Magazine - Year 1960 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या स्वर्ग और नर्क इसी संसार में मौजूद है?
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(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए., पी-एच. डी.)
यदि हम किसी से बहुत नाराज होते हैं, तो प्रायः कह उठते हैं, “तू नर्क में जा।” यदि प्रसन्न हो उठते हैं, तो कह उठते हैं, “ईश्वर करे तू स्वर्ग में रहे।” स्वर्ग और नर्क मनुष्य की बुद्धि के दो छोर हैं, कल्पना क्षितिज के दो किनारे हैं। मन की वृत्तियों के दो रूप हैं।
स्वर्ग मनुष्य के आनंद और सुख की सर्वोच्च कल्पना का अंतिम बिन्दु है। हम अधिक से अधिक जिस शाश्वत सुख, आनंद, सौंदर्य की कल्पना कर सकते हैं, वे सब स्वर्ग में केन्द्रीभूत हैं। मनुष्य ने स्वर्ग के साथ हर प्रकार की अच्छाइयाँ संयुक्त कर रखी हैं। हमारे जीवन का सिरमौर चरम लक्ष्य स्वर्ग ही है। जीवन में हम जो अच्छे कर्म करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से वशीभूत होकर किया करते हैं।
हम सोचते हैं, इस आसमान के ऊपर कोई परम रमणीय सुरम्य प्रदेश है, जिसमें सृष्टि के समस्त वैभव एकत्रित हैं। हम इस संसार में शुभ कर्मों के फलस्वरूप जो स्थिति प्राप्त करते हैं, यह स्वर्ग ही है। वहाँ हमें उन्हीं लोगों से भेंट होती है जो पुण्य आत्माएँ हैं और जिन्होंने धर्म तथा पुण्य कार्य किए हैं। उनसे ईश्वर प्रसन्न हुए हैं और वे ही स्वर्ग में श्रेष्ठतम सुख दिया करते हैं। हमारे शुभ चिन्तन का यह एक छोर है। नौ आसमानों में आखरी आसमान स्वर्ग है।
और नर्क? जो व्यक्ति इस संसार में दुष्ट व्यवहार, गंदे काम, दुष्प्रवृत्तियों की पूर्ति, शत्रुता, द्वेष, ईर्ष्या प्रतिशोध आदि में लगा रहता है, उससे ईश्वर अप्रसन्न होता है। मन में जमी हुई वासना हमसे पाप कराती है। हम भिन्न-भिन्न दुष्कर्मों में फँसते हैं। दूसरों को सताने की दुष्टता करते हैं। अतः ईश्वर की आज्ञा से दण्ड स्वरूप हमें नर्क में धकेल दिया जाता है। वहाँ हमें नाना प्रकार की घोर यातनाएँ दी जाती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों की सजा दी जाती है। जिसके जितने अधिक पाप कर्म होते हैं, उसे उतनी ही कठोर यातनाएँ मिलती हैं। नर्क पाप कार्यों के कुफल-चिन्तन का दूसरा छोर है।
मनुष्य जैसा इस दुनिया को देखता है, स्वर्ग और नर्क को भी उसी प्रकार की दुनिया समझता है। जन साधारण का विश्वास है कि स्वर्ग नवाँ आसमान होना चाहिए, और नर्क नवाँ पाताल, अर्थात् पृथ्वी के अंदर किसी आखरी छोर पर स्थित एक संसार।
लेकिन स्वर्ग और नर्क इसी भौतिक संसार में हैं। हम मर कर नहीं, जीते जी, इसी शरीर से उसका अनुभव कर सकते हैं। इन्हीं नेत्रों से उन्हें देख सकते हैं, इन्हीं इन्द्रियों से उसकी मृदुता या कटुता का रसास्वादन कर सकते हैं। स्वर्ग नर्क दूर नहीं, हमारे समीप हैं। हमारी पहुँच की परिधि में हैं।
स्वर्ग और नर्क मरने पर नहीं, जीते जी ही हम सब को इसी संसार में मिल जाता है स्वर्ग समीप है। हमारी पहुँच के भीतर है।
स्वर्ग और नर्क को दो सड़कें जाती हैं। अच्छाई वाली सड़क का अन्तिम स्टेशन है, स्वर्ग, दूसरी और बुराई और अपकीर्ति की सड़क है जिसका अंतिम स्टेशन नर्क। दोनों एक दूसरे के ठीक विरोध में हैं। दोनों दिशाएं एक दूसरे से ठीक उल्टी है। दोनों की रेलगाड़ियां विपरीत दिशा में जाती हैं। यह बात नहीं कि कोई नर्क वाली रेलगाड़ी में बैठ जाये और यह आशा करता रहे कि मैं स्वर्ग पहुँच जाऊँगा। जो स्वर्ग जाने वाली रेलगाड़ी में बैठा है, वह तो निश्चय ही पर्वतों के कलेजे चीरता, नदियों को पार करता, शुष्क मुरझाये प्रदेशों से गुजरता अनेक प्रकार की कठिनाइयों के क्षितिज पार करता हुआ ज्योतिपूर्ण उल्लासमय स्वर्ग में पहुँच ही जायेगा।
पृथ्वी का स्वर्ग कहाँ है?
जिसे उत्तम स्वास्थ्य का पूरा सुख प्राप्त है, खुल कर भूख लगती है और जो अपने शरीर के सब अवयवों को पूर्ण स्वस्थ रखता हुआ स्वस्थ मन भी रखता है, रोगमुक्त है, स्थिर और शान्तचित्त है, वह स्वर्ग में ही निवास करता है। रोगों से भरा शरीर पाकर मनुष्य नर्क में ही निवास करता है। आरोग्य में स्वर्ग का सुख भरा हुआ है। आरोग्य वह साधन है जिसके द्वारा हम संसार को नापते हैं। जिसके पास स्वस्थ, निर्विकार, सुदृढ़, स्वच्छ रोगमुक्त शरीर है, वह पृथ्वी पर ही स्वर्ग की एक झाँकी देख लेता है। रोगी जीते जी सल युक्त वातावरण में निवास करता है, अनेक जीर्ण विषों से परिपूर्ण रहता है और इस जीवन में ही नर्क की यातनाएं सहन करता है। अनेक भूलों से रोग होते हैं, फिर जमा हुए विष से पुराने और असाध्य रोग पैदा होते हैं और नर्क जैसी पीड़ायें भुगतनी पड़ती हैं।
“मृतकल्पा हि रोगिणः”
(म. भा. उद्योग पर्व 88,52)
रोगी पुरुष मरे हुए के समान होता है। उसका जीवन नर्क तुल्य है। शारीरिक और मानसिक रोग नर्क में धकेलने वाले शत्रु हैं। सौ वर्ष तक स्वस्थ स्वर्ग में निवास करो।
जब आप किसी के प्रति दया का सच्चा प्रदर्शन करते हैं, तो आपकी आत्मा में जो सुख होता है, वह मनः स्थित स्वर्ग से क्या कम है? जब आपका हृदय प्रेम और वात्सल्य से उद्वेलित होता है, आपको स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। एक प्रेममय पिता और माता अपनी सुखी, संतुष्ट और उन्नतिशील संतान के मध्य रह कर जो सुख लूटता है, वह स्वर्ग से क्या कम है। जिस परिवार के सब सदस्य एक दूसरे के प्रति प्रेम और आत्मीयता से भरे रहते हैं, सहयोग और सहायता करते रहते हैं, वह स्वर्ग का सुख लूटता है। परिवार के झगड़े, कटुता, वैमनस्य, हिंसा और स्वार्थ वे दूषित दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, जिनके प्रयोग और व्यवहार से मनुष्य जीते जी नर्क की यातनाएँ पाता है। दुर्भावनायें मनुष्यत्व का कलंक हैं। वे हम में जहर पैदाकर दानवत्व की ओर खींचती हैं।
क्रोध, घृणा-ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिशोध, घमंड, विषय वासना आदि अपनी काषायों का दासत्व करते रहना नर्क में रहने के समान है इसी प्रकार दूसरे की गुलामी में कड़वे घूँट पीने पड़ते है। परतन्त्रता से मौत अच्छी मानी गई है। कोई पाँच ही रुपये महीने पर दासत्व स्वीकार करते हैं, कोई, बड़ी राशि पर, किसी अन्य प्रलोभन पर। इस प्रकार अपने आप को बेच देने वाला नर्क में रहता है ऐसे भी साधु, संत, ज्ञानी, ऋषि, महात्मा हुए हैं, जो लाख रुपये पर भी गुलामी मंजूर नहीं करते। स्वतंत्र जीवन में स्वर्ग का सुख है।
वही दुःखी है जिसकी तृष्णा विशाल है, जो नित्य नई-नई चीजों, विलास सामग्रियों की कामना किया करता है रुपये की प्राप्ति की दुर्दमनीय इच्छा की पूर्ति के लिए दिन रात कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है। तृष्णा दुःख का मूल है। गरीब वह नहीं है, जिसके पास कम है, बल्कि वह जो अधिक चाहता है। धनवान होते हुए भी जिसकी धनेच्छा दूर नहीं हुई, वह सबसे अधिक अभागा है। वह भी एक प्रकार के नर्क में निवास करता है। जिसने अपनी कामनाओं और वासनाओं का दमन करके मन को जीत लिया है, उसने स्वर्ग पाया है। अथर्ववेद में सत्य ही कहा है-
“वद्धान्मुच्चासि पद्धकम्”
(अथर्व. 6।121।4)
बन्धन में पड़े हुओं को मुक्त करो। अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना मानों नर्क से छूटना है।
पुण्य और पसीने की कमाई से मनुष्य स्वर्गीय सुख लूटता है।
श्री आनन्द कुमार ने अपनी पुस्तक “आत्मविकास” में एक बड़ी ही मार्मिक बात लिखी है। यह मनुष्य के लौकिक संबन्ध की है। पृथ्वी का स्वर्ग कहाँ है? वे लिखते हैं-
“इस पृथ्वी का नाम वसुमती (अर्थात् धनवाली) है। इसमें जो वसुता नहीं प्राप्त करता, वह भौतिक जीवन का आनंद नहीं पा सकता। जो वसुमत (धन सम्पन्न) होता है, वह वसुमती का भोग करता है, जो वसुकीट होता है, वह “नाना रत्न वसुन्धरा” में भी नर्क का दुःख भोगता है। लौकिक जीवन की ऐसी ही व्यवस्था है।”
स्वर्ग में रहना है तो दरिद्रता को मार भगाओ। गरीबी, बेबसी और लाचारी अनेक नारकीय यातनाओं की जननी है। जिसके पास आर्थिक स्वतंत्रता है, उसके पास स्वर्ग की कुँजी है। इस सम्बन्ध में निम्न सफलता-सूत्र स्मरण रखने योग्य है :-
“पृणन्नापिरपृणन्त मभिष्यात्।”
(ऋग्वेद 10।117।7)
सौ हाथों से कमाओ, हजार हाथों से दान करो। न कमाने वाले त्यागी से कमाकर दान करने वाला श्रेष्ठ है।
देवः वाँर्य बरते। (ऋग्वेद 6।112)
धन एक दैवी पदार्थ है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की आन्तरिक पवित्रता तथा ईमानदारी से है। धन उन्हीं के पास ठहरता है। जो सद्गुणी है। दुर्गुणी की विपुल सम्पदा भी स्वल्प काल में नष्ट हो जाती है और वह प्रत्यक्ष नर्क का दुःख भोगता है। पाप की कमाई असंख्य दुःखों को देने वाली है।
“रमन्ताँ पुण्या लक्ष्मी।”
अथर्व 7।114।4
बेईमानी की कमाई से कोई फलता फूलता नहीं। नर्क में जाता है।
दैवी गुणों से स्वर्ग जैसा सुखः-
जितने भी सात्विक दैवी भाव हैं, उन सबके मूल में स्वर्ग की स्वर्णिम आभा है। उन्हें धारण करने में मनुष्य आन्तरिक सुख और संतोष का अनुभव करता है, क्षमा, दया, प्रेम, मृदुता, सत्, आशा, सहानुभूति- इन सभी दैवी गुणों में, इन्हें अपने जीवन में उतारने से स्वर्ग जैसा सुख मिलता है। इन सबके मूल में भगवान है। भगवान की विशेष कृपा से मनुष्य इनके अनंत सुख का अनुभव करता है, उसका विवेक जाग्रत होता है। उसके हृदय में विराजित परम प्रभु उसे स्वर्ग का सुख प्रदान करते हैं। स्वर्ग आपकी पहुँच के भीतर है क्योंकि आप इन ईश्वरीय गुणों को धारण कर सकते हैं। चरित्र में पूर्ण विकास कर सकते हैं।
मर्त्या हवाअग्ने देवा आसुः।
- शत ब्रा 11।1।2।12
यदि रखिए, मनुष्य शुभ कार्य करके देव बनते हैं। अतः शुभ कर्म कीजिए और इसी शरीर से भ्रसुर का पवित्र पद प्राप्त कीजिए। शुभ कार्य ही पुजते हैं। उन्हें करने में मनुष्य स्वर्ग का सुख और शान्ति प्राप्त करता है।
शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि।
-अथर्ववेद
आप शुद्ध, तेजस्वी, आनंद मय एवं प्रकाशवान् हैं। इसलिए आत्मबन्धु, दैवी गुणों को धारण करके स्वर्ग का सुख लूटिये। नर्क का प्रधान कारण तामसी भाव है। सब अज्ञान में होता है, तो मनुष्य पाप करता है। इनमें जमे हुए दुर्भाव मनुष्य से दुष्कर्म कराते हैं, अनेक नारकीय परेशानियों में ढकेलते हैं। अनीति और अधर्म कि विचार सर्वथा त्यागने योग्य है। जो देवी गुणों की उपेक्षा कर असत्य और पाशविक भावों को अपनाते हैं, उन्हें अपयश ही मिलता है। आप ईश्वर के अंग हैं। उन अंशी भगवान् की शक्ति आपके अंदर स्वर्ग की सृष्टि कर सकती है।