Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या रसायन विद्या सच्ची है?
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(श्री. राजेन्द्र प्रसाद नारायणसिंह)
हमारे देश में रसायन अर्थात् सोना बनाने की बहुत सी बातें सुनने में आती हैं। सौ पचास वर्ष पहले की बातों को जाने दीजिए आज भी आप तलाश करें तो आपको कोई शहर या कस्बा ऐसा न मिलेगा, जिसमें किसी व्यक्ति के बारे में यह प्रसिद्ध न हो कि वह सोना बनाना जानता है। हमारे ही एक परिचित ने ‘जड़ी-बूटी’ पर एक पुस्तक लिखी, उसमें कम से कम 4 नुस्खे सोना बना सकने के मौजूद हैं। पर साथ ही यह भी सत्य है कि आधुनिक विचारों के लोग इन सभी बातों को गप्प समझते हैं और अखबारों में प्रायः समाचार छपा करते हैं कि ‘सोना बनाने वाले’ कोई साधु महाशय किसी गृहस्थ को सोना बना देने के बजाय उसके भी दस पाँच तोला सोने को लेकर गायब हो गये। इन दोनों तरह के मतों के बीच वास्तविक बात क्या हो सकती है, इसका अनुमान पाठक नीचे लिखे लेख से लगाने की चेष्टा करें। साथ ही हम अपने पाठकों को भी चेतावनी देना चाहते हैं कि वे कभी सोना बनाने का दावा करने वाले ऐरे गैरे लोगों के चक्कर में न फंसें।
‘कीमिया’ अथवा रसायन किसको कहते हैं? सर्व साधारण की मान्यता के अनुसार यह एक ऐसी विद्या है जिसके द्वारा घटिया धातुओं को सोना या चाँदी के रूप में बदला जा सकता है। ‘कीमिया’ अरबी भाषा का शब्द है। एक समय ऐसा था कि अरब में इस विद्या का बड़ा जोर था। पर यह विद्या उनकी निजी न थी। यह उनको उन यूनानियों से मिली थी जो अलैक्जैंड्रिया से हट कर उनके देश में आ बसे थे। अरब से यह चीज पश्चिमी योरोप में पहुँची। अरब के लोगों में ऐसी धारणा थी कि यह विद्या स्वर्ग के कुछ फरिश्तों ने जान-बूझकर मनुष्यों को सिखलाई है, जिससे वे भगवान से अपने झगड़े का बदला ले सकें।
पर स्वर्ग के फरिश्तों की बात को दूर रखें तो भी इसमें सन्देह नहीं कि पूर्व काल में बहुत से मनुष्य इस विद्या को जानने का दावा करते थे और किसी के पूछने पर उसे बताने से इनकार करते थे। बहुत अधिक कोशिश करने या सेवा करने पर ही उनसे इस सम्बन्ध में कोई बात जानी जा सकती थी। हम नीचे एक आंखों देखी घटना लिखते हैं जिससे इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा-
आज से लगभग 40 साल पहले की बात है कि मेरे पिताजी के पास एक बुड्ढा मुसलमान आया करता था। वह हकीम था और बड़े-बड़े मरीजों को सहज में अच्छा कर देता था। कुछ ही दिन पहले वह हमारे पास के एक कस्बे में आकर रहने लगा था। उसका जन्म कहाँ हुआ था, कहाँ का रहने वाला था, कहाँ रहकर पढ़ा था, इन बातों का उत्तर वह कभी नहीं देता था। अगर कोई बहुत ही आग्रह करता तो वह कुछ कहता, पर उसका कहना और भी सन्देहजनक जान पड़ता। कोई उसकी उमर पूछता तो वह एक लम्बी सूची बतलाता कि “मैं अपने जीवन के तीस वर्ष तुर्किस्तान में, चालीस वर्ष मिस्र में, पचास वर्ष तिब्बत में, साठ वर्ष चीन में, दस वर्ष बंगाल में रहा, आदि आदि।” उसके बतलाये सब वर्षों को जोड़ा जाता तो वह 300-350 वर्ष का सिद्ध होता। कुछ भी हो वह शकल से 90-100 वर्ष का तो अवश्य लगता था। लम्बा कद, शरीर पर झुर्रियाँ, देह की नसें एक दम ऊपर उभरी हुई आदि अति वृद्धावस्था की सभी निशानियाँ उसमें पाई जाती थी। उसकी पोशाक भी अजब ढंग की थी। पैरों में कामदार जूते, पेशावरी पायजामा, लम्बा सा कामदार चुगा, गले में तरह-तरह की मालायें और माथे पर विचित्र प्रकार की कामदार पगड़ी। उसकी ऐसी मिली-जुली अद्भुत पोशाक देखकर यह नहीं जाना जा सकता था कि वह किस देश का रहने वाला है। वह अनेक भाषाएं जानता था और कभी-कभी ऐसी भाषा बोलता था जो हमारी समझ में बिलकुल नहीं आती थी। दवाएं भी वह अपने हाथ से बनाता था और वे बड़ी कीमती भी होती थी। एक बार उसने हमारे यहाँ एक दवा तैयार की जिसमें कितने ही महीने लग गये और खर्च भी लगभग तीन हजार रुपये हो गये। उसकी गोलियाँ बनाई गई थी। एक दिन उन गोलियों को धूप में सुखाया गया था कि हमारा पालतु हिरन वहाँ आ गया और उसने कई गोलियाँ खा डालीं। थोड़ी देर बाद वह उनकी गर्मी से ऐसा व्याकुल हुआ कि सामने की बावड़ी में कूद कर जान दे दी। इस घटना से हम सब इतने भयभीत हो गये कि कोई उस दवा को खाने के लिए राजी न हुआ और उस पर सारा खर्च और मेहनत ऐसे ही गई।
यह हकीम कीमिया विद्या का भी बड़ा जानकार था। जब हमको इस बात का पता लगा तो उसके पीछे पड़ गये और वह भी उसका प्रमाण देने को तैयार हो गया। वह स्वयं जंगल में जाकर कितनी ही तरह की जड़ी-बूटी उखाड़ लाया। एक बड़ी भट्टी जलाकर उसके ऊपर एक बड़ी कढ़ाई रख दी गई और उसमें उन जड़ी-बूटियों का रस निकालकर डाल दिया गया, रस में एक लोहे का टुकड़ा भी छोड़ दिया। पूरे दो सप्ताह तक रात-दिन भट्टी जलाई जाती रही। पर इतनी आग लगने पर भी जड़ी-बूटियों का रस सूखा नहीं। अन्त में पन्द्रह दिन बाद वह लोहे का टुकड़ा सोने के रूप में बदल गया। हमने सुनारों को बुलाकर उसकी परीक्षा कराई और उन्होंने हर तरह से जाँच करके उसको ठीक सोना ही बतलाया।
हमने इस नुस्खे को जानने का बड़ा आग्रह किया, पर उसने बतलाया नहीं। बहुत अधिक पीछे पड़ने पर उसने चार लाइन का एक पद्य सुना दिया और कहा कि ‘मेरा समस्त नुस्खा इसी में समाया है।’ पर इन लाइनों का रहस्य उसने नहीं समझाया। वह पद्य नीचे दिया जाता है, शायद कोई पाठक उसका अर्थ निकाल सके :-
तोरस मोरस गन्धक पारा।
इनहिं मार इक नाग संवारा॥
नाग मार नागिन को देय।
सारा जग कंचन कर लेय॥
यह बुड्ढा दो वर्ष तक रहा। पीछे एक दिन न जाने कहाँ अदृश्य हो गया, उसका कुछ पता ही न लग सका। मैं आज भी विचार करता हूँ कि वह कौन था? क्या वह कोई फरिश्ता था या दैवी हकीम था? वह चाहे जो हो, पर एक रहस्यमय और दैवी पुरुष तो था ही।
अरबी भाषा में इस विद्या पर अनेक ग्रन्थ मिलते हैं, उनमें से कितने ही तो पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में मौजूद हैं। लीडन विश्व विद्यालय की लाइब्रेरी में भी कितने ही ग्रन्थ मिलते हैं। इनमें से कितने ही तो मौलिक हैं और कुछ यूनानी ग्रन्थों के अनुवाद हैं। इस विषय का सबसे पहला मुसलमान लेखक ‘खालिद बिन आजिद’ था जिसकी मृत्यु सन् 708 ई. में हुई थी। वह सीरिया के मेरियानस नाम के पादरी का चेला था। अरबी भाषा की एक पुस्तक ‘किताबें अलफिहरिस्त’ में उसका जीवन-चरित्र दिया हुआ है। यूनानी ग्रन्थों का अनुवाद करने वालों में जबीर नाम का लेखक मुख्य है जो सन् 900 और 1200 के बीच कभी पैदा हुआ था। उसने कीमिया विद्या का बहुत अध्ययन किया था और कहते हैं कि वह सचमुच सोना बना सकता था।
पश्चिमी योरोप की भाषाओं में भी इन अरबी ग्रन्थों के अनुवाद हुए हैं। एड्रियस लिवेमियस (सन् 1616), तुलाबोआ सिलमियस (सन् 1614 से 1672) तथा सर आइजक न्यूटन जैसे विद्वान और वैज्ञानिक भी इन ग्रन्थों की तरफ आकर्षित हुए थे। सच पूछा जाय तो सोना बनाने के लिए तरह-तरह की वस्तुओं का परीक्षण करते-करते ही योरोप वालों ने आधुनिक रसायन शास्त्र का आरम्भिक ज्ञान प्राप्त किया था। अंग्रेजी में कीमिया विद्या को ‘आलकेमी’ कहा जाता है और उसी से रसायन शास्त्र का वर्तमान नाम ‘कैमिस्ट्री’ बना है।
भारतवर्ष में भी यह विद्या कोई नई बात नहीं है। एक जमाना था जब यहाँ इसकी खूब चर्चा थी। हमारे यहाँ विद्या अधिकाँश में साधुओं और फकीरों तक ही सीमित थी। वैसे संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रन्थों इसका उल्लेख मिलता है। सम्भव है इन बातों में कभी कोई वास्तविकता रही हो, पर इस समय तो संसार में इस विद्या का अस्तित्व नहीं जान पड़ता। जादूगर तो आज भी पाये जाते हैं, पर कीमियागरों-नकली अथवा ढोंगी कीमियागरों की तो बात ही करना व्यर्थ है, पर सच्चे कीमियागर कहीं दिखाई नहीं देते। अगर कहीं होंगे भी तो उनके विषय में हमको कोई ज्ञान नहीं है। शायद यही कारण हो कि आजकल सोने का भाव इतना अधिक बढ़ गया है।