Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता
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जिस प्रकार कोई मशीन अपनी सामर्थ्य से अत्यधिक काम करने से जल्दी टूट−फूट जाती है और पड़ी रहने से जंग खाकर पुरानी हो जाती है उसी प्रकार शरीर रूपी मशीन का भी उचित मात्रा में श्रमशील रहना आवश्यक है। सृष्टि के सभी जीव−जन्तु आहार की तलाश में दिनभर घूमते फिरते रहते हैं, जिससे उनका शरीर उचित मात्रा में श्रम कर लेता है। आहार के पाचन और रक्त संचार की व्यवस्था ठीक प्रकार बनाये रहने के लिए इस प्रकार की श्रमशीलता आवश्यक भी है।
चिड़ियाँ सवेरा होते ही दाना चुगने की तलाश में अपने घोंसले से उड़ जाती हैं और दिनभर इधर से उधर फुदकती रहती हैं। हिरन दिनभर चलते फिरते और चौकड़ी भरते नजर आते हैं। जंगलों में स्वतन्त्र निर्वाह करने वाले पशु, बन्दर, लंगूर, गिलहरी, चींटी, तितली, मधुमक्खी आदि जीव−जन्तु सारे दिन गतिशील रहते हैं, कुछ न कुछ करते रहते हैं। यदि वे अपने यह भ्रमण बन्द कर दें तो उनका रक्त संचार पाचन स्नायु−संस्थान सभी कुछ शिथिल पड़ जाय और जिस प्रकार काम न करने वाले मनुष्य कमजोरी और बीमारी से ग्रसित बने रहते हैं इसी प्रकार वे जीव−जन्तु भी रुग्ण रहने लगें।
आराम की जिन्दगी−मौत का निमंत्रण
आरोग्य की रक्षा के लिए मानसिक संतुलन और उचित आहार आवश्यक है उसी प्रकार समुचित शारीरिक श्रम व्यवस्था रहनी भी जरूरी है। देखा गया है कि लोग शारीरिक श्रम करने में संकोच करते हैं उसमें बेइज्जती समझते हैं और आराम की जिंदगी गुजारना चाहते हैं। आलस्य और हरामखोरी की आदत ने मनुष्य का जितना अहित किया है उतना शायद ही अन्य किसी बुराई ने किया हो। जिस प्रकार भूमि को जोत, बोकर, नाना प्रकार के अन्न, शाक उपजाये जाते हैं, जिस प्रकार खान खोदकर धातुऐं और खनिज पदार्थ निकाले जाते हैं, जिस प्रकार दूध बिलोकर घी निकाला जाता है उसी प्रकार इस शरीर को परिश्रम में लगाकर उद्योग और पुरुषार्थ के बल पर ही विभिन्न दिशाओं में उन्नति की जाती है और श्री समृद्धि का प्रतिफल प्राप्त किया जाता है। उद्योगी पुरुषों को ही लक्ष्मी मिलने की उक्ति अक्षरशः सत्य है। जिनने भी जीवन का कुछ लाभ लिया है उनने उद्योगी और परिश्रमी बने रहने की निरन्तर पूरी−पूरी चेष्टा की है। एक डच कहावत के अनुसार ‘आराम की जिन्दगी−मौत का निमंत्रण कही जाती है।’
विद्या प्राप्ति, धन उपार्जन, कला कौशल, कृषि व्यापार, लोक सेवा आदि कार्यों के लिए ही नहीं आरोग्य की रक्षा के लिए भी श्रमशीलता आवश्यक है। जो लोग मेहनत से जी चुराते हैं, शरीर को कष्ट देने में बेइज्जती समझते हैं वे अपनी भूल का परिणाम दुर्बलता और अस्वस्थता में ही प्राप्त करेंगे, उनका स्वास्थ्य कभी ठीक न रह सकेगा। आरोग्य के उपासक अखाड़ों में, व्यायाम शालाओं में खेल के मैदानों में अपनी साधना करते हैं और स्वास्थ्य के देवता का अभीप्सित वरदान प्राप्त करते हैं। कोई पहलवान आज तक ऐसा नहीं हुआ जिसने व्यायामशाला में जाने से इनकार किया हो, कसरत कुश्ती से जी चुराया हो। कोई खिलाड़ी तब तक प्रशंसा का पात्र नहीं बन सकता जब तक वह खेल के मैदानों में अपने शरीर को उछालने कुदाने में संकोच करता रहे। क्या कोई कुशल कारीगर ऐसा हो सकता है जो परिश्रम से जी चुराता रहा हो? जिनके हट्टे−कट्टे और मजबूत शरीर दिखाई पड़ते हैं उनमें से प्रत्येक व्यक्ति परिश्रमी रहा होता है। आलस्य से आराम मिल सकता है पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है। प्रगति के सब द्वार तो उससे रुकते ही हैं, स्वास्थ्य भी निश्चित रूप से चौपट होता है।
श्रम का अवाँछनीय तिरस्कार
भारतवर्ष में न जाने कैसे एक भयानक भ्रम फैल गया है कि गरीब और नीची श्रेणी के लोग ही शारीरिक श्रम करते हैं। अमीर और शिक्षितों को दिमागी काम भले ही करना पड़े पर शारीरिक श्रम नहीं करना चाहिए। जिसे शारीरिक श्रम करना पड़ता है वह अपनी बेइज्जती समझता है। अमीर लोग अपने कपड़े पहनने और जूते बाँधने का काम भी नौकरों से कराते देखे गये हैं। थोड़ा−सा वजन ले चलने के लिए कुली और थोड़ी दूर चलने के लिए उन्हें सवारी चाहिए। श्रमजीवी लोग यहाँ अछूत या शुद्र समझे जाते हैं। शारीरिक काम करना चूँकि बेइज्जती का कारण है इसलिए कारीगरी और मजदूरी का पेशा भी बेइज्जती की बात गिन ली गई और जो कोई भी इन कामों को करने लगे वे घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे, नीच या अछूत समझे जाने लगे। इस दूषित दृष्टिकोण ने हमारा सामाजिक अधःपतन किया। बेइज्जती से खिन्न होकर करोड़ों निम्न श्रेणी के कहे जाने वाले लोग विधर्मी होकर एक बड़े सिर दर्द का कारण बने हुए हैं। जो बच्चे पढ़ते जा रहे हैं वे बेइज्जती के कृषि कारीगरी सरीखे शारीरिक श्रमों को छोड़कर क्लर्की जैसे आराम के काम तलाश करते फिरते हैं। इससे राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मजूर कम होते जा रहे हैं, उत्पादन घटता जा रहा है और पढ़े लिखों की बेकारों बढ़ती हुई संख्या नाना प्रकार के अनैतिक कार्यों में संलग्न होकर सामाजिक शक्ति नष्ट करने में लगी हुई है।
इस प्रवृत्ति का सबसे घातक असर स्वास्थ्य पर हो रहा है। आरामतलब रईसों और सेठों में से एक प्रतिशत भी स्वस्थ न मिलेंगे। बाबू लोगों के कोट पेंट उतारकर देखा जाय तो हड्डियों का ढाँचा मात्र दिखाई देगा। अपच और अनिद्रा से सभी परेशान होंगे। चाय और बीड़ी के आधार पर किसी प्रकार उनकी टूटी गाड़ी लुढ़कती रहती है। शिक्षितों का स्वास्थ्य अशिक्षितों की तुलना में अत्यधिक खराब पाया जाता है, इसका एक बड़ा कारण उनका शारीरिक श्रम से जी चुराना भी है।
महिलाऐं भी पीछे नहीं
महिलाऐं इस बुराई में पुरुषों से आगे ही बढ़ जाना चाहती हैं। थोड़े खाते, पीते, पढ़े लिखे और कुलीन घरों की महिलाऐं यह पसन्द नहीं करतीं कि उन्हें चूल्हा, चक्की, बरतनों की सफाई, झाडू, बुहारी आदि मामूली समझे जाने वाले काम अपने हाथ से करने पड़ें। इन कार्यों के लिए उन्हें नौकर की आवश्यकता पड़ती है। स्वयं करना पड़े तो बेइज्जती अनुभव होती है। जिन्हें अपने हाथ से कुछ काम नहीं करना पड़ता वे इसमें अपना गर्व और सौभाग्य समझती हैं। स्वेटर बुनना और उपन्यास पढ़ना ही उन्हें इज्जत का काम दीखता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि उनके स्वास्थ्य पुरुषों की अपेक्षा भी अधिक खराब होते चले जा रहे हैं। पुरुषों को घर से बाहर जाने आने का तथा और भी कुछ धरने उठाने का काम तो भी रहता है पर स्त्रियों का कार्यक्षेत्र और भी संकुचित हो जाता है। फिर बार−बार प्रसव होते रहने और दूध पिलाते रहने के कारण वे स्वभावतः शरीर की दृष्टि से कुछ दुर्बल होती हैं ऐसी दशा में श्रम को त्याग देने पर उनके रक्त संचार एवं पाचन व्यवस्था पर और भी बुरा असर पड़ता है, देहाती महिलायें जो खेती के काम में लगी रहती हैं एवं चक्की पीसना, कुँए से पानी भरना, गोबर थापने जैसे परिश्रम भरे काम करती रहती हैं उनका स्वास्थ्य कितना अच्छा रहता है। प्रसव काल का कष्ट उन्हें जरा भी परेशान नहीं करता। बीमारी उनके पास फटकती तक नहीं। परिश्रम का विकल्प केवल रोग ही हो सकता है। जो मेहनत से जी चुराते हैं उन्हें बीमारी का बोझ उठाना ही पड़ेगा।
यह भली भाँति स्मरण रखा जाना चाहिए कि स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक श्रम की समुचित व्यवस्था रखे रहना आवश्यक है। चाहे वह उपार्जन के लिए हो, चाहे खेल के लिए, चाहे व्यायाम के लिए, रूप कैसा भी क्यों न हो पर नित्य पसीना बहाने वाली और शरीर के प्रत्येक अंग में समुचित हलचल उत्पन्न करने वाली श्रम की नित्य नियमित प्रक्रिया बनी ही रहनी चाहिए। बुद्धिजीवी व्यक्तियों के लिए तो यह सब और भी अधिक आवश्यक है। जिनके पास पढ़ने लिखने का काम अधिक रहता है, उनकी जीवनी शक्ति पाचन यंत्रों से खिंचकर मस्तिष्क में लग जाती है इसलिए उनकी भूख घट जाती है और पाचन शिथिल पड़ जाता है। ऐसी दशा में उनके लिए यह और भी अधिक आवश्यक है कि अपने शारीरिक श्रम के लिए कोई न कोई व्यवस्था अवश्य ढूँढ़ निकालें।
व्यायाम सबके लिए आवश्यक
संतुलित व्यायाम की ओर हममें से प्रत्येक को ध्यान देना चाहिए। जिन्हें मेहनत मजदूरी करनी पड़ती है उनके हाथ तो पूरा काम करते रहते हैं पर कितने ही अवयव ऐसे रह जाते हैं जिनको आवश्यकता से कम ही श्रम करना पड़ता है। जिन्हें बैठे रहने का, लिखने पढ़ने का काम करना पड़ता है उनके लिए तो यह अनिवार्य है कि वे नियमित रूप से व्यायाम किया करें। साधारण श्रम और व्यवस्थित व्यायाम में एक बहुत बड़ा अन्तर मनोभावना का है। श्रम, श्रम के लिए किया जाता है। इसलिए इसमें व्यायाम या स्वास्थ्य अभिवर्द्धन की भावना नहीं रहती। इस भावना के अभाव में अंग−प्रत्यंगों का वह विकास नहीं होता जो होना चाहिए। लुहार दिन भर हथौड़ा चलाता है, कुली दिनभर माल ढोता है उनका परिश्रम किसी पहलवान अखाड़े में किये हुए व्यायाम से कम नहीं होता है। पर इन श्रम जीवियों के अंग−प्रत्यंग इतने विकसित नहीं होते जितने स्वास्थ्य वृद्धि का संकल्प लेकर नियमित व्यायाम करने वाले पहलवान के। पोस्टमैन दिनभर चिट्ठी बाँटने के लिए कितने ही मील का चक्कर लगाते हैं पर भावनापूर्वक एक दो मील स्वास्थ्य भावना को लेकर टहलने वालों के बराबर उन्हें लाभ नहीं होता। श्रम के साथ यदि स्वास्थ्य वृद्धि का संकल्प भी जुड़ा रहता है तो उसका प्रभाव सोना और सुगन्धि के समन्वय के समान असाधारण लाभदायक ही होता है।
हलके और संतुलित व्यायाम
श्रमजीवी लोगों के लिए भी आसन, प्राणायाम, टहलना, मालिश, सूर्य नमस्कार एवं संतुलित व्यायाम आवश्यक है। फिर बुद्धिजीवी लोगों के लिए तो उनकी नितान्त आवश्यकता है कम से कम एक घण्टे का समय इस दृष्टि से हर किसी को लगाना चाहिए। यह सोचना भूल है कि यह एक घण्टा बेकार चला जायेगा। इस थोड़े से समय को लगाने से शरीर की जो क्षमता एवं सामर्थ्य बढ़ेगी उससे कई शेष 23 घण्टे बहुत ही अच्छी तरह व्यतीत होंगे, ड्योढ़ा काम होगा और गहरी नींद आवेगी। बच्चे, बूढ़े, बीमार, कमजोर, महिलाऐं, गर्भवती, सभी के लिए ऐसे हलके और संतुलित व्यायाम हो सकते हैं जिनसे उनके दुर्बल शरीर पर अनावश्यक दबाव न पड़े और वे बिना किसी थकान का अनुभव किये स्फूर्ति शक्ति एवं ताजगी प्राप्त कर सकें। पहलवानों के लिए डण्ड बैठक, डंबल, मुदगर जैसे कठोर व्यायाम उपयोगी होते हैं पर स्वल्प सामर्थ्य वाले लोगों के लिए अथवा जिन्हें दिन भर कड़ी मेहनत करनी पड़ती है उनके लिए हलके व्यायामों की ही आवश्यकता है।
दुर्बलता और अस्वस्थता का एक इलाज व्यायाम भी है। सूर्य चिकित्सा, प्राण−चिकित्सा, जल चिकित्सा, औषधि−चिकित्सा की ही भाँति एक अत्यन्त उपयोगी प्रक्रिया व्यायाम−चिकित्सा भी है। यदि हमारे दैनिक जीवन में इसके लिए समुचित स्थान मिले तो न केवल कमजोरी सशक्तता में परिणत हो वरन् बीमारियों को हटाने और मिटाने में भी सहायता मिले। अशक्ति से अशक्त मनुष्य के लिए व्यायामों का उपचार हो सकता है और हर परिस्थिति का हर व्यक्ति उससे आशाजनक लाभ प्राप्त कर सकता है।