Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनी चिकित्सा आप स्वयं करें
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रोग हो जाने पर उसकी चिकित्सा चिकित्सकों के द्वारा कराई जा सकती है। उससे तात्कालिक कष्ट मिट भी सकता है पर स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं अभिवृद्धि की समस्या का हल किसी भी इलाज से नहीं हो सकता। इसके लिए तो अपना आहार विहार ही सुधारना होगा। यदि हमारा स्वास्थ्य गिर रहा हो तो उसे सुधारने के लिए चिकित्सकों की नहीं प्रकृति माता की शरण में जाना चाहिए। जिस माता के राज्य में कीट पतंग, पशु पक्षी सभी आनन्द की किलोल करते और निरोग जीवन व्यतीत करते हैं वह मनुष्य के प्रति अपनी कृपा में कंजूसी क्यों करेगी? बालक से माता तभी तक रुष्ट रहती है जब तक वह उद्दंडता बरतता है। उच्छृंखलता छोड़ते ही वह माता को पूर्ववत् ही प्राप्त करने लगता है। अपनी गतिविधियों में आवश्यक हेर−फेर किये बिना बिगड़े हुए स्वास्थ्य का सुधारा जाना संभव नहीं। औषधियों से यदि बिगड़े हुए स्वास्थ्य सुधर जाया करते तो सभी धनी लोग एक से एक बढ़कर हृष्ट−पुष्ट होते। जो जितने पैसे खर्च कर सकता वह उतनी ही अधिक औषधियाँ खरीद कर उतना ही अधिक बलवान बन जाता। तब गरीब मजदूरों को दुर्बल ही रहना पड़ता। पर प्रकृति ने यहाँ धन या वस्तुओं के आधार पर नहीं उचित संयम के आधार पर ही स्वास्थ्य की सुरक्षा का आधार रखा है। इसलिए हर एक को यह समझ लेना चाहिए कि यदि बिगड़े स्वास्थ्य को सुधारना है या सुधरे को बढ़ाना है तो उसका एकमात्र उपाय यही हो सकता है कि हम प्रकृति के नियमों का अधिकाधिक अनुसरण करें।
आत्म−निरीक्षण और आत्म−सुधार
आमतौर से मनुष्य को अपनी भूलें दिखाई नहीं पड़ती। दूसरों के दोष वह आसानी से ढूँढ़ सकता है पर अपनी कमियों की वह सदा उपेक्षा किया करता है। हम कहाँ चूक रहे हैं यह जानने के लिए आत्म−निरीक्षण एवं आत्म−चिन्तन की प्रवृत्ति जागृत करनी चाहिए। दोष दर्शन एवं आलोचना करने की कुशलता को यदि अपने ऊपर मनुष्य प्रयुक्त करने लगे तो कल्याण के सभी अवरुद्ध मार्ग खुल सकते हैं। अपनी भूलों को समझने और सुधारने के लिए जो प्रयत्नशील है उसे देर तक दुरावस्था से घिरा नहीं रहना पड़ सकता। यह सिद्धान्त जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में मनुष्य निश्चित रूप में आशाजनक उन्नति अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ के आधार पर कर सकता है। उसकी आन्तरिक दुर्बलताऐं रास्ता रोके रहती हैं। सबसे बड़ी बाधा यही है, यदि इसे हटाने के लिए कोई व्यक्ति समुद्यत हो जाय तो उसकी प्रगति का मार्ग हर दिशा में खुल सकता है। लोग परिस्थितियों को सुधारना चाहते हैं, इच्छानुकूल लाभ एवं अवसर उपलब्ध करना चाहते हैं पर इसके योग्य अपने आपको बनाने का प्रयत्न नहीं करते।
पात्र को ही उपयुक्त वस्तुऐं मिलने का नियम इस सृष्टि में अनादि काल से चला आ रहा है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। वर्षा का पानी सभी जगह समान रूप से बरसता है पर जहाँ जितना गहरा गड्ढा होता है वहाँ उतना जल जमा हो जाता है। पात्रत्व की वृद्धि के साथ−साथ विभूतियों की अभिवृद्धि का सनातन नियम अनादि काल की तरह अभी भी विद्यमान है, जो इस तथ्य को समझते हैं वे अपनी त्रुटियों और कमजोरियों को ढूँढ़ने एवं उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते हैं और इस कार्य में जितनी सफलता मिलती जाती है सफलता का लक्ष उतना ही निकट आ जाता है। आरोग्य की विभूति प्राप्त करने के लिए भी यही बात अक्षरशः लागू होती है जिनने अपनी भूलों को ढूँढ़ने की पैनी दृष्टि को अपनी समीक्षा में लगाया और देह को खोखला कर डालने वाली भीतर छिपी अपनी बुरी आदतों को ढूँढ़ निकाला, वे अपने चिकित्सक आप ही हैं। उनकी आत्म चिकित्सा कभी निष्फल नहीं जा सकती।
वस्तुस्थिति की जानकारी
हमें कुछ प्रश्न अपने आपसे उसी प्रकार पूछने चाहिये जिस प्रकार कोई सुयोग्य चिकित्सक अपने रोगी की स्थिति जानने के लिए उससे अनेकों प्रश्न करके बीमारी का निदान एवं वस्तुस्थिति को जानने के लिए करता है। हमें आपसे पूछना चाहिये कि—
(1) क्या हम केवल तीव्र भूख लगने पर ही खाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं करते कि भूख न लगी हो और आदत से लाचार होकर खाने बैठ जाते हैं।
(2) पहला भोजन अच्छी तरह पचने की प्रतीक्षा किये बिना क्या बीच−बीच में कुछ वस्तुऐं स्वाद के लिए तो नहीं खाते रहते हैं?
(3) पेट की गुंजाइश का आधा भाग भोजन के लिए, चौथाई पानी के लिए और चौथाई हवा के लिए खाली छोड़ने का नियम क्या हम ठीक तरह पालन करते हैं? कहीं आधे पेट से अधिक तो भोजन नहीं कर लेते? भोजन इतनी मात्रा में तो नहीं हो जाता जिससे आलस्य आने लगे?
(4) मुँह में गया हुआ प्रत्येक ग्रास क्या काफी चबाने के बाद ही उदरस्थ करते हैं? कहीं उसे पतली चीजों के सहारे जल्दी−जल्दी आधा कुचल करके ही तो नहीं निगल लेते?
(5) क्या आपके भोजन में अन्न की मात्रा आधे से अधिक रहती है।
(6) कहीं आप का भोजन माँस, मछली, पकवान, मिठाई, चटनी, अचार, मिर्च मसाले जैसे हानिकारक पदार्थों से भरा तो नहीं रहता?
(7) नशीली चीजों की आदत तो आपने नहीं डाल ली? चाय, तम्बाकू, पान की भरमार से कहीं आप अपना पाचन संस्थान नष्ट तो नहीं करते रहते?
(8) रात को जल्दी सोने और सवेरे जल्दी उठने का स्वर्ण नियम आप पालन करते हैं या नहीं?
(9) कहीं आपकी रोटी बेईमानी से कमाई हुई तो नहीं होती? आपको पता है न कि बिना परिश्रम की कमाई बीमारी बनकर फूटती है?
(10) शारीरिक परिश्रम की उपयोगिता आप भली प्रकार समझते हैं न? दिनभर में शरीर से इतना परिश्रम आप करते रहते हैं न जिससे थककर रात को गहरी नींद आवे?
(11) व्यायाम, आसन, सूर्य नमस्कार, व्यायाम, टहलना, मालिश आदि स्वास्थ्य सुधारने वाली क्रियाओं का आपके दैनिक जीवन में स्थान है न?
(12) गंदगी से आपको घृणा है न? अपने शरीर, वस्त्र, बिस्तर, घर, बर्तन रसोई आदि की सफाई का पूरा ध्यान रखते हैं न? अन्न, जल और साँस को ग्रहण करते हुए उसकी स्वच्छता की उपेक्षा तो नहीं करते? मुँह ढ़ककर तो नहीं सोते? एक ही थाली कटोरी में लोग मिलकर भोजन तो नहीं करते?
(13) ब्रह्मचर्य की मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं न? अश्लील बातों का चिन्तन तो नहीं करते रहते? कामोत्तेजक, संगीत, सिनेमा, वार्तालाप चित्र एवं साहित्य से दूर रहते हैं न?
(14) चिन्ता, शोक, क्रोध, आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, उत्तेजना, भय, आशंका, निराशा जैसे मनोविकारों ने आपको ग्रसित तो नहीं कर रखा है? समस्याओं को शान्त चित्त और धैर्य के साथ सुलझाने की अपेक्षा आपने हड़बड़ाने, क्षुब्य एवं किंकर्त्तव्य विमूढ़ होने की आदत तो नहीं डाल रखी है?
(15) आये दिन आप रूठे तो नहीं बैठे रहते? हँसने और मुस्कुराने की आदत को कहीं आपने छोड़ तो नहीं दिया है?
(16) सप्ताह में एक बार उपवास करके पेट को एक दिन की छुट्टी दिया करते हैं न?
(17) अपने सामर्थ्य से अधिक शारीरिक या मानसिक काम तो नहीं करते? आँखों को खराब करने और दिमाग को भन्ना देने जितनी मात्रा में आप पढ़ने−लिखने का काम तो नहीं करते? शारीरिक श्रम की मात्रा शक्ति से बाहर तो नहीं है?
(18) बात−बात में दवादारू की भरमार तो आप नहीं करते रहते? तीव्र औषधियों के अधिक सेवन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का आपको ज्ञान है न?
(19) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करते हैं न? उपासना के लिए आपने अपने दैनिक कार्य−क्रम में कोई समय नियत रखा है न?
यह उन्नीस प्रश्न अपने आप से पूछने चाहिए और उनका उत्तर प्राप्त करके अपने रोग के मूल कारणों को स्वयं ही तलाश करना चाहिए। रोग का सही निदान आधा इलाज ही जाना माना जाता है। अस्वास्थ्यकर कारणों को हटा देना चिकित्सा का प्रधान अंग है। इस मानी से अपना अधिकाँश इलाज हम स्वयं कर सकते हैं। शेष जो तात्कालिक उपचार बच रहा उसे किसी भी विवेकशील चिकित्सक की थोड़ी सी सहायता में दूर हटाया जा सकता है। वस्तुतः अपने सर्वोत्तम चिकित्सक हम स्वयं हो सकते हैं।