Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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दुर्गापूजा से पशुबलि का कोई सम्बन्ध नहीं।
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(श्री. शिवशंकर मिश्र, एम. ए.)
[हमारे देश में देवी की पूजा का प्रचार सर्वत्र पाया जाता है। यों कहने के लिये आजकल हिन्दू-धर्म में राम, कृष्ण और शिव की पूजा ही मुख्य रूप से प्रचलित है, पर यदि कुछ गहराई में जाकर पता लगाया जाय तो इन सबकी अपेक्षा देवी की उपासना अधिक प्रचलित और व्यापक है। कारण यह कि राम, कृष्ण आदि के मन्दिरों में उपासना करने का अधिकार विशेष रूप से उच्च वर्णों के हिन्दुओं को ही है। नीच जातियों में जिन लोगों की गणना की जाती है उन्हें या तो इन मन्दिरों में जाने का अधिकार ही नहीं है, अथवा वे स्वयं ही वहाँ बहुत कम जाते हैं। ऐसी सभी जातियाँ देवी की उपासना करती हैं। साथ ही उच्च वर्ण के लोग भी अन्य देवताओं के साथ देवी की पूजा भी करते हैं और प्रत्येक वंश की कोई न कोई पूज्य “कुलदेवी” अवश्य होती है। यही कारण है कि राम, कृष्ण और शिव के तीर्थों की अपेक्षा देवी के तीर्थ स्थान बहुत अधिक संख्या में हैं और उनमें जाने वाले उपासकों की सम्मिलित संख्या अन्य तीर्थों के उपासकों से कहीं अधिक होती है।
पर खेद की बात यह है कि अब लोग देवी की पूजा में जो ‘शक्ति-साधन’ का रहस्य निहित है उसे तो भूल गये हैं और केवल ऊपरी पूजा, पाठ में ही देवी की पूजा का सार समझ लेते हैं। इससे बढ़कर एक और बुराई इसमें यह पैदा हो गई है कि देवी की पूजा के अनेक स्थानों में पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है। वैसे तो माँस भक्षण ही हिन्दू धर्म के उच्च सिद्धान्तों की दृष्टि से एक निकृष्ट कर्म है जिससे मनुष्य का किसी न किसी अंश में आध्यात्मिक पतन होता है, पर देवी-देवता के नाम पर निर्बल पशुओं को मारकर खाना तो सब प्रकार से जघन्य और अत्यन्त हीनता का परिचायक है। गायत्री तपोभूमि ने इस निन्दनीय और जंगली प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई है और अनेक गायत्री शाखाओं ने अपने-अपने क्षेत्र में इसके विरुद्ध अभियान आरम्भ कर दिये हैं। इस लेख में एक विद्वान् लेखक ने दुर्गा पूजा के शास्त्रीय रूप को दिखलाते हुए बतलाया है कि इसका वास्तविक उद्देश्य मनुष्य में पाये जाने वाले आसुरी तत्वों-बुरी आदतों को दूर करके दैवी तत्वों को ग्रहण करना है। पशुबलि जैसी निकृष्ट प्रथा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं।]
दैत्यों का संहार करने के लिए देवी अम्बिका ने अनेक रूप धारण किये। देवताओं के समान ही अनेकानेक शक्तियाँ प्रकट होकर असुरों से युद्ध करने लगीं। दैवी शक्ति द्वारा आसुरी वृत्तियों का संहार भारतीय शक्ति-साधना, कल्याणी दुर्गा की उपासना, महिमामयी माँ की आराधना के रूप में हमारी संस्कृति में आदिकाल से प्रतिष्ठित है। अनेकानेक कथाएँ इस शक्ति-उपासना के उद्गम को आच्छादित किए हुए हैं। एक कथा के अनुसार उग्रदेव रुद्र की पत्नी रुद्राणी को आद्या शक्ति माना गया। पिता द्वारा किये जाने वाले यज्ञ में अपने पति रुद्र का अपमान न सह सकने के कारण क्रुद्ध रुद्राणी ने आत्मदाह कर लिया। इस समाचार को सुनते ही रुद्र प्रलयकारी रूप धारण कर शक्ति के शव को उठाकर त्रैलोक में घूमने लगे। रुद्र के क्रोध को शमन करने की शक्ति भला किसमें थी। अन्त में भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देकर आद्या शक्ति रुद्राणी के शव को छिन्न-भिन्न करवा डाला।
इससे अधिक प्रचलित कथा माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर-वध की है। शिव की तपस्या करके महिषासुर ने अजेय होने का वरदान प्राप्त किया और उसके बाद इन्द्र तथा अन्य देवताओं को युद्ध में पराजित कर स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर उतर आने के लिये बाध्य किया। त्रिदेव ने परिस्थिति की गंभीरता का अनुमान करके शक्ति-मूर्ति माँ दुर्गा को जन्म दिया। देवों ने इन्हें अपने अस्त्र, वाहन आदि अर्पित किये। महिषासुर से इनका युद्ध हुआ। अनेक छल-बल करने के बाद भी दुर्गा के हाथों उसका वध हुआ और तभी से दुर्गा महिषासुर-मर्दनी की उपाधि से विभूषित हुईं।
कल्याणी शक्ति
माँ दुर्गा ने साहित्य, कला, अध्यात्म और दर्शन सभी क्षेत्रों में समान रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त की है। देश के विभिन्न भागों में उनकी प्रतिमाएँ और प्रस्तर मूर्तियाँ प्राप्त होती है। इनमें से प्रायः सभी में उन्हें शक्ति के मूर्त रूप में दिखलाया गया है और उनके द्वारा दुष्टों के विनाश की और संकेत किया गया है। आग्नेय एशिया और पल्लव पैनल नामक काव्यों में उनके देवोपम रूप, प्रभाव और वैभव को अंकित किया गया है।
शक्ति पूजा की परम्परा का आदि, प्रमाणिक रूप से ज्ञान न होने के कारण इसे अनादि कहा गया है। इतिहासविद् इसे अनार्यों की देन मानते हैं। आर्यों को इसे परिमार्जित और प्रसारित करने का श्रेय प्रदान करते हैं। भारत के बाहर जावा, कम्बोडिया, हिन्दचीन और हिन्देशिया आदि में भी इस शक्ति उपासना ने प्रसार पाया। आज भी देश के कोने-कोने में भिन्न-भिन्न प्रकार से दुर्गा पूजा प्रचलित है। नवरात्रि में प्रायः सर्वत्र दुर्गा या उनके ही अन्य रूप की पूजा धूम-धाम के साथ की जाती है।
पितृ पक्ष की समाप्ति के साथ यह मान लिया जाता है कि पूर्वजों के प्रति दायित्व पूर्ण हो गये हैं। उसके बाद मानो वर्तमान के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण आता है। अपने इस नवीन अभियान के पूर्व आत्मशुद्धि हेतु उपवास और आत्म-शक्ति प्रदीप्त करने के लिये दुर्गा सप्तशती का पाठ आवश्यक माना जाता है। दुर्गा के प्रति अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा व्यक्त करने के भाव से भक्तगण पचास-पचास मील से पुष्पमाला लाकर माँ के चरणों पर चढ़ाते हैं। नेपाल में सप्तमी के दिन फूल-पत्ती द्वारा समारोह का प्रारम्भ, अष्टमी के दिन महामाया दुर्गा की वृहद् उपासना के रूप में उसका मध्य तथा विजयदशमी के उल्लास पर्व में दुर्गा पूजा का उपसंहार होता है। नेपाल में अभी भी इस उत्सव में सैनिक धूमधाम की प्रधानता रहती है। अस्त्र-शस्त्रों की पूजा होती है और विजय यात्रा का उपक्रम होता है। नवयुवक इस अवसर पर विशेष उत्साह प्रदर्शित करते हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पर्व आकर उन्हें उत्तष्टित् जाग्रत का संदेश दे रहा हो।
अनेक स्थानों पर कुछ समय पूर्व तक महिष-बलि दी जाती थी, पशु-हत्या होती थी। शाक्त लोगों के आयोजनों में भावनाओं को उद्दीप्त करने के लिए माँस-भक्षण तथा मदिरा-पान को भी प्रश्रय मिला। किन्तु दुर्गा पूजा का विशुद्ध रूप इससे सर्वथा मुक्त है। वहाँ तो इस सबके लिए कोई स्थान ही नहीं है। कतिपय जनपदों में प्राप्त भावना इस अवसर पर बकरे के स्थान पर काम, भैंसे के स्थान पर क्रोध और भेड़ के स्थान पर लोभ की बलि देने के पक्ष में है। ये ही तो वे आसुरी वृत्तियाँ हैं जिनके विरुद्ध दैवत्व चिरकाल से संघर्ष करता रहा है। आज संभवतः माँ दुर्गा अपने कोटि-कोटि भावों से इसी बलि की अपेक्षा करती है।
राम ने शक्ति की कृपा से ही रावण के समान विश्व विजयी का संहार किया। जावा में प्रचलित एक लोककथा के अनुसार शक्ति मूर्ति ने राम को विजय-श्री विभूषित करने के पूर्व उनकी परीक्षा ली कि राम रावण का वध लंका प्राप्ति के लिए कर रहे हैं कि मंगला सीता की मुक्ति के लिए। राम के परीक्षा में सफल हो जाने पर उन्होंने रावण के वध का रहस्य बताया और राम को जय से विभूषित किया। जन मंगल की भावना शक्ति की सच्ची सहेली है।
‘उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्त बरान्नि बोधत’ वाली उक्त सही रूप में तभी चरितार्थ होती है जब हम पूर्ण रूप से ‘स्व’ का विसर्जन करके लोकहित में अपनी भावनाओं का समर्पण कर दें। रावण पर राम की विजय का यही मूल रहस्य है।
स्वराज्य, सामूहिकता और सहकारिता ही आज की शक्ति है और आज उसी की उपासना का इष्ट है। अतः आज हम इन शब्दों में दुर्गा की उपासना करें-
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं
बैरोचनीं कर्म फलेषु जुष्टाम्।
दुर्गा दवीं शरण महं प्रपद्ये
सुठरसि तरसे नमः ॥
साथ ही हम ऋग्वेद के इस मंत्र का भी संकल्प रूप में पाठ करें-
यते महि स्वराज्ये, वयं राष्ट्रे जागयाम्,
यश श्रीः श्रयताँ मथि।
अर्थात् हम सब भारतवासी स्वराज्य के संरक्षण के लिये सतत प्रयत्नशील और जाग्रत रहें और इस प्रकार यश और लक्ष्मी को प्राप्त करें।