Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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समाज को शक्तिशाली बनावें
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मानव जीवन की समृद्धि विकास कल्याण उसके व्यष्टि से समष्टि की ओर, आत्मा से परमात्मा की ओर, द्वैत से अद्वैत की ओर विस्तीर्ण होने में ही सन्निहित है। “यो वे भूमा तत्सुखम्” भूमा में अनन्त में विस्तार पाना ही सुख है और यह विस्तार जब इतना व्यापक हो जाता है कि मनुष्य के सभी द्वैत-द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं तब वह स्वयं भी अद्वैत बन जाता है। ऐसी स्थिति में सब उसके और वह सबका बन जाता है। व्यक्तिवाद, स्वार्थपरता अपना-परायापन का मतलब है संकीर्णता, सीमितता और इसका परिणाम है असुरक्षा, अशाँति, दुःख। समत्व, ऐक्य, अद्वैत का अर्थ है इसी भाँति सुख शाँति और समृद्धि। इसीलिए जीवन दर्शन के आचार्य ऋषि ने मनुष्य को समष्टिगत जीवन बिताने का निर्देश दिया है।
अद्वैत की, एकता की ऐसी महान भावना ही हमारे जीवन की मूल आधार शिला है। भारतीय धर्म, दर्शन, समाज व्यवस्था, संस्कृति की मूल प्रेरणा यही अद्वैत की भूमा में विस्तृत होने की विशाल भावना रही है।
धरती पर जीवन की बनावट ही कुछ ऐसी है कि वह अपने आप में सिमट कर नहीं रह सकता। सम्पूर्ण समाज सृष्टि से वह प्रभावित होता है, और उससे सम्पूर्ण समाज। जिस तरह श्वास प्रश्वास का सम्बन्ध विश्वव्यापी वायु तत्व से जुड़ा हुआ है उसी तरह से मनुष्य का जीवन समष्टि के साथ जुड़ा हुआ है। और वह स्वयं भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने आस-पास की दुनिया को प्रभावित करता है। इस तरह व्यक्ति का विकास समष्टि के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। वह जितना इस कड़ी को मजबूत करेगा उतना ही वह अपने और समाज के जीवन को समृद्ध, विकसित करेगा। मनुष्य जितना अपने जीवन को समष्टि के साथ व्यापक बनाता जाता है वह उतनी ही उच्च कक्षा में प्रवेश करता है। महानता की सीढ़ी पर पैर रखता है।
आस पास का क्षेत्र का-जिसे समाज कहा जाता है- हमारे व्यक्तित्व के विकास में बहुत बड़ा हाथ होता है। इसलिए प्रतिदान स्वरूप मनुष्य का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह उस संस्थान को अधिकाधिक समर्थ और समृद्ध बनावें ताकि वह व्यक्ति के निर्माण एवं विकास में अपना पूरा-पूरा हक निभा सके।
अपने स्वार्थ, अपनी ही मान्यताओं, अपने ही लाभ में आसक्त रहने वाला मनुष्य समाज को तो कमजोर करता ही है साथ ही अपनी प्रगति में भी बाधक बनता है। वह स्वयं अपनी ही परिधि में गिरफ्तार रह कर समाज के साधनों से लाभ नहीं उठा पाता इसलिए पिछड़ जाता है, अविकसित रह जाता है। इसीलिए व्यक्तिवादी स्वार्थमयी भावना का विरोध करते हुए ऋषि ने कहा था :-
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः
सत्यं ब्रवीमि वधदूतसतस्य।
न अर्यमणं पुष्यति नो सखायं
केवलाघो भवति केवलादी॥
“संकीर्ण मनोवृत्ति वाले के पास धन राशि व्यर्थ है। अपने ही घर में उसने यह अन्न इकट्ठा नहीं किया है वरन् अपनी मृत्यु को ही एकत्र किया है। जो अपने भाई बहन को नहीं देता, योग्य व्यक्तियों को नहीं देता और अपना ही ध्यान रखता है वह पाप रूप है।”
समाज को अभावग्रस्त देखकर भी हम अपना घर भर रखें, तो यह अपनी मौत को निमन्त्रण देना है क्योंकि दुर्बल समाज हमारी रक्षा नहीं कर सकता। इसके साथ ही एक न एक दिन समाज के कोप का भी भाजन बनना पड़ेगा। ऐसे स्वार्थी लोगों को दूसरों का सहयोग आत्मीयता मिलना तो असम्भव ही है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अपने समाज के हित में अपना हित समझा जाय, उसकी समृद्धि विकास में ही मनुष्य का विकास निहित है।
समष्टि में विस्तार पाने के लिए सर्व प्रथम आवश्यकता है सामूहिकता की भावना की। हमारा दृष्टिकोण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने पर से प्रेरित न होकर समष्टिगत हो। हम जो भी करें उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ेगा यह विचार करना आवश्यक है। इस तरह के सभी प्रयत्न त्याज्य हैं जिनमें हम अपने लाभ की साधना से समाज के हितों को नुकसान पहुँचाते हों। समाज में जहाँ अन्य लोगों को सरलता से पेट भरने को अन्न न मिले और हम अपने भण्डारों में अन्न संग्रहीत करें, समाज के बहुत बड़े वर्ग को जहाँ रोटी, कपड़ा, आवश्यक शिक्षा, चिकित्सा आदि की व्यवस्था न हो और हम अपने लिए कोठी बंगले, आमोद-प्रमोद के साजो सरंजाम एकत्र करें तो यह ऋषियों की भाषा में पाप होगा। किसी भी स्थिति में हमें उन कार्यों से बचना चाहिए जिससे अपने लाभ के लिए सम्पूर्ण समाज का ही अहित कर रहे हों।
हमारे समाज शिल्पी ऋषियों ने स्थान-स्थान पर हमें आदेश देते हुए कहा है “संगच्छध्वम् सम्बदघ्वम्” तुम्हारी गति और वाणी में एकता हो। “समानी प्रया सहवोऽन्नाभागः”। तुम्हारे खाने पीने के स्थान व भाग एक जैसे हों। “समानो मंत्रः समिति समानी।” तुम्हारी सभा समितियाँ एक समान हों और तुम्हारे विचारों में सामञ्जस्य एकरूपता हो। “समानी व आकूतिः समानो हृदयानियः”। तुम्हारे हृदय के संकल्प भावनायें एक सी हों। सामूहिक जीवन की समृद्धि के लिए समाज के विकास के लिए हम सब में एकता समानता की भावना का होना आवश्यक है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सब में बन्धुत्व की भावना का उदय हो। वेद में कहा भी गया है।
“अज्येष्ठासोऽकनिष्ठाराः सं भ्रातरो वावृधु सौभगाय” हम सब प्रभु की संतान एक दूसरे के भाई भाई हैं। हम में न कोई छोटा है न कोई बड़ा। हम सब एक हैं, ऐसी उत्कृष्ट भावना का होना समाज की समृद्धि के लिए आवश्यक है। रुद्र सूक्त का प्रणेता ऋषि तो समाज की सेवा करने वालों को भी नमस्कार करता हुआ कहता है “चर्मकारेभ्यो नमो, स्थकारेभ्यो नमो, कुलालेभ्यो नमो।” अरे चमार तुझे नमस्कार है, बढ़ई तुझे नमस्कार है, कुम्हार तुझे नमस्कार है।” ऋषि किसी को भी अस्पृश्य नहीं मानता वरन् वह समाज की किसी भी रूप में कर्म करके पूजा करने वाले को वन्दनीय समझता है। इतना ही नहीं वह तो पतितों को भी नमस्कार करता है “स्ते ना वाँ पतये नमो।” चोरों और चोरों के नायकों को भी प्रणाम करता है ऋषि। क्यों ? आखिर चोर भी तो समाज के अंग हैं, मनुष्य हैं। और सामाजिक कारणों से ही वह चोर बनता है। ऋषि पागल नहीं थे वे अद्वैत के द्रष्टा थे, उन्होंने इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। इसीलिए तो वाल्मीकि जैसे डाकू में भी उन्होंने तनिक से संपर्क मात्र से उसके ऋषि तत्व को जगा दिया था।
जहाँ सामूहिकता, अद्वैत की भावना नहीं रहती मनुष्य में अपना और परायापन का भाव आ जाता है, वही संघर्ष छीना झपटी द्वेष दुर्भावनाओं को प्रोत्साहन मिलता है। वहाँ अनेकों अवाँछित तत्व पैदा हो जाते हैं। क्रान्ति का उदय भी इसी से होता है। और इन परिस्थितियों में समाज को अशाँति के दौर से गुजरना पड़ता है, फिर वे लोग जो अपने लिए ही संग्रह करके रखते है उनका भी अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। बहुधा उन्हें समाज के कोप का भाजन बनना पड़ता है।
किसी भी रूप में विषमतायें, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, अपने पराये की भावनायें सामाजिक जीवन के लिए भयंकर विष हैं। और यह भी निश्चित है कि इनके रहते कोई भी समाज सुरक्षा, शाँति, समृद्धि की ओर अग्रसर नहीं हो सकता।
हम अपने और समाज के बीच इन विषमताओं को जितना हटाते जाएंगे, जितना हम समाज के साथ घुलते जाएंगे उतना ही समाज शक्तिशाली समर्थ बनेगा। और वह हमारे विश्वास-समृद्धि में अपना पूरा-पूरा योगदान दे सकेगा। समाज को अपना कुटुम्ब मानकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को जगाना होगा, तब सबके सुख में हमारा सुख होगा, सबके हित में हमारा हित होगा।