Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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भगवान सूर्य ही जगत के आत्मा हैं!
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(प्रो. ‘अवधूत’ गूढ़ मंत्र विद्या विशारद, गोरे गाँव)
अपने चारों ओर जो विस्तृत विश्व हमको दृष्टि-गोचर हो रहा है उसका मुख्य आधार सूर्य भगवान ही हैं। इस जीवन-प्रदायक सूर्य की उपासना हम गायत्री-मंत्र द्वारा करते हैं और ध्यान भी कर सकते हैं। आत्मा ही सूर्य है, ऐसी भावना रखते हुये गायत्री का जप करने से ज्ञान प्राप्त होता है। इस मंत्र के अंतिम भाग में साधक भगवान से ‘धि’ अर्थात् बुद्धि (ज्ञान) माँगता है। गायत्री की उपासना विश्व के इस सर्वप्रथम प्रकाश की ही प्रार्थना है। रेडियो में कुछ सुनने की इच्छा होने से सबसे पहले उसमें “लाइट” की जाती है, जिससे वह उचित प्रमाण में गरम हो जाता है, फिर उसी तेज में से जो कुछ सुनना हो वही सुना जा सकता है। उसी प्रकार चित्त की अथवा मन की एकाग्रता हृदय की तरफ ठीक-ठीक ढंग से करने पर एक प्रकार के आत्मिक प्रकाश का अनुभव होने लगता है। उस प्रकाश की सहायता से जो कुछ प्राप्त करना हो वही मिल सकता है।
इस अंधकारमय प्रकृति तत्व में परमात्मा की प्रकाशमय सत्ता का प्रवेश होते ही, उसका अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध भाग, स्थूल और अशुद्ध भाग से पृथक हो जाता है। अशुद्ध और स्थूल भाग में से नीचे के प्रदेश रचे गये हैं और शुद्ध तथा सूक्ष्म अशुद्ध तथा स्थूल भाग में उसकी अशुद्धि तथा स्थूलता के कारण प्रकाश का प्रवेश उचित रीति से नहीं हो पाता, पर दूसरे शुद्ध तथा सूक्ष्म भाग में प्रकाश भली प्रकार अवेश कर सकता है। प्रकाश और अग्नि जिस गुण की सहायता से भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं, वह गुण उष्णता ही है। गायत्री को शास्त्रों में ‘अग्निमुखी’ कहा गया है। उष्णता दो प्रकार के परस्पर विरोधी गुण उत्पन्न करती है। एक तो वह सूक्ष्म जलमय द्रव्य को स्थूल पार्थिव द्रव्य से पृथक करके और भी अधिक सूक्ष्म बनाती है, और पार्थिव द्रव्य को वह और अधिक ठोस बनाती है। उस प्रकार उष्णता विजातीय द्रव्यों का पृथक्करण करके सजातीय का संयोग करती है।
इस प्रकार प्रकाश की न्यूनाधिकता के आधार पर उच्च प्रदेश, मध्य प्रदेश और निम्न प्रदेश इस प्रकार तीन विभाग किये जा सकते हैं। उच्च प्रदेश को केवल विद्यात्मक प्रदेश कहा जाता है। वह चैतन्यमय अजरामर और अविनाशी है और विश्व में वही सबसे शुद्ध प्रदेश है।
मध्य प्रदेश को हम स्वर्गीय प्रदेश का नाम दे सकते हैं। इसका विषय बड़ा गूढ़ और गुप्त है। यह सत्य है कि प्रकृति के नियम बहुत सीधे सादे, और सरल होते हैं और इसलिये उनको समझने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिये। पर इस मार्ग से कदाचित ही कोई प्रयाण करता है। और जो थोड़े से भाग्यशाली व्यक्ति इस रास्ते पर होकर जाते हैं, वे इस उद्देश्य से कि कोई अनाधिकारी प्रकृति के गुप्त रहस्यों को जान न सके, अपने पग-चिन्हों को काँटे और झाँखड़ डालकर बड़ी सावधानी से ढ़क देते हैं। इसी कारण बिना मार्गदर्शक गुरु की सहायता के स्वयमेव इस मार्ग पर प्रयाण करने वाले सैकड़ों बार रास्ते से भटक जाते हैं। यह मध्य प्रदेश ‘विद्यात्मक’ भाग से नीचे होता है और जब कि विद्यात्मक प्रदेश में केवल प्रकाश ही होता है, इस मध्य प्रदेश में पार्थिव भाग का भी कुछ अंश रहता है।
सृष्टि के आरम्भ में दो मूल तत्व होते हैं, एक अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाशमय तत्व और दूसरा स्थूल अंधकारमय तत्व। प्रकाश, उष्णता और गति प्रथम तत्व के गुण हैं। प्रथम तत्व प्रकाशक प्रेरक और अपनी क्रिया करने में असमर्थ है-स्त्री रूप या प्रकृति रूप है। हमारी भौतिक सृष्टि में उत्पत्ति का कार्य प्रथम तत्व द्वारा ही सम्पन्न होता है।
उष्णता द्वारा ही पदार्थ सूक्ष्म रूप में परिणित हो सकते हैं। सब तरह की उत्पत्ति, बुद्धि और संयोग इन दोनों तत्वों द्वारा ही होते हैं। सूक्ष्मता होने से उसमें प्रकाश का प्रवेश विशेष रूप से होता है और स्थूलता होने से प्रकाश में कमी आ जाती है। उदाहरण के लिये घी जब स्थूल या जमे हुये रूप में रहता है तो उसमें प्रकाश का प्रवेश नहीं हो सकता और अगर कोई अन्य पदार्थ उसमें पड़ गया हो तो उसका भी पता नहीं चलता। पर जब हम उसे उष्णता द्वारा गरम करके पतला कर देते हैं तो उसकी तली में पड़े तिनके तक को भी देख सकते हैं।
उष्णता और शीतलता के प्रभाव से ही सब प्रकार के पदार्थ तरह-तरह के रूप धारण करते हैं। द्रव्य की अत्यन्त सूक्ष्मता वायु-रूप होती है, उससे कम सूक्ष्मता जल रूप होती है और स्थूलता पृथ्वी रूप होती है। इस विवेचन से समझा जा सकता है कि योगी जन अणिमा, लघिमा, महिमा आदि क्रियाओं द्वार स्थूल और सूक्ष्म रूप में रूपांतर कर लेते हैं। पर जब तक साधक सूक्ष्म तत्त्वों को ग्रहण करने की भूमिका तैयार नहीं कर लेता तब तक उस को समझाना या अनुभव कराना संभव नहीं होता।
समस्त विश्व चैतन्यमय बन जाय इसके लिये प्रकाश उसके बाहरी और भीतरी भाग में प्रविष्ट होता है। विश्व में हम जो कुछ भी उत्पन्न होता देखते हैं उसका कारण प्रकाश ही है। सूर्य को इस प्रकाश प्रभाव स्थान रूप में परमेश्वर ने निश्चित किया है, पर ऐसा होते हुये भी यह नहीं कह सकते कि सूर्य के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी प्रकाश नहीं है।
“सूर्य आत्मा जगतस्त=स्थुषश्च” अर्थात् “भगवान सूर्य स्थावर जंगम विश्व का आत्मा उदित हुआ है”-यह उपासना का मंत्र संध्या समय हम बोलते हैं। सूर्य ही हमारे जगत का आत्मा है। पुरुष बिना स्त्री जिस प्रकार निष्फल रहती है, उसी प्रकार सूर्य बिना पृथ्वी भी बंध्या के समान है। सूर्य की सत्ता से पृथ्वी पर वनस्पतियाँ ही उत्पन्न नहीं होती, वरन् समस्त सचेतन प्राणी भी उसी के द्वारा उत्पन्न और वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
विश्व में मनुष्य ही परमेश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। परमेश्वर ने मनुष्य को आत्मा, मन और शरीर दिया है। सृष्टि के पदार्थ के अत्यन्त शुद्ध भाग का सार लेकर परमेश्वर ने मनुष्य का स्थूल शरीर बनाया है, प्रकृति के अत्यन्त शुद्ध भाग से उसका मन बनाया है, और अपने निज स्वरूप में से ही उसने मनुष्य की आत्मा बनाई है।
शरीर की बनावट में पार्थिव और जल के अणु विशेष रूप से लगाये गये हैं। इन में 95 प्रति सैकड़ा जल मय अणु ही हैं। आत्मा और शरीर का संबंध मन द्वारा स्थिर है। मन अत्यन्त सूक्ष्म है और इन दोनों के मध्य में रहता है। वह प्रकाश तत्व से निर्मित होने के कारण आत्मा की आज्ञा से शरीर को जीवनमय करता है। वह आत्मा के मंत्रीपद पर स्थित है, तो भी कभी-कभी वह आत्मा का विरोधी बन जाता है और स्वच्छन्द रीति से आचरण करने लगता है। वह आकाशतत्त्व रूप है और जिस द्रव्य का वह बना हुआ है वह पृथ्वी और जल की अपेक्षा अनन्त गुना सूक्ष्म है। आत्मा परमेश्वर का अंश होने से परमेश्वर रूप ही है। मन और शरीर का अस्तित्व आत्मा के आधार पर ही है, उसके बिना वह कुछ भी नहीं कर सकते। खनिज सृष्टि, वनस्पति सृष्टि तथा प्राणी-सृष्टि के शुद्ध तत्व द्वारा शरीर का पोषण होता है। जल तथा पृथ्वी तत्व का बना होने से जल तथा पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले पदार्थों से भी उसका पोषण होता है।
प्रकृति के सर्वोत्तम द्रव्य में से मन बनता है, इस लिये उसी तत्व द्वारा उसका पोषण होता है।
आत्मा परमात्मा का अंश होने से संयम द्वारा परमात्म-ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करता है।
मन, प्रकाश, धर्म वाला होने से और वायु में प्रकाश के व्याप्त रहने से श्वाँस की क्रिया द्वारा प्रकाश को अपने भीतर खींचता है और उसी से उसका पोषण होता है। यही कारण है कि शुद्ध हवा में दीर्घ श्वाँस लेने से मन की क्रिया अधिक सतेज होती है।
प्रकाश ही जीवन का हेतु है। प्रकाश का स्वभाव निरंतर बहते रहने का है। प्रकाश का स्थिर करने की कला ही मृत्यु को जीतने की कला है। महान योगीजन इस प्रकाश को स्थिर करके उसे दूसरों की आत्मा में प्रविष्ट करा सकते हैं। अनेक बार जब हम किसी महान पुरुष से मिलते हैं तो उसके आत्म-प्रकाश को अपनी आत्मा में प्रतिबिम्ब रूप में अनुभव कर सकते हैं। उस समय हमको ऐसा अनुभव होता है कि आज हमारी आत्मा में कोई नवीन प्रकाश पड़ा है।
प्रकाश एक प्रकार से परमेश्वर की प्रतिमा है, ऐसा कहना उचित ही है। किरण और प्रकाश में भेद है। किरण, प्रकाश का वाहन है। किरण अपारदर्शी पदार्थों में प्रवेश कर सकती है, इससे अनेक लोग सोचते हैं कि यह पदार्थ तेजस्वी है, पर वह वास्तविक प्रकाश नहीं है। जिन्होंने प्रकाश की विद्या को समझ लिया है और उसके लिये धन, घरबार, स्त्री-पुरुष का मोह त्यागने को भी तैयार हैं उन्हीं की देह में ज्ञान के प्रकाश का आयोजन सम्भव होता है। इस स्थिति को प्राप्त करने का मार्ग प्रार्थना करना और गुरु की कृपा प्राप्त करना ही है।