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Magazine - Year 1959 - Version 2

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गुरु के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति

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(श्री पं. उमाकान्त शास्त्री)

कि सी भी साधन की सफलता के लिये शिक्षक अथवा गुरु की परम आवश्यकता है। यों तो कितने ही व्यक्ति स्वयं ही इधर-उधर से पूछताछ कर अथवा ग्रन्थों का अवलोकन करके किसी विद्या अथवा कल का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, पर एक तो उनको परिश्रम अधिक करना पड़ता है और फिर भी उनके ज्ञान में अनेकों ऐसी त्रुटियाँ रह जाती हैं जिनके कारण कई अवसरों पर उनको नीचा देखना पड़ता है। आजकल की साधारण स्कूली या कालेज की शिक्षा में भी यह देखा जाता है कि जो छात्र निजी तौर पर पढ़ाई करके परीक्षा पास करते हैं, वे अनेक बातों में स्कूल में नियमित रूप से पढ़ने वाले छात्रों की अपेक्षा कच्चे रह जाते हैं। जब स्थूल विषयों की विषय में ऐसी बात है तो आध्यात्म जैसे सूक्ष्म विषय के सम्बन्ध में तो अधिक कहना अनावश्यक ही है। क्योंकि अध्यात्म की सभी बातें केवल अनुभव से सम्बन्ध रखती हैं, उनका प्रकट रूप कदाचित ही कभी देखने में आता है। इसलिये उनके विषय में हमारा मार्ग दर्शन वही व्यक्ति कर सकता है जो स्वयं उस मार्ग पर चलकर अनुभव प्राप्त कर चुका हो।

यही कारण है कि भारतवर्ष में गुरु की महिमा अपरम्पार बतलाई गई है। अनेक भक्तों ने तो गुरु का दर्जा भगवान से भी बड़ा बतलाया है, क्योंकि उनके मत से गुरु की कृपा से ही भगवत्प्राप्ति संभव होती है, इसलिये गुरु का अहसान सब से अधिक माना जाता है। इसलिये यह भी कहा गया है कि यदि गुरु में कोई दोष भी दिखलाई पड़े तो भी उसके प्रति श्रद्धा भक्ति में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं आनी चाहिये। रामकृष्ण परमहंस जैसे साधक ने कहा था कि “यदि हमारा गुरु वेश्या गृह जाय, तो भी हमारा गुरु भगवत् राय।” यह सत्य है कि वर्तमान समय में गुरु और शिष्य की प्राचीन परम्परा में जमीन आसमान का अन्तर पड़ गया है और अब दोनों में से किसी कौडडडडडड स्वार्थ को छोड़कर अपने कर्त्तव्य का ध्यान नहीं है। ऐसे ही गुरु और शिष्यों के लिये गो. तुलसीदास जी लिख गये हैं—

गुरु शिष बधिर अंध के लेखा।

एक न सुनहिं एक नहिं देखा॥

हरहिं शिष्य धन शोक न हरहीं।

ते गुरु घोर नरक में परहीं॥

तो भी इस गुरु मात्र की निन्दा नहीं की जा सकती। वर्तमान समय में भी श्री रामकृष्ण परमहंस के समान गुरु हो गये हैं जिन्होंने अपनी शक्ति और तपस्या का फल प्रदान करके स्वामी विवेकानन्द की काया पलट कर दी और उनको जगत पूज्य बना दिया। आरम्भ में जब स्वामी जी नरेन्द्र के नाम से कालेज की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और पश्चिमी विज्ञान और दर्शन के सामने भारतीय अध्यात्मवाद को महत्त्वहीन समझते थे तब परमहंस जी ने ही आग्रह पूर्वक उनको अपने पास बुलाया और कन्धे पर पैर रखकर आध्यात्मिक विद्युत का ऐसा झटका दिया जिससे उनके विचारों का अद्भुत परिवर्तन हो गया और वे पश्चिमी शिक्षा की मृग मरीचिका को त्याग कर भारतीय संस्कृति और ज्ञान के अनुगामी बन गये। फिर जब परमहंस जी का अन्त काल आया तो दो दिन पूर्व उन्होंने स्वामी जी को एकान्त में अपने पास बिठाकर अपनी समस्त शक्ति उनमें भर दी। जिस समय परमहंस जी ने अपने हाथ उन पर रखे तो वे स्तब्ध दशा को प्राप्त हो गये और आध घंटा तक यही अनुभव करते रहे कि जैसे किसी बिजली डाइनेमो से निकल कर विद्युत शक्ति बैटरी में समाती जाती है। अन्त में जब उनको चैतन्य दशा प्राप्त हुई तो उन्होंने परमहंस जी को रोते हुए पाया। परमहंस जी ने कहा आज मैंने अपनी जन्म भर की कमाई (शक्ति) तुमको दे डाली, अब मेरे पास कुछ नहीं रहा। आगे चलकर तुम्हारा यह कर्त्तव्य होगा कि इस शक्ति का लोक-सेवा में उपयोग करो।

यही भारतीय गुरुओं का “शक्तिपात” का सिद्धान्त है। इसका आशय यह है कि केवल अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश करने से अथवा मन्त्र दे देने से शिष्य की विशेष उन्नति नहीं हो सकती। इसके साथ ही जब गुरु शिष्य को अपनी शक्ति परिचालित करते हैं तब उनके भीतर आत्म-शक्ति जागृत होती है और वे विशेष कार्य करके दिखला सकते हैं। इस सम्बन्ध में श्री वासुदेवानन्द ने लिखा है—

शक्ति पातेन संयुक्ता विद्या वेदान्त वाक्यजा।

यदा यस्य तदा तस्य विमुक्तिर्नात्र संशयः॥

“वेदान्त वाक्य से प्राप्त विद्या जब शक्तिपात के साथ जिसमें संयुक्त होती है, तब उसी क्षण वह मुक्त हो जाता है।

शक्तिपात विहीनोऽपि सत्यवाग् गुरुभक्तिमान। आचार्याच्छ्रु, त वेदान्तः क्रमानुच्यते बन्धतात्॥

“गुरुभक्ति युत शिष्य शक्तिपात रहित होकर भी वेदान्त वाक्य के श्रवण, मनन, निदिध्यासन से प्रतिबन्ध क्षय होने पर क्रमशः बन्धन से मुक्त हो जाता है।”

“सूत्र संहिता” में माया के बन्धन से छूटने का साधन इस प्रकार बतलाया है—

तत्त्वज्ञानेन मायाया बाधो नान्येन कर्मणा। ज्ञानं वेदान्त वाक्योत्थं ब्रह्मात्मैकत्त्व गोचरम्॥ तच्च देव प्रसादेन गुरोः साक्षान्निरीक्षणात्। जायते शक्ति पातेन वाक्यादेवाधिकारिणाम्॥

“तत्त्वज्ञान से माया का निरोध होता है, अन्य किसी कर्म से नहीं होता। यह तत्त्वज्ञान अधिकारी शिष्य को देवप्रसाद के द्वारा शक्तिपात पूर्वक ब्रह्म से ही प्राप्त होता है।”

श्रीमत् शंकराचार्य इस युग के सब से बड़े योगी और ज्ञानी हुये हैं, जिन्होंने थोड़े ही वर्षों में वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना करके धर्म प्रचार का ऐसा संगठन किया जो डेढ़ हजार वर्ष के लगभग हो जाने पर भी आज तक प्रभावशाली बना हुआ है और जिसके द्वारा अब भी आध्यात्मिकता और आत्मज्ञान का प्रचार देश भर में हो रहा है। उन्होंने शक्तिपात पूर्वक ज्ञानदान करने वाले सद्गुरु का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है—

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवन जठरे

सद्गुरोर्ज्ञान दातुः।

स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्यः स नयति

यदहो स्वर्णतामश्य सारम्॥

न स्पर्श त्वं तथापि श्रितचरणयुगे

सद्गुरुः स्वीय शिष्ये।

स्वीयं सभ्यं विधत्ते भवति

निरुपमस्तेन वा लौकिकोऽपि॥

“इस त्रिभुवन में ज्ञानदाता सद्गुरु के लिये देने योग्य कोई दृष्टान्त ही नहीं दीखता। उन्हें पारसमणि की उपमा दें तो यह भी ठीक नहीं जँचती। कारण, पारस लोहे को सोना बना देता है, पर पारस नहीं बनाता। पर सद्गुरु के चरण युगल का आश्रय लेने वाले शिष्य को सद्गुरु निज साम्य ही दे डालते हैं अर्थात् अपने समान ही बना देते हैं। इसलिये सद्गुरु की कोई उपमा नहीं दी जा सकती।”

ज्ञानेश्वर महाराज महाराष्ट्र के बहुत बड़े संत हुए हैं। जिनकी रचित गीता की ‘ज्ञानेश्वरी टीका’ सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी अद्वितीय मानी जाती है। उसका जन्म एक समाज-च्युत में पिता के गृह में हुआ था, पर उन्होंने किसी ऐसे ही सद्गुरु की कृपा से बाल्यावस्था में ही अद्भुत शक्ति प्राप्त कर ली थी। उन्होंने गुरुद्वारा शक्तिपात का वर्णन करते हुए लिखा है- “यह दृष्टि जिस पर चमकती है अथवा यह करार विन्द जिसे स्पर्श करता है, वह होने को तो चाहे जीव ही हो, पर बराबरी करता है महेश्वर शंकर की। भक्तराज अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने इसी प्रकार शक्तिपात करके आत्मानुभव कराया था। भगवान ने अपना सुवर्ण कंकण विभूषित दक्षिण बाहु फैल कर शरणागत अर्जुन को हृदय से लगा लिया। हृदय-हृदय एक हो गये। जो इस हृदय में था उसे उस हृदय में दिया। द्वैत का नाता बिना तोड़े अर्जुन को अपने जैसा बना लिया। ऐसे सद्गुरु सच्चे शिष्य को स्वयं ही मिल जाते हैं उनको ढूँढ़ना-खोजना नहीं पड़ता। जब कर्मसाम्य ही अवस्था आती है तब सद्गुरु स्वयं ही आकर मिलते हैं। “

इससे विदित होता है कि ‘शक्तिपात’ निस्संदेह बड़ी महत्वपूर्ण क्रिया है और अनेक संत महात्माओं को ऊँचे दर्जे की आध्यात्मिक स्थिति इसी उपाय से प्राप्त होती है। हम अनेक बार देखते हैं कि अनेक साधारण व्यक्ति छोटी अवस्था में ही बिना किसी विशेष प्रयत्न के आत्म-शक्ति से भर जाते हैं और अद्भुत कार्य करके दिखलाने लगते हैं, यह सब प्रभाव किसी ऐसी ही विशेष शक्ति का होता है। श्री. रामकृष्ण परमहंस गाँव के रहने वाले साधारण अपढ़ बालक थे। पर 15-16 वर्ष की अवस्था में ही वे परम भक्त बन गये और थोड़े ही समय में समस्त बंगाल प्राँत में उनकी ख्याति फैल गई। इसी प्रकार आजकल माता आनन्दमयी साधारण गृह स्त्री थी, जिनके पति छोटी सी क्लर्क की नौकरी करते थे, पर उनके अकस्मात् आत्म-शक्ति के महान् लक्षण दिखलाई पड़ने लगे और आज वे आध्यात्मिक जगत की एक विशेष विभूति मानी जाती है। शास्त्रों में यह भी विदित होता है कि जब किसी अधिकारी व्यक्ति में ऐसा शक्तिपात का प्रयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हो जाता है, तो फिर उसे साधारण व्यक्तियों की तरह छोटे-छोटे साधन क्रम से नहीं करने पड़ते, वरन् सभी तरह की सरल और कठिन क्रियाएं उससे स्वयं ही होने लगती हैं। उदाहरण के लिए याग-साधना के इच्छुक सभी व्यक्तियों को यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि को साधन करके आगे की मंजिलों की तरफ अग्रसर होना पड़ता है। परन्तु जिस व्यक्ति में कोई महात्मा शक्तिपात कर देते हैं वे इन सब क्रियाओं को बिना किसी के सिखाये स्वयमेव ठीक-ठीक ढंग से करने लगते हैं और दस-पाँच दिन में ही दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार जो लोग वर्षों तक जप करके किसी मंत्र को सिद्ध नहीं कर सकते थे, वे शक्तिपात के बाद अनायास उसमें सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए आध्यात्मिक उन्नति के लिए सद्गुरु द्वारा शक्तिपात का बड़ा महत्व है। पर ऐसा सुयोग्य अधिकारी शिष्य को ही मिलता है। जो पात्र नहीं है उसे इस प्रकार कर शक्तिपात विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाला ही सिद्ध होता है।

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