Magazine - Year 1961 - November 1961
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भारतीय बालकों की शानदार परम्परा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
साहसी स्कंदगुप्त मगध के राजा कुमारगुप्त का पुत्र स्कंदगुप्त जब किशोर ही था तब उसने मालूम किया कि हूणा लोग बराबर भारत पर हमला करते हैं और युद्ध नियमों के विपरीत धूर्ततापूर्ण छल बल से भारी हानि पहुँचाते हैं। स्कंदगुप्त से अपने देश का यह अपमान न देखा गया, उसने पिता से आग्रह किया कि घृणों के देश में जाकर उन्हें दंड देने के लिए उसे आज्ञा दी जाय। पिता बड़े असमंजस में थे क्योंकि एक तो स्कंदगुप्त अभी किशोर ही था, शरीर बल और युद्ध कौशल की दृष्टि से उसे अभी कच्चा ही कहा जा सकता था। दूसरे हुणों का देश बहुत दूर था। हिमाच्छादित पहाड़ों की चोटियाँ पार करके वहाँ जाना होता था। ऐसे दुर्गम मार्ग को पार करना सेना के लिए भी कठिन था। फिर हुण युद्ध में छल-बल से ही प्रधान रूप से काम लेते थे। ऐसी स्थिति में उसे आक्रमण की आज्ञा कैसी दी जाय यह समस्या कुमारगुप्त के आगे थी। पुत्र की देशभक्ति एवं उच्च आदर्श के प्रति अनन्य निष्ठा को देखकर कुमारगुप्त को झुकना पड़ा। चढ़ाई की आज्ञा मिल गई। स्कंदगुप्त मगध से दो लाख सैनिक लेकर चल पड़ा। पंजाब से आगे बढ़कर हिमाच्छादित चोटियों को पार करती हुई सेना हूण प्रदेश में पहुँची और इस वीरता के साथ लड़ी कि शत्रुओं के छक्के छूट गये। उन्हें परास्त ही होना पड़ा। आज के ईरान और अफगानिस्तान तक उसने अपना राज्य कायम किया। इस विजय को करते हुए जब स्कंद गुप्त भारत लौटे तो उनके स्वागत में मगध से पाँच कोश तक मार्ग सजाए गये और पूरे देश में विजयोत्सव मनाया गया। पराक्रम के लिए आयु एवं शरीर बल का नहीं मनोबल और साहस का महत्व है। बारह वर्षीय वीर बादल दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के राणा भीमसिंह की रानी पहानी को अपहरण की योजना बनाई। दर्पण में मुख देखकर लौट जाने की शर्त पूरी होने पर भी जब वह न माना और राणा को कैद कर लिया तो युद्ध की विस्तृत योजना बनाने के लिए राणा को छुड़ाना आवश्यक था। इसके लिए एक चाल चली गई। बादशाह को कहला भेजा कि पहानी का डोला आ रहा है। राणा छोड़ दिये गये। पहिनी की तथाकथित पालकी में एक लड़का बैठा था- बादल। बादल भी जान की बाजी लगा कर ही पालकी में बैठा था। वहाँ पहुँचने पर उसने पालकी में से निकल कर तलवार संभाली। एक दूसरे लड़के गोरा के नेतृत्व में पालकियों कहार बने हुए राजपूत भी निकल पड़े और युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। बारह वर्षीय बादल ने तो और भी कौशल दिखाया। वह लड़ता मरता किले में आवश्यक सूचनाओं को पहुँचाने में भी सफल हुआ और अन्त में अपने भी प्राण विभाजित करके धन्य बना। आततायी को सलाम नहीं शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर नवाब के दरबार में कर्मचारी थे। वे आठ वर्ष के शिवाजी को दरबार में ले गये और कहा- बेटा बादशाह को सलाम करो। शिवाजी ने दो टूक मना कर दिया कि मैं मुसलमान के आगे सिर नहीं झुका सकता। नवाब की त्यौरी बदल गई पर शिवाजी विचलित न हुए, वे उलटे पैर लौट आये पर झुके नहीं। अतिथि तथा ग्रन्थों की रक्षा के लिए दो हजार वर्ष पूर्व चीन का एक विद्वान् ‘हुए न साँग’ भारतीय दर्शन शास्त्र पढ़ने नालिन्दा विश्व विद्यालय में आया। कितने ही वर्ष पढ़ने के बाद वह चीन लौटने को तैयार हुआ। उसने यहाँ के कितने ही धर्म ग्रन्थ भी साथ लिये। उसे सिंधु नदी के मुहाने तक पहुँचाने के लिए कुछ छात्र साथ गये। रास्ते में तूफान आया और नाव में पानी भरने लगा। अब क्या किया जाय? धर्म ग्रन्थों को और चीनी यात्री को सकुशल पार करने का एक ही उपाय था कि कुछ छात्र पानी में कूदें। नाव हल्की हो तब वह पार लगे। भारतीय विद्यार्थी खुशी खुशी नदी में कूद पड़े। उनने अपनी जान दे दी और अतिथि आगन्तुक की तथा ग्रन्थों की रक्षा करके अपनी महानता का परिचय दिया। साहसी पटेल एक ग्रामीण बालक को एक बड़ा फोड़ा निकला। उन दिनों देहातों में डाक्टरी इलाज का चलन न हुआ था। मामूली जानकार लोग ही इलाज कर लेते थे। फोड़ों का इलाज उसे लोहे की गर्म सलाख से दाग कर किया जाता था। बालक के इस फोड़े का इलाज भी देहाती वैद्य ने लोहे की सलाखों से जलाना ही बताया। सलाखें आग से लाल हो गई पर दागते वक्त देहाती वैद्य रुक गया कि बालक बहुत छोटा है। डरने से कुछ बुरी बात न हो जाय। वैद्य असम जस में ही था कि बालक ने वैद्य को कहा लोहा ठंडा हुआ जा रहा है-आपको डर लगता हो तो मुझे आज्ञा दो मैं अपने आप अपना फोड़ा जला लूँगा। देखने वाले दंग रह गये। बालक का फोड़ा कई जगह से जलाया गया पर उसके चेहरे पर शिकन तक न आई। यह बालक आगे चल कर देश का प्रमुख नेता हुआ, काँग्रेस का प्रधान और भारत का गृहमंत्री भी। इसका नाम था-सरदार वल्लभ भाई पटेल। मैं झूठा नहीं हूँ एक बार गाँधी जी स्कूल देर में पहुँचे। बादल छाये रहने और वर्षा होने के कारण उन्हें समय का ठीक पता न चला। स्कूल में अध्यापक ने उनसे देर में आने का कारण पूछा- तो उन्होंने सच बात बतायी। पर इससे अध्यापक को संतोष न हुआ। इसे उसने बहाना समझा और एक आना जुर्माना कर दिया। गाँधी जी रोने लगे। साथियों ने कहा- एक आना के लिए क्यों रोते हो। आपके पिता तो अमीर हैं, एक आना कौन बड़ी बात है। गाँधीजी ने कहा- मैं एक आना के लिए नहीं वरन् इसलिए रोता हूँ कि मुझे झूठा समझा गया। दयालुता और सहृदयता एक लड़का दौड़ता हुआ डाक्टर के पास पहुँचा और उनसे अत्यधिक आग्रह करके एक रोगी को दिखाने ले गया। डाक्टर ने देखा- सड़क पर एक कुत्ता घायल पड़ा है उसी के इलाज के लिए उसे लाया गया है। इस पर डाक्टर बहुत झल्लाया।।। पर लड़का भी अपनी आन का पूरा था। उसने कहा-मनुष्य के समान ही कुत्ते को भी कष्ट होता है। हम मनुष्यों का ही दुःख दूर करें और दूसरे प्राणियों का नहीं क्या यह उचित है। डाक्टर झेंपा उसने कुत्ते को दवा लगाई। कुछ दिन में वह कुत्ता अच्छा भी हो गया। इस सहृदय बालक का नाम था- महामना मदनमोहन मालवीय। बिना सुँघाये आपरेशन कम्पाउण्डर क्लोरोफार्म सुँघाने लाया कि अंगूठे की खाल कड़ी है और वहाँ जो आपरेशन करना है वह भी बड़ा हैं तनिक से हिल जाने से नस कट सकती हैं और खतरा पैदा हो सकता है, इस लिए बेहोश करके आपरेशन करने की ही डाक्टर की राय है। रोगी ने कहा इसकी कुछ भी जरूरत नहीं है। डाक्टर बिना डरे अपना काम करें, हिलने के कारण कोई खतरा होने की नौबत न आयेगी। अन्त में आपरेशन बिना सुँघाये ही हुआ। रोगी शांत भाव से बैठा रहा। उसने उफ तक न की। डाक्टर चकित थे कि इतने बड़े आपरेशन में भी रोगी कैसे इतना धैर्य रख सका। इस धैर्यवान् रोगी का नाम था-चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, जो आगे चलकर भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने। गोखले की सच्चाई गोपाल कृष्ण गोखले जब स्कूल में पढ़ते थे तब एक दिन एक लड़के की मदद से गणित का प्रश्नपत्र हल किया। उत्तर ठीक बन पड़े तो उन्हें अध्यापक ने इनाम दिया। बालक इनाम लेने में प्रसन्न होने की अपेक्षा रोने लगा। अध्यापक ने इसका कारण पूछा तो उसने सच बात यह दी कि प्रश्नपत्र मैंने दूसरों से पूछकर हल किया है। ऐसी दशा में मुझे सजा मिलनी चाहिए न कि इनाम। अध्यापक उनकी सच्चाई से बहुत प्रभावित हुए। उसने बच्चे को बहुत प्यार किया और वह इनाम देते हुए कहा यह प्रश्नपत्र हल करने का नहीं तुम्हारी सच्चाई का इनाम है। बर्तन माँजने वाला शिष्य आश्रम में एक नया शिष्य आया। गुरु ने उसकी निष्ठा परखने के लिए उसे बर्तन माँजने का काम दे दिया। शिष्य खुशी-खुशी बर्तन माँजता और इसी प्रकार के झाडू लगाने आदि के अन्य मोटे काम करता। साथ ही कान लगा कर गुरु के उपदेशों को सुनता रहा। अपनी कर्तव्य परायणता के कारण वह गुरु का परमप्रिय शिष्य हो गया और वही अन्त में उनका उत्तराधिकारी हुआ। इस शिष्य का नाम था-सिक्ख सम्प्रदाय का महान् धर्मगुरु अर्जुन देव। मंद बुद्धि लड़का एक लड़का बहुत ही मन्द बुद्धि था। उसे पढ़ना-लिखना कुछ न आता था। बहुत दिन पाठशाला में रहते हुए भी उसे कुछ न आया तो लड़कों ने उसकी मूर्खता के अनुरूप उसे बरधराज अर्थात् बैलों का राजा कहना शुरू कर दिया। घर बाहर सब जगह उसका अपमान ही होता। एक दिन वह लड़का बहुत दुखी होकर पाठशाला से चल दिया और इधर-उधर मारा-मारा फिरने लगा। वह एक कुँए के पास पहुँचा और देखा कि किनारे पर रखे हुये जगत के पत्थर पर रस्सी खिंचने की रगड़ से निशान बन गये है। लड़के को सूझा कि जब इतना कठोर पत्थर रस्सी की लगातार रगड़ से घिस सकता है तो क्या मेरी मोटी बुद्धि लगातार परिश्रम करने से न घिसेगी। वह फिर पाठशाला लौट आया और पूरी तत्परता और उत्साह के साथ पढ़ना आरम्भ कर दिया, उसे सफलता मिली। व्याकरण शास्त्र का वह उद्भट विद्वान् हुआ। लघु सिद्धान्त कौमुदी नामक ग्रन्थ की उसने रचना की। उसके नाम में थोड़ा सुधार किया गया-बरधराज की जगह फिर उसे वरदराज कहा जाने लगा। माता के लिए प्राण देने वाला बालक बच्चों के लिए प्राण देने वाली माताओं के अनेक उदाहरण इस संसार में मौजूद है। पर ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें बच्चों ने अपनी माता के लिए प्राण दिये है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत दर्पण में लाखों मनुष्यों को भूख से तड़प-तड़प कर प्राण देने पड़े थे। सन् 1880 की घटना है। उड़ीसा में भारी अकाल पड़ा। नीलगिरी में एक किसान परिवार के सभी लोग भूखे मर गये। केवल एक स्त्री और उसका दस वर्षीय लड़का सतीश बचा। उनकी दशा भी दयनीय हो गई। स्त्री बीमार पड़ गई। बच्चा भीख माँगने निकलता। कहीं जूठन था और कुछ मिल जाता उसी को लाकर अपनी माँ को खिलाता और तब खुद खाता। एक दिन लड़के की दशा भी बहुत शोचनीय थी वह उठा, कुछ खाने कहीं से प्राप्त किया और उसे अपना माँ को खिलाने ले चला। भूख उसे भी इतनी लगी थी कि चला नहीं जा रहा था फिर भी उसने यहीं उचित समझा कि पहले माँ को खिलाकर तभी कुछ मुँह में डालना चाहिए। वह मुश्किल से घर तक आ गया और उस भोजन को माँ के हाथ पर रखते-रखते प्राण छोड़ दिये। इसी प्रकार की कितनी ही घटनायें उन दिनों घटित हुई थीं। सनातन नामक एक ग्यारह वर्षीय बालक की भी एक घटना उड़ीसा में प्रसिद्ध है, जिसने अपने छोटे भाइयों तथा माता को बिना खिलाये कुछ न खाने का प्रण किया था और वह उस प्रण को निभाता हुआ अपने परिवार में सबसे पहले भूख की ज्वाला में जल कर मरा।