Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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बन्धन से मुक्ति
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(माता आनन्दमयी)
एक था राजा। उसको धन-दौलत की कमी न थी तो भी उसको शाँति प्राप्त नहीं होती थी। किसी व्यक्ति से उसे बतलाया कि गुरु से मंत्र लेकर जप करने से शान्ति मिल सकती है। तब वह अपने कुलगुरु की खोज करने लगा। इतने दिन तक बेचारे गुरु का किसी को पता भी न था और वह बड़ी गरीबी की हालत में दिन बिता रहा था। राजा का बुलावा पाकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। उसने भी राजा को विश्वास दिलाया कि मंत्र का जप करने से उसको शान्ति मिलेगी। राजा ने विधिवत् मन्त्र लिया और श्रद्धापूर्वक उसका जप करने लगा। गुरु महाराज को भरपूर दक्षिणा मिली और वे सुख से रहने लगे।
पर जब काफी समय बीत जाने पर भी राजा को शाँति नहीं मिली तब उसने गुरु को बुलाकर कहा कि देखो, आपके कथनानुसार सब कार्य करने पर भी मुझे शाँति नहीं मिलती। अब आपको सात दिन का समय दिया जाता है। इस बीच में या तो मुझे शाँति का सच्चा उपाय बतलाओ वर्ना तुमको कुटुम्ब सहित मरवा दिया जायगा। यह सुन कर गुरु घर चले आये और चिंता से व्याकुल होने लगे। मृत्यु के भय से उनका खाना-सोना भी छूट गया।
गुरु के एक लड़का था जो मूर्ख की तरह इधर उधर जंगल में घूमकर समय व्यतीत करता और केवल भोजन के लिए घर आता था। जब छः दिन बीत गए तो सातवें दिन मृत्यु को निकट आया समझकर उसके माँ-बाप इतने दुःखी हुये कि उस दिन घर में चूल्हा भी न जला। जब वह लड़का भोजन के समय घर आया तो खाने की कोई सामग्री न पाकर लड़ने-झगड़ने लगा। उसके बाप ने उसे तमाम किस्सा बतलाया। लड़के ने कहा इसमें डरने की क्या बात है, तुम कल मुझे राजा के पास ले चलना, मैं उसे शाँति प्राप्त करने का उपाय बतला दूँगा। बस अब तुम चिन्ता त्यागकर भोजन की व्यवस्था करो।
दूसरे दिन बाप और बेटा दोनों राजा के पास गये। राजा के प्रश्न करने पर गुरु ने लड़के की तरफ इशारा किया कि यह आपको शाँति का मार्ग बतलायेगा। राजा के पूछने पर लड़के ने कहा कि अगर राजा उसके कहने के मुताबिक काम करने को राजी हो तो वह अवश्य शान्ति का उपाय बतला सकता है। राजा ने इसे मंजूर कर लिया।
तब लड़के ने दो बड़ी और मजबूत रस्सियाँ मँगाईं और राजा तथा गुरु को अपने साथ जंगल में चलने को कहा। वहाँ एक स्थान पर तीन बड़े-बड़े पेड़ लगे हुये थे। लड़के ने एक पेड़ के साथ राजा को कस कर बाँध दिया और दूसरे से गुरु को बाँध दिया। तब वह स्वयं तीसरे पेड़ पर चढ़कर आनन्द से गाने और उछल-कूद मचाने लगा। कुछ समय बाद बन्धन की यंत्रणा से व्यथित होकर राजा ने लड़के को पुकारा। पर लड़के ने जरा भी ध्यान न दिया। वह अपने गाने, नाचने में मग्न हो रहा था। तब राजा ने गुरु को पुकार कर कहा, “लड़का तो सुनता नहीं आप ही इस बन्धन को खोल दीजिए।” गुरु ने उत्तर दिया—”मैं तो स्वयं ही बँधा हूँ आपके बन्धन को किस प्रकार खोल सकता हूँ!”
बन्धन के कष्ट से चिल्लाते-चिल्लाते अकस्मात् राजा के चित्त में दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा कि मैं विषय-भोगों के बन्धनों में रहकर शान्ति किस प्रकार पा सकता हूँ और जो गुरु स्वयं साँसारिक बन्धनों में बँधा है वह मुझे बन्धन-मुक्त किस प्रकार कर सकता है? तब उसने गुरु के लड़के को पुकारा कि अब रस्सी को खोल दो मुझे शाँति का मार्ग मालूम हो गया। गुरु-पुत्र ने आकर उसे खोल दिया और वह अपनी राजधानी को लौटने के बजाय वहीं वन में रहकर आत्म-चिंतन करने लगा।