Magazine - Year 1961 - November 1961
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सामयिक चेतावनी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
हमारा जीवन आत्मा के लिए या शरीर के लिए-इन दोनों बातों में से किसको प्रधानता देती इसका निर्माण हमें अब कर ही लेना चाहिए। सुर दुर्लभ मानव जीवन का अमूल्य अवसर एक-एक दिन करके यों ही बीतता जा रहा है और मृत्यु की बड़ी तेजी के साथ निकट दौड़ती चली आ रही हैं। कभी समय हैं कि हम कुछ सोच सकते हैं और कुछ कर सकते हैं। समय जीतने जाने पर एक दिन पैसा या जाएगा कि न कुछ सोचना बन पड़ेगा और न कुछ करना। तब केवल पश्चाताप ही हाथ पड़ेगा और न कुछ करना। तब केवल पश्चाताप ही हाथ रहेगा और बातों करोड़ों वर्ष का चौरासी लाख भ्रमण का अन्धकारमय भविष्य ही सामने उपस्थित होगा। आज की सामयिक चेतावनी यही हैं कि हम समुचित रहते आगे और जो अवसर बाकी हैं उसका सदुपयोग कर लें। हो सकता हैं कि आज हम इन बातों का महत्व न समझें, उपेक्षा और उपहास के साथ उन्हें व्यर्थ मानें। पर यह आज की लापरवाही एक दिन हमें बहुत दुःख देगी। कीट पतंगों की तरह पेट पालने और बच्चे पैदा करने की तुच्छ प्रकृति को पूरा करते रहने के लिए यह मनुष्य शरीर नहीं मिला हैं, इसका उद्देश्य कुछ ऊँचा होगा, उस ऊँचाई को प्राप्त करने की बात यदि हमारी समझ में नहीं आती तो एक दिन यही ना-समझी हमारे लिए आत्महत्या जैसी दुःखदायक सिद्ध होगी। बुद्धिमत्ता की सबसे बड़ी बात यही हो सकती हैं कि हम जीवन लक्ष को समझें और उसे पूरा करने का प्रयत्न करें। शरीर को सर्वस्व मानने वालों को आत्मा की अपेक्षा करनी पड़ती है? क्योंकि भौतिक जीवन में प्रत्यक्षवाद का आकर्षण बहुत हैं। आत्मिक लाभ समय बाध्य हैं। बालबुद्धि में प्रतीक्षा के लिए गुँजाइश नहीं रहती, बच्चों को धैर्य कहाँ होता हैं। वे आम की गुठली बोते है और क्षण भर बाद उसमें से पौधा उगने की आशा में उलट पलट करते हैं। दो चार घंटे बीत जाने पर भी जब उनके सपने का आम्र वृक्ष नहीं उगता तो वे निराश हो जाते हैं और गुठली को उखाड़ कर फेंक देते हैं। यदि यही दृष्टिकोण आत्मिक जीवन के बारे में भी रहा तो मनुष्य भौतिक लाभों को ही सब कुछ मान लेता हैं क्योंकि वे प्रत्यक्ष हैं। इन्द्रिय सुखों की वासना और धन, सत्ता एवं वैभव की तृष्णा की पूर्ति के लिए किये प्रयत्नों का फल इतना आकर्षण होता हैं कि वह छोड़ते नहीं बनता ।इस आकर्षण के मिठास में चाशनी चाटने वाली मक्खी की तरह जीव के पंख ऐसे चिपक जाते हैं कि फड़फड़ा ने पर भी उससे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं मिलता। आत्मिक मार्ग की विभूतियाँ महान् हैं। शरीर को सुख देने वाले भौतिक लाभ उन आत्मिक लाभों की तुलना में अत्यन्त ही तुच्छ और अस्थिर हैं। पर आत्मिक लाभों की महानता और श्रेष्ठता की परख केवल विवेक की कसौटी पर हो सकती हैं। अविवेक पूर्ण स्थूल दृष्टि में तो वह घाटे का मैदा ही प्रतीत होता हैं। क्योंकि मौज मजा छोड़ कर, स्वार्थ और कमाई को घटाकर इसमें तप, त्याग, संयम की प्रक्रिया करके मनोनिग्रह का रूखा मार्ग अपनाना पड़ता हैं। ऐसे नीरस देखने वाले और हानिकर लगने वाले मार्ग पर मोटी बुद्धि के लोग चलने को तैयार नहीं होते। यही कारण हैं कि इस संसार के अधिकांश मनुष्य भौतिक दृष्टिकोण के होते हैं। शरीर को, शरीर के लाभों को ही वे सब कुछ समझते है। आत्मा उनके लिए एक उपेक्षित वस्तु हैं। उसके लिए भी कुछ करना चाहिए ऐसा कभी कभी कुछ सोचते तो हैं, कुछ करने की इच्छा भी करते हैं, पर बन कुछ नहीं पड़ता। क्योंकि लक्ष शरीर सुख जो हैं। तृष्णा और वासना की पूर्ति में ही अपनी हित दिखता हैं। ऐसी दशा में शारीरिक प्रवृत्तियों के घेरे में अपनी सारी विचारधारा और कार्य पद्धति भ्रमण करती रहे तो उसमें आश्चर्य को क्या बात हैं? वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न हैं। आत्मिक क्षेत्र में जो लाभ, सुख एवं आनन्द हैं उसका मूल्य और मूल्य, वासना एवं तृष्णा के थोड़े, अनिश्चित, अस्थिर तथा जीवन को निस्तेज, निष्प्रभ, निरर्थक बना देने वाले तुच्छ सुखों की अपेक्षा अत्यधिक हैं। पर उसका मूल्यांकन करने के लिए थोड़ी उच्चकोटि की दूरदर्शिता पूर्ण विवेक बुद्धि की आवश्यकता होती हैं। यदि उसका अभाव रहा तो घटिया दृष्टि से सोचने और घटिया काम करने की बार क्रोध में हो बहुमूल्य जाहन की समाप्ति होगी। पर यदि विवेकशीलता जागृत हो गई और सारी वस्तु स्थिति पर विचार करके जीवन यापन जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर कुछ सारगर्भित निर्णय करने की आकांक्षा जगी तो वह विचारधारा धीरे धीरे हमें वहीं पहुँचा देगी जहाँ संसार के सभी महापुरुष पहुँचे हैं। जब हमारा बच्चा खेलकूद में मस्त रहकर पढ़ना लिखना छोड़ने लगता हैं तब हम उसे डाँटते और रोकते हैं। उसे पढ़ाई के लाभ और मनोरंजन की व्यर्थता समझाते हैं। पर खेद की बात है कि हम अपने ऊपर उस सिद्धान्त को लागू नहीं करते। वासना और तृष्णा ही हमारे लिए सब कुछ बनी हुई हैं। आत्मा की प्रगति से उपलब्ध होने वाले लाभों की हमें चिन्ता ही नहीं हैं। क्या यह उपेक्षा उस बालक की मूर्खता से कम हैं जो खेलकूद के लिए पढ़ाई छोड़ बैठता है? हम शरीर नहीं आत्मा हैं। शरीर कल नहीं तो परसों नष्ट होने वाला हैं। वह हमें एक साधन, औजार, उपकरण एवं वाहन के रूप में मिला हैं। क्या इस वाहन के लिए ही अपनी सारी शक्ति लगा दी जाय और अपना गन्तव्य लक्ष भुला दिया जाय? यह विचारणीय प्रश्न हैं, और इस पर विचार किया ही जाना चाहिए। शरीर की सुरक्षा रखी जानी उचित हैं। उससे सम्बन्धित आजीविका उपार्जन, परिवार का पोषण, एवं लौकिक कर्तव्यों का पालन भी उचित है। आजीविका उपार्जन, परिवार का पोषण, एवं लौकिक कर्तव्यों का पालन भी उचित हैं। अपने घोड़े को कौन भूखा मार डालता हैं? कौन उसकी सार संभाल नहीं करता? पर इसी प्रक्रिया में अपनी सारी शक्ति नहीं लगनी चाहिए। घोड़ा जिस यात्रा के लिए खरीदा गया था उस मंजिल का स्मरण ही भुला देना कहाँ की बुद्धिमानी हैं? आत्मा का जीवन चिरस्थायी हैं। शरीर उसका एक वस्त्र मात्र हैं। वस्त्र को रंगीन बनाने के लिए अपना रक्त निकाल कर उसकी रंगाई कौन करेगा? पर हम हैं जो इसी खिलवाड़ में लगे हुए हैं। कुछ दिन के मनोरंजन में व्यस्त रहकर आत्मा के भविष्य को लाखों-लाख करोड़ों वर्ष के लिए अन्धकारमय बना रहे हैं। अपनी आज की मनोदशा पर हमें विचार करना हैं। अपनी अब तक की गतिविधि पर हमें शान्त चित्त से ध्यान देना हैं। क्या हमारे कदम सही दिशा में चल रहे हैं? यदि नहीं तो क्या यह उचित न होगा कि हम ठहरे, रुक, सोचें, और यदि रास्ता भूल गये हैं तो, पीछे लौटकर सही रास्ते पर चले। इस विचार मंथन की बेला में आज हमें यही करना चाहिए। यहाँ सामयिक चेतावनी और विवेकपूर्ण दूरदर्शिता का तकाजा हैं।