Magazine - Year 1964 - Version 2
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समुद्रतरणे यद्वदुपायो नौः प्रकीर्तिता।
संसारतरणे तद्वद् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम्॥
जैसे विशाल जलाशय, समुद्र को पार करने के लिए नौका ही एकमात्र साधन, उपाय है उसी प्रकार इस संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए ब्रह्मचर्य रूपी नौका ही श्रेष्ठ उपाय है।
यह मुकदमा सेशन जज की अदालत में एक वर्ष तक चला। देशबन्धु चितरञ्जनदास की योग्यता और परिश्रम से अरविन्द इस मुकदमे से छूट गये। पीछे हाईकोर्ट ने हाथ मलते हुए अपने फैसले में लिखा —’प्रमुख अपराधी और षड्यंत्रकारी तो इस मुकदमे में अरविन्द घोष थे जिन्हें पहले ही मुक्त कर दिया गया।’
जेल में उन्हें एकान्त काल कोठरी में रखा गया, जिसका अनुभव वर्णन करते हुए उनने लिखा है— एकान्त में रहने वाला या तो सन्त बन जाता है या फिर पूरा शठ हो जाता है।” इनके इस कथन की सचाई भारत में जहाँ-तहाँ फैले एकान्तवासी ‘शठों’ के रूप में प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। पर वे स्वयं तो सन्त ही बने। जेल से लौटकर उनकी प्रवृत्ति साधना की ओर मुड़ी। उन्हें लगा कि उथले व्यक्तित्व, बुद्धि कौशल और शारीरिक धमा चौकड़ी मात्र से कोई बड़ा काम नहीं कर सकते। बड़ा काम आत्मबल द्वारा ही सम्पन्न होता है और आत्मबल की प्राप्ति के लिए आत्म-चिन्तन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास आवश्यक हैं। ‘व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व समष्टि की सत्ता में समर्पित करना चाहिए।’ इस लक्ष्य को लेकर वे पाण्डिचेरी गये और व्यक्ति गत स्वार्थ के लिए नहीं, विश्व-मानव के पुनरुत्थान के लिए वैसा ही तप करने लगे जैसा कि भगीरथ ने गंगा को लाने के लिए किया था। वे भारत भूमि में आध्यात्म की ऐसी ज्ञान गंगा का अवतरण करना चाहते थे जो मानव-जाति के समस्त कषाय कल्मषों को धोकर शुद्ध कर सके। उनने अपने लक्ष्य के प्रति आस्था प्रकट करते हुए कहा है— भारत ही विश्व का नेतृत्व करेगा। यहाँ की आध्यात्म विचारधारा विकसित होकर समस्त संसार को सुख-शान्ति का सन्देश देगी और मानव-जाति का उसी से कल्याण होगा।
महायोगी अरविन्द मद्रास से 112 मील दूर समुद्र तट पर अवस्थित पाण्डिचेरी नामक स्थान में लम्बी अवधि तक आध्यात्म साधन में निरत रहे। उनके सान्निध्य में पहुँचकर सहस्रों विद्यार्थियों ने नया प्रकाश पाया। 5 दिसम्बर 1950 को 78 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। उनका सारा जीवन महा मानवता की साधना में ही व्यतीत हुआ। स्वतंत्रता सैनिक के रूप में भी और ज्ञान गंगा के अवतरण में संलग्न तपस्वी के रूप में वे एक ही लक्ष्य में निरन्तर लगे रहे। भारत माता अपने अरविन्द जैसे सच्चे सपूतों पर ही गर्व कर सकती है, ऐसे लोगों को जन्म देने से ही उसका गौरव बढ़ सकता है।