Magazine - Year 1959 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मैं वैरागी कैसे बना?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(राष्ट्रसन्त तुकड़ोजी महाराज)
मैं बहुत खोजता हूँ कि मुझे त्याग और वैराग की प्रेरणा कब से मिली? मगर मुझे उसका समय भी याद नहीं आता और आज भी मेरे पास उसका पता नहीं है। फल मात्र है निश्चित! जैसा ही मुझे बचपन में होश आया, अन्य लड़कों से मेरा कदम कुछ दूसरी ओर था। जैसे जैसे दिन बीतते गये वैसे ही उनके साथ मेरे विचार भी बढ़ने लगे; काम भी और व्यवहार भी बढ़ते गये। जो चीज पहले मेरी लगती थी वह विचारों के साथ साथ सब की होती रही। मैं जो अपने को अपना मानता था वह बढ़ते बढ़ते सब का मानने लगा-’मैं मानव मात्र का हूँ’ ऐसा स्वाभाविकता से लगने लगा। जो सम्प्रदाय मेरा मालूम होता था, विचार के बढ़ जाने से वह व्याप्त हो गया और सब का सम्प्रदाय मेरा प्रतीत होने लगा। मैं जिनको अपने गुरु, अपने माँ-बाप मानता था, उनकी जगह अब ‘सभी गुरु अपने हैं, सभी माँ-बाप का मैं बेटा हूँ, सभी बेटे मेरे समान हैं’ ऐसा बिना कुछ छोड़े और बिना कुछ पकड़े ही ख्याल होने लगा। यह तो जैसे नैसर्गिक क्रम से होता गया। मैं इसका शास्त्रीय क्रम अभी भी नहीं जानता हूँ कि मैं कैसे बढ़ा और किस साधना से बढ़ा।
हाँ, वह एक साधन मेरे पास जरूर था कि जिस किसी ने मुझसे जो भी कहा उसको बोध मुझे बराबर हुआ और श्रद्धायुक्त भावना से उनका सुनते हुए आगे बढ़ने की मैंने कोशिश की। पर उसमें यही देखते गया कि ये सब साधन उनके हैं- उनके अनुभव के हैं; खुद अपने को कुछ उनसे, और कुछ अपने मन से लेना पड़ेगा। यही धारणा बनती गयी। अभी भी मैंने कुछ त्यागा नहीं। ख्याल में थोड़ा फर्क जरूर है। कपड़ा पहनता हूँ’ मगर कल का कौन सा कपड़ा अपने पास है-कभी ढूँढ़ा ही नहीं। जो मिला सो पहन लिया। खाने-पीने का भी यही तरीका है। जो मिला खा लिया, जहाँ जगह मिली वहीं रहा और जिसने सम्हाला उसी का बना। जब लोग मुझे अपने-अपने घर ले जाने को आपस में झगड़ा करने लगे तब सब, ने तय किया कि तारीख वार दिन दिये जायँ। तारीख सम्हालने वाले भी मिले।
मुझे दी हुई भेंट मैंने कभी पास नहीं रखी। किसी ने जेब में डाल दी तो याद नहीं रही। धोने में सैकड़ों नोटें भीग गयीं, खराब हो गयीं फट गयीं। बाद में पास के आदमियों ने उसे सम्हाला। जो भजन बनते गये वे जहाँ लिखे वहीं रह गये। जब जनता को ठीक लगा तब उन्हीं लोगों ने उसका संग्रह किया और फिर ‘प्रकाशन मंडल’ बने। कुछ बातें अच्छी लगीं तो जनता ने उनका भी संग्रह कर लिया। कुछ लोग प्रेमी बने, उनका एक मंडल बन गया और अब तक हजारों शाखाएँ बन चुकीं। लाखों भेटें मिलीं, लाखों खर्च चले। समय बचा नहीं, अपना कुछ रहा नहीं। पास में खजाना नहीं, पर खर्च करने को कम नहीं। जो मिले सो अपना, जो गाली दे सो भी अपना। यह सब जीवन के साथ बढ़ता ही गया। अनुभव बढ़ा, त्याग बढ़ा, वैराग बढ़ा। मगर बढ़ा कब और शुरू हुआ कब, इसका अंदाज नहीं पाया।
मैं तो यही मानता हूँ कि किसी को कुछ भी त्यागना नहीं है, सिर्फ उसकी मालकियत को व्यक्ति से हटाकर सर्वव्यापी करना है। त्याग-वैराग के लिये कुछ करना नहीं है, बल्कि सब की मालकियत को समझना है। ईश्वर से मिलना नहीं है, बल्कि अपने में उसका अनुभव करना है। मुक्ति प्राप्त करना नहीं, बल्कि अपनी मुक्त आत्मा का ज्ञान भर कर लेना है, समझकर उसी में रहना है। क्योंकि आत्मा का यही रूप है। अनुसंधान में सब कुछ पा जाता है।
हाँ, कुछ स्मरण है कि जब मंदिर में ध्यान करने गया तब मंदिर में ही रममाण होने लगा और वहीं मुझे अपना घर महसूस होने लगा। जब पिता भोजन को ले जाते तब कहीं घर की याद! जब पिता ने छोड़ दिया, तब जो ले जाता उसी का घर घर बन जाता। बेफिक्र था मन! एक दिन भजन की कुछ बहियाँ लिखकर रखदीं और बाहर गया, तब किसी दूसरे ने उसे चुराने की चेष्टा की। तो उनके अतराफ दो साँप उसको दिखे। तब वही मेरे पास कहने आया कि “भाई” क्षमा करो। मेरे दिल में चोरी करने की बुद्धि आयी थी, मगर जब देखा कि बड़े बड़े दो साँप दरवाजे पर लटक रहे हैं तब पश्चात्ताप हुआ।” यह सुनते ही और विश्वास दृढ़ हुआ कि अपना रक्षण करने वाला हमेशा मौजूद है तब तो और भी बेफिक्र बना।
एक मित्र ने कहा कि ‘तुम निकम्मे हो, मुफ्त का खाते हो। तुमसे काम कुछ नहीं बनता।’ दिल को लगा, यह ठीक नहीं है। सिलाई की मशीन का धंधा सीखा तीन माह में। एक मशीन उधार खरीद ली और उस पर काम करके चार महीने में पैसे अदा किये। साथ ही उसी वक्त मशीन को बेच डाला और एक बड़ा सत्यनारायण किया जितने भी पैसे मशीन के आये थे दान में उड़ाये यानी भूखों को रोटी खिलाकर मुक्त हुआ। और उसी रात को भजन करके कहा- “मैं निकम्मा नहीं हूँ। काम कर सकता हूँ। मगर मुझे उसकी जरूरत नहीं है। खाऊँगा कम और काम करूंगा बहुत, जो मेरे और धर्म तथा देश के काम आ जाये।” लोगों को विश्वास हुआ। फिर लोग ही मेरी फिक्र करने लगे। मुझे कुछ छोड़ने और पकड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
मुझे कुछ याद होती है, एक सातली-कोथली कर महाराज मेरे जन्मगाँव में रहते थे। उन्हीं के पास मैं बचपन में रहता था। वे ही मुझे भजन सिखाते थे, सिर्फ मैं उनके पास बैठा करता था बस, एक रोज हाथ में एकतारी ली और गाने लगा। उन्होंने कहा, “अब तुमको भजन ही करना होगा।” बड़े अच्छे महात्मा थे! मुझे वहीं से भजन का चस्का लगा।
जब में गुरु महाराज (श्रीसमर्थ आडकोजी महाराज) के समाजाने के बाद जंगलों में भागा तब मेरी वृत्ति कुछ पागल सी थी। मेरे बदन पर कपड़ा नहीं था, लंगोटी भी नहीं थी। एक नशा सा छाया हुआ था, कि मैं आत्म साक्षात्कार कैसे करूंगा? रोता था, कभी पत्थरों से पूछता था, कभी झाड़ों के साथ बोलता था-तुम तो इसी में व्याप्त हो ना? तब बोलो, मुझे साक्षात्कार कैसे होगा?” कभी बादल से आंखें लगाता था। कभी शेरों की गुफाओं में घुसकर ध्यान करता था कि मेरा डर निकले और मैं अमर आत्मा का अभ्यास करूं, मगर यह सब स्वभाव था। कभी एक चित्त से एक भी साधन मैंने नहीं किया। चिंतन बहुत किया, चिंतन से ज्ञान हुआ, ज्ञान से अनासक्ति बढ़ी और उपासना, भजन से लोक-सेवा बढ़ी। मगर वैराग का पता नहीं लगा कि, मुझे वैराग कब से हुआ?
एक कारण का पता चलता है कि जब मुझे मन्दिर में ध्यान नहीं करने दिया तब माता के कहने से जंगलों में बैठने का, नदियों के किनारे शंकर जी की रेणुमूर्ति बनाकर ध्यान करने का अभ्यास शुरू किया। संसार से उपराम होने का भाव तभी बताया गया-बढ़ता गया। यही सिर्फ याद है; मगर उसे वैराग कैसे कहूँ? वह तो मेरा हठ था, आग्रह था।
जब मैंने बदन के कपड़ों को छोड़ा तब तो मुझे याद ही नहीं आता था कि मैं नंगा नहाया हूँ या कपड़ा पहने हुए हूँ। मेरा तो वह क्षण जैसे देह-विसर्जन का था कि या तो मैं मर जाऊँ या कुछ मिलाऊँ-दर्शन पाऊँ । यह तो लगन थी, इसे वैराग कैसे कहा जाय? तब वैराग की प्रेरणा का दिन या कारण कैसे समझा सकता?
यही समझ लिया है मैंने कि बड़ी चीज के लिए छोटी चीजों की प्रीति छोड़ी, महान प्रकाश के लिये अल्पजीवी प्रलोभन छोड़े और ‘सब मानव मेरे’ ऐसा समझने के लिये जाति, पंथ, पक्ष, धर्म आदि की सीमाएँ छोड़ी। सर्वव्यापी आत्मा के दर्शन के लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि की आसक्ति छोड़ी और अब उसकी पूर्णावस्था में समाने के लिये सारी याद भी छोड़ने की तैयारी में हूँ। मगर वह सेवा के मैदान में ही छूटेगी, कुर्बान हो जायेगी।