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Magazine - Year 1959 - Version 2

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उज्ज्वल भविष्य का शुभ चिन्ह

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First 21 23 Last
अखण्ड ज्योति के गत अंकों में व्रतधारी आन्दोलन की संक्षिप्त रूप रेखा पाठकों को समझाने का प्रयत्न किया गया है। प्रसन्नता की बात है कि युग निर्माण की इस योजना का सर्वत्र हार्दिक स्वागत किया गया है। अखण्ड-ज्योति परिवार प्रगतिशील धर्मसेवी सत्पुरुषों का संगठन है। इस पत्रिका को पढ़कर वे पढ़ने का शौक मात्र पूरा नहीं करते पर स्वाध्याय द्वारा आत्म-निर्माण करके और जीवन को सफल बनाने वाला रास्ता ढूंढ़ने का प्रयत्न करते हैं। इस परिवार के प्रत्येक सदस्य के अन्तःकरण में यह तथ्य भली प्रकार भर चुका है कि भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने,स्वर्गीय शान्ति का रसास्वादन करने, जीवन मुक्ति का आनन्द लेने, आत्मा को परमात्मा में लीन करने जैसे आध्यात्मिक लक्ष को प्राप्त करने के लिए केवल जप, ध्यान, पूजा, उपवास, हवन आदि ही पर्याप्त नहीं हैं वरन् यह भी आवश्यक है कि अपना जीवन सद्विचारों एवं सत्कार्यों से परिपूर्ण बनाया जाय और उसमें लोक-सेवा का समुचित स्थान रहे।

जिसके जीवन का दृष्टिकोण व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति ही है वह निश्चय ही बहुत घटिया एवं तुच्छ व्यक्ति है। संसार में असंख्यों व्यक्ति ऐसे भरे पड़े हैं जिनका मस्तिष्क खुदगर्जी के विचारों से ही भरा रहता है। वे खुदगर्जी के अतिरिक्त दूसरी बात सोच ही नहीं सकते है। उनके कार्यों में स्वार्थ ही स्वार्थ भरा रहता है। उन्हें परमार्थ की-लोकहित की-जन-सेवा की कोई उपयोगिता एवं आवश्यकता समझ में नहीं आती। इसे वे व्यर्थ की बात मानते हैं। जिस कार्य से स्वार्थ सिद्ध न हो वह कार्य उनकी दृष्टि में मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है। ऐसे स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए बुरे से बुरे कार्य करने में संकोच नहीं करते। ऐसे लोगों की कमी अध्यात्म क्षेत्र में भी नहीं है। अपने आपको धर्मात्मा समझने और कहलाने वाले भी अनेकों व्यक्ति ऐसी ही खुदगर्जी में डुचे देखे जाते हैं। मुझे स्वर्ग, मुक्ति , ऋद्धि-सिद्धि, देव कृपा एवं वरदान प्राप्त हों और उन्हें उपलब्ध करके मैं स्वयं इस लोक या परलोक में खूब मौज मजा करूं इतना ही उनका दृष्टिकोण होता है। जिस प्रकार धन कमाने की तृष्णा में व्यक्ति दिन रात उपार्जन के गोरखधन्धे में लगा रहता है, उसी प्रकार यह आध्यात्मिक या धर्मात्मा कहलाने वाले व्यक्ति भी कुछ जप तप करते हैं तो उसके मूल में उनकी व्यक्तिगत स्वार्थपरता की दृष्टि में एक समान है। अन्तर केवल कार्यक्रम और योजना भर का है लक्ष दोनों के एक है। एक बम्बई के ताजमहल होटल में, कश्मीर में फ्राँस में जाकर मौज मजा करना चाहता है दूसरा स्वर्ग और बहिश्त में रंग रेलियाँ करने के सपने देखता है। आज अध्यात्म क्षेत्र में भी अधिकाँश जप-तप करने वाले स्वार्थी कामनाओं और वासनाओं के लिए ही लालायित रहते हैं। जप-तप को तो उन वासनाओं की पूर्ति का एक उपाय मात्र मान कर चलते हैं। यदि उस कामना की पूर्ति में बाधा या विलम्ब दिखता है तो साधना को छोड़ ही नहीं देते वरन् उसे व्यर्थ बताकर कुपित भी होते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के धर्म-प्रेमी परिजन इस घटिया श्रेणी के नहीं हैं, इतने वर्षों तक उच्चकोटि के तत्वज्ञान की पत्रिका के पृष्ठों का अध्ययन किया है, फलस्वरूप उनकी यह मान्यता सुदृढ़ हो चुकी है कि परमात्मा का सच्चा अनुग्रह प्राप्त करने के दो प्रधान माध्यता का साधना और सेवा का समन्वय होना आवश्यक है। साधना से सेवा का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। इन दोनों में से एक को छोड़ दिया जाय तो लक्ष की ओर प्रगति नहीं हो सकती। बिजली की धारा बहाने के लिए दो तारों की आवश्यकता होती है, यदि टूट जाय तो वह विद्युत प्रवाह रुक जायगा। ईश्वरीय कृपा की विद्युत धारा अन्तःकरण में अवतीर्ण करने के लिए साधना और सेवा के दोनों ही तार आवश्यक हैं। एक के अभाव में प्रगति रुक जायगी। केवल साधना करने वाले व्यक्ति अपनी स्वार्थपरता के कारण ईश्वर की दृष्टि में ओछे और खुदगर्ज जाँचेंगे। ऐसे लोग चाहे कितनी ही मिन्नतें करें, कितना ही गिड़गिड़ायें, स्तोत्र प्रार्थना करें उस अन्तर्यामी की दृष्टि में भिक्षुक और स्वार्थी ही जाँचेंगे, उन्हें कभी भी प्रभु का सच्चा प्यार प्राप्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो केवल सेवा कार्यक्रमों में लगे हैं, उनकी आत्मा में यदि ईश्वरीय श्रद्धा नहीं है तो उनके सेवा में साँसारिकता ही प्रधान रहेगी। आजकल जिस प्रकार अनेकों राजनैतिक पार्टियों एवं सामाजिक संस्थाओं के कार्य कर्त्ताओं तथा नेताओं में जो स्वार्थ संघर्ष देखा जाता है, उससे स्पष्ट है कि उनकी सेवा केवल बाह्य स्तर पर अवलंबित है, यदि उन्होंने आध्यात्मिक एवं धार्मिक स्तर पर यह सेवा लक्ष अपनाया होता तो यह खेदजनक बातें उनके चरित्र में दृष्टिगोचर न होतीं, जिनके कारण उनका सारा सेवा कार्य एक प्रकार से व्यर्थ ही सिद्ध हो रहा है।

अखण्ड-ज्योति परिवार का लक्ष एवं दृष्टिकोण बहुत ही स्पष्ट एवं स्वच्छ है। उसका प्रत्येक सदस्य यह अनुभव करता है कि सेवा को जीवन में समुचित स्थान दिये बिना आध्यात्मिक लक्ष कदापि पूर्ण नहीं हो सकता। जप-तप की अनिवार्य आवश्यकता को वह भली प्रकार अनुभव करता है पर साथ ही यह भी जानता है कि यदि जनसेवा की उपेक्षा की गई तो ईश्वर को प्रसन्न कर सकना और अपने अन्तःकरण को देव भूमिका में विकसित कर सकना कदापि संभव नहीं। अध्यात्म का तात्पर्य ही “सब प्राणियों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा को सब प्राणियों में देखना” है। जहाँ यह दृष्टि होगी, वहाँ सेवा करने की वृत्ति अनिवार्य रूप से विकसित होगी। दान और दया इन दो गुणों को अध्यात्म का प्रधान चिन्ह माना गया है। दया के कारण दूसरों के कष्टों को देखकर जो वेदना उत्पन्न होती है उसका प्राकट्य दान के रूप में होता है। भौतिक वस्तुओं के अभाव में दुःख पाने वाले लोगों को अन्न, जल, वस्त्र औषधि तथा शारीरिक सेवा करके उनकी सहायता की जाती है यह दान का स्थूल रूप है। सद्ज्ञान और सदाचार के अभाव में ही संसार के अधिकाँश दुःख हैं। इन अज्ञान और पाप की पीड़ा से कराहते हुए दीन दुखियों का कष्ट दूर करने के लिए अन्न, जल, औषधि से काम नहीं चल सकता। इनका दुःख मिटाने के लिए उस सद्ज्ञान की आवश्यकता है जिससे जीवन क्रम में सतोगुण की वृद्धि हो और स्थायी सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो। अध्यात्मवादी व्यक्ति अपनी साधना करते हैं साथ ही सद्ज्ञान का सदावर्त भी बाँटते हैं। दया उनकी अन्तरात्मा में से छलकती है फलस्वरूप वे दान करने के लिए विवश हो जाते हैं। दानों में ज्ञान दान सब से श्रेष्ठ माना गया है। इस महादान का संयोजन-ब्राह्मण-इसी दृष्टि से लोक पूज्य माना जाता है। ब्राह्मणत्व का अनिवार्य कर्तव्य ज्ञान दान है। दान की महत्ता से हिन्दू धर्म-ग्रन्थों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है । पर खेद की बात है कि हमारे अन्य अनेक आदर्शों के रूढ़िमात्र बढ़ जाने के कारण जिस प्रकार दुर्गति हो रही है उसी प्रकार दान तत्व का भारी दुरुपयोग हुआ। जब मानस से निकली हुई धर्म श्रद्धा की निर्झरिणी कुपात्रों-चंद स्वार्थी व्यसनी और पाखण्डियों के ऐश आराम का निमित्त मात्र बन कर रह जाती है तो अध्यात्म की आत्मा रो पड़ती है। जिस पुनीत जलधारा से सिंचित होकर धर्म उद्यान को लहलहाते हुए नन्दन वन की तुलना में विकसित होना चाहिए था वह धारा गंदे दलदलों में कीचड़ बढ़ाने और उत्पन्न करने का निमित्त बनती है तो किसी भी सहृदय का दुःखी होना स्वाभाविक है। आज दान तत्व की ऐसी ही दुर्गति हो रही है। लोग दान-पुण्य खूब करते हैं पर पात्र कुपात्र का—कार्य अकार्य का विचार किये बिना उसका उद्देश्य ही विकृत हो जाता है।

अखण्ड-ज्योति परिवार विचारशील, विवेकवान एवं दूरदर्शी लोगों का संगठन है। उसमें श्रद्धा कूट-कूट कर भरी गई है। साथ ही विवेक का पुट भी समुचित मात्रा में मौजूद है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि जब कभी कोई सुव्यवस्थित आध्यात्मिक आयोजन सम्मिलित रूप में किया जाय तो उसका सब स्वजन समुचित स्वागत करें। परिजनों की विचारधारा एक निर्धारित लक्ष की ओर नियमित गतिविधि से प्रवाहित होती है। इसलिए हम सब का कदम-कदम मिल कर चलना सहज ही हो जाता है। इस लम्बी अवधि में इस परिवार के सदस्यों ने अपने व्यक्ति गत जीवनों में भारी परिवर्तन किया है। जिनके फोटो एवं भाषण छपते हैं ऐसे नेता भले ही हम में से न बनें हो पर उज्ज्वल चरित्र आदर्शवाद, सेवा भावना एवं सच्ची ईश्वर परायणता की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि के हजारों महापुरुषों का निर्माण हुआ है। यदि कभी इस संस्था के आदर्शवादी एवं धर्मपरायणता लोगों का इतिहास लिखने का अवसर आया—जैसी कि निकट भविष्य में सम्भावना भी है—तो सारा संसार देखेगा कि आदर्शवादी परम्परा को कायम करने में इस संस्था के परिजन कितने अग्रगामी रहे हैं।

प्रशंसा और विज्ञापन से बचकर ठोस धर्मसेवा करने में आस्था रखने वाले अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य विगत बीस वर्षों में जो कार्य कर चुके हैं उसके लिए भारत माना गर्व अनुभव कर सकती हैं। हमारे यह अग्रगामी कदम मंद होने वाले नहीं हैं। अब तक अथक गति से हम सब आगे बढ़ते रहे हैं। यह प्रगति मन्द नहीं होगी। आगे और भी दूने उत्साह से हम आगे बढ़ेंगे। इस भारत भूमि को प्राचीन काल जैसी ऋषि भूमि बना देने का—इस देश में देव पुरुषों का बाहुल्य कर देने का—नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान का जो लक्ष्य निर्धारित किया है, वह अधूरा नहीं रहने दिया जायगा। वह पूरा होने जा रहा है, पूरा होकर रहेगा। श्रेष्ठ पुरुषों की यह विशेषता प्रसिद्ध है कि वे या तो कोई कदम उठाते नहीं, यदि उठाते हैं तो मंजिल पर पहुँच कर रहते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार ने जिस युग निर्माण के लिए संकल्प किया है वह उसे अधूरा नहीं छोड़ सकता।

व्रतधारी आन्दोलन की रूप-रेखा सामने आने पर अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्यों ने बड़ा हर्ष और उत्साह प्रकट किया है क्योंकि इस योजना से अपने अभीप्सित कई लक्ष एक साथ पूरे होते है। आत्म-कल्याण, आध्यात्मिक उन्नति, जीवन मुक्ति का लक्ष इससे पूरा होता है क्योंकि सर्वश्रेष्ठ उपासना ‘गायत्री’ का आश्रय लेने से आत्मा पर चढ़े हुए कलुष कल्मष छूटते हैं, पवित्र आत्मा ईश्वरीय प्रकाश का आविर्भाव तुरन्त होता है और परमात्मा की समीपता का मार्ग अति सरल हो जाता है। व्रतधारी आन्दोलन में भाग लेने वाले प्रत्येक परिजन के लिए गायत्री उपासना अनिवार्य है। इस संकल्प में सम्मिलित होने से उपासना की ढील-ढाल दूर हो जाती है। नियमित उपासना का कर्तव्य कंधे पर आ जाने से उसी प्रकार तत्परता होती है जैसे परीक्षा का लक्ष रखने वाले विद्यार्थी को पढ़ने का रंग चढ़ा रहता है। व्रतधारी का संकल्प एक प्रकार से परिक्षा फार्म भर देने के समान है जिसकी प्रेरणा से उसे उपासना करना आवश्यक हो जाता है। आत्मबल बढ़ने, अनन्त सुख-शान्ति का द्वार खोलने एवं जीवन का लक्ष्यवेध करने के लिए व्रतधारी का प्रथम संकल्प बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। साधना में प्रेरणा देने का यह अत्यन्त ही सरल एवं प्रभावशाली मार्ग है।

अज्ञान और पाप से पीड़ित मानव प्राणियों के प्रति सच्ची दया भावना चरितार्थ करके उन्हें सद्ज्ञान दान करने की जो प्रक्रिया व्रतधारी आन्दोलन के साथ जुड़ी हुई है। किसी को सन्मार्ग की ओर प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई उपकार नहीं हो सकता। समय का दान सबसे बड़ा दान है। धन दान तो उपेक्षा पूर्वक भी किया जा सकता है, जिसके पास बहुत धन है वह किसी काम में अधिक पैसा भी दे सकता है। पर समय सबके पास समान है—वह उतना ही दिया जा सकता है जितनी सच्ची श्रद्धा मन में हो। श्रद्धा के अभाव से समय दान नहीं बन पड़ता। सद्ज्ञान प्रसार और धर्म फेरी के लिए समय दान की जो शर्त व्रतधारी के लिए रखी गई है उसके पीछे सच्ची सेवा का-सच्चे दान का तत्वज्ञान छिपा हुआ है। इसी धर्म-सेवा से कोई साधक ईश्वर को प्रसन्न कर सकता है और अक्षय पुण्य का भागी बन सकता है। धन का दान तुच्छ है क्योंकि वह तुच्छ संयोग से भी कमाया जा सकता है और भार भूत अनावश्यक धन को कोई किसी पर प्रचुर मात्रा में उड़ेल भी सकता है, वह अनीति उपार्जित भी हो सकता है पर समय के बारे में यह एक भी बात लागू नहीं होती। समय तो कोई व्यक्ति तभी दान करेगा जब उसमें पूरी निष्ठा होगी। निष्ठा पूर्वक सद्ज्ञान प्रसार के लिए समय दान करना यह त्रिविध संयोग पुण्य की महान् त्रिवेणी है। जिसमें स्नान करने वाला साधक पीढ़ियों समेत तर ताना है।

आत्म-कल्याण के दोनों ही साधन उपासना और सेवा का व्रतधारी आँदोलन में पूरा समन्वय एवं सम्मिश्रण है। युग निर्माण की जो महान् सम्भावना इस आन्दोलन में सन्निहित है उसे समय की सबसे बड़ी पुकार कहा जा सकता है। नैतिक बुराइयों दुष्प्रवृत्तियों और कुरीतियों से आज का वातावरण ऐसा गंदा और विषाक्त हो रहा है कि उसमें साँस लेते हुए दम घुटता है। यदि इस वातावरण को बदला न गया तो हमारा भविष्य सब प्रकार अन्धकारमय ही बनेगा। जागृत धर्मात्माओं पर इसकी जिम्मेदारी है कि जन-समाज को कुमार्ग पर जाने से रोके और सन्मार्ग की प्रेरणा दें। श्रेष्ठ पुरुषों के सत्प्रयत्नों से आगे भी युग बदले हैं, अब भी बदल सकते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार का शक्ति शाली संगठन यदि तन्मयता और तत्परता पूर्वक युग निर्माण संकल्प को पूरा करने खड़ा होता है तो आज जो अनैतिकता की काली घटाएँ चारों ओर गरजती दिखाई पड़ती हैं वे फट सकती हैं, हट सकती हैं। भारतीय संस्कृति की प्रखरता का पुण्य प्रभाव हम पुनः ला सकते हैं, वह लाने के लिए ही व्रतधारी आन्दोलन है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों ने इस आँदोलन की महत्ता को समझा और स्वीकार किया है यह हमारे शुभ भविष्य का चिन्ह है। परिजन इस योजना को सफल बनाने के लिए जिस उत्साह और निष्ठा के साथ अग्रसर हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह विश्वास दिन-दिन दृढ़ होता जाता है कि भारत भूमि में धार्मिक चेतना की जो महान् परम्परा अनादि काल से चलती आ रही है वह मूर्च्छित भले ही हो गई हो मरी नहीं है अब वह मूर्छा भी समाप्त होने जा रही है। नव-चेतना का—धर्म जागृति का—संयम और सदाचार का- नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान का स्वर्ण बिहान अब बिल्कुल निकट है। परिवार के परिजनों का उत्साह उसी उज्ज्वल भविष्य का शुभ शकुन है।

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