात!! यह भी कहा जाता है कि इन्द्र ने इस ‘कल्प-वृक्ष’ से जो माँगा सो पाया। उसकी मनोकामना पूरी हो गई तो फिर इसे क्यों न प्राप्त किया जाय? सौर आज के युग में- जब कि भौतिक विज्ञान और जगत् में नित्य नये करिश्मे दिखा रहा है! आज का विज्ञान पा तो सकता है इसे, पर इसका कोई निश्चित स्थान हो तब तो! यह सत्य है कि स्थूल जगत् में इसका वास नहीं है। ‘रॉकेट’ या ‘सैटेलाइट’ तो बाहर-बाहर घूमते हैं। ज्ञानियों का कहना है-यह मानव के हृदय कानन का ‘अनुपम शृंगार’ है, अपूर्व पौरुष प्रदान कराने वाला- अरूप के पर्दे से रूप का भास करने वाला! जब ऐसी बात है तो क्यों नहीं दो-चार व्यक्तियों की शल्य क्रिया कर इस मनोरम तरु का भेद लिया जाय; या मानवकृत ‘वनस्पति शाली’ में इसकी फसल पैदा की जाय। नियति की क्रूरता कहिये या मनुष्य की अज्ञानता अथवा शक्तिहीनता, जो अंधेरे में भटकने पर बिजली का आविष्कारक यह मानव, अपने इन दो चक्षुओं को पाकर भी इस ‘प्रकाश-पुँज’ को, इस ज्योतिस्वरूप को ठीक ठीक न देख सका, न ठीक-ठीक समझ सका।
पौराणिक साहित्य में ‘कल्प-वृक्ष’ के बारे में कहा गया है कि ‘समुद्र मन्थन’ के समय जो अनुपम रत्न निकले उसमें एक यह भी है। ‘समुद्र मन्थन’ आध्यात्मिक पक्ष में मनुष्य की दैवी और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष है। वैदिक साहित्य में मनुष्य का शरीर घट या कलश कहा गया है। मन उसका दैव अंश है। साथ-साथ सम्पूर्ण मानव को समुद्र की संज्ञा दी गई है। इसी समुद्र का मंथन प्रत्येक मनुष्य के जीवन में चलता रहता है। इसी संघर्ष में उसके विकास का रहस्य छिपा है। संघर्षहीन प्राणी को प्रकृति का जड़ अंश ही समझना चाहिये।
शरीर क्रिया विज्ञान में मनुष्य के केन्द्रीय नाड़ी जाल का वर्णन एक वृक्ष के रूप में किया गया है। पश्चिम के विद्वान् इसे ‘जीवन-वृक्ष’ कहते हैं। नाड़ी की शाखा-प्रशाखादि इस वृक्ष के अंग-प्रत्यंग हैं। मनुष्य का स्वास्थ्य और जीवन इस नाड़ी संस्थापन पर प्रतिष्ठित है। यह वनस्पति ही ‘मनुष्य जीवन’ के केन्द्र में ‘स्थापित यूप’ है। यही वृक्ष साँकेतिक “कल्पतरु” है। वास्तव में यह कल्पतरु मानव ही है। प्रकृति की सर्वोत्तम कृति!..... जो अपने को ‘कल्पवृक्ष’ समझकर भी स्वयं ‘संकल्प’ भूल गया, साथ-साथ खो बैठा अपना स्वस्थ रूप ‘विकल्प’ की घूर्णिचक्र में पड़कर। इसे भी नियति का व्यंग कहिये, “तेरे अंदर सब कुछ है, और तू ढूँढ़ रहा है बाहर।”
‘कल्प’ और ‘कल्पना’ एक ही धातु से बने हैं। ‘कल्प’ दो प्रकार का है- एक ‘संकल्प’ और दूसरा ‘विकल्प’। कल्प में ‘सम्’ और ‘वि’ उपसर्ग जोड़ने से दो शब्द बनते हैं-
सम+कल्प=समाधि।
वि+कल्प=व्याधि।
मन की शक्तियों का रहस्य ‘संकल्प’ या ‘समाधि’ है। नाना विकल्पों से मन व्याधि की ओर जाता है। उसकी शक्ति का क्षय होता है। इस प्रकार का ‘कल्प तरु’ प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी के भीतर लगाया है। उसी का फल हम संकल्प मात्र से मनोनुकूल प्राप्त कर सकते हैं, पर उसकी उपलब्धि तरु की छाया तक ही सीमित है। स्रष्टा ने इसे भी अपनी मर्यादा के अंतर्गत ही रखा है। सम्भवतः इस पवित्र वस्तु को मर्यादा हीन होने से बचाया है। यह सच है कि कल्प तरु की छाया से बाहर मन का राज्य समाप्त हो जाता है।
कहीं-कहीं पर इस कल्प तरु को स्वर्ग का वृक्ष कहा गया है। इस साँकेतिक प्रयोग का भी रहस्य है। विचार मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं। मनोरथ की गति का पहिया मस्तिष्क में चक्कर काटता है। मस्तिष्क का अन्य नाम स्वर्ग भी है, जहाँ ज्योतिलोक है। इसी से इस ‘कल्प-तरु’ को स्वर्ग का वासी कहा गया है। अर्थात् स्वर्ग का वृक्ष, जो कि नीचे उगता ही नहीं। इसका एक और प्रचलित नाम है और वह है पारिजात! ‘पारिजात’ की संज्ञा देने का भी विशेष प्रयोजन है। यह जन्म लेते ही प्राणी के साथ उगता है, मृत्यु के संग यह भी सुप्त हो जो जाता है। यह संकल्प या कल्पना दो प्रकार का है- एक शिव और दूसरा अशिव। ‘शिव संकल्प’ मानव कल्याण का हेतु हैं। इसी से पुराणकार ने कल्प वृक्ष के तले ‘शिव संकल्प’ अमृत प्राप्त करने की शिक्षा दी है। अब यह प्राणी पर निर्भर करता है कि वह अपने कानून के ‘पारिजात’ से ‘संकल्प’ या ‘विकल्प’ का पुष्प माँग ले।