Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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कुरूप और फिसड्डी-ईसप
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अब से कुछ ही शताब्दी पहले ऐसा भी समय था जब मनुष्यों को पशुओं की तरह खरीदा-बेचा, मारा-पीटा और मनमाना काम लिया जाता था। उन्हें अपनी मर्जी से कुछ भी करने की छूट न थी। पूरी तरह उन्हें अपने मालिकों की इच्छा पर निर्भर रहना था। मालिक चाहे तो उनको मार भी डाल सकते थे। कोई राजा दूसरे राज्य पर आक्रमण करता तो वहाँ की प्रजा का धन लूटने के अतिरिक्त युवा पुरुषों या नारियों को भी पकड़ कर अपने यहाँ ले जाता और उन्हें दास-दासी बना कर लाभ उठाता। जो फालतू होते उन्हें सामान्य नागरिक खरीद लेते और घोड़े गधे जैसा काम लेते। मनुष्य द्वारा मनुष्य का इस प्रकार उत्पीड़न करना आज के युग में बुरा माना जाता है पर एक समय यह सब भी उचित मान लिया गया था। जिसके पास जितने गुलाम होते वह उतना ही बड़ा आदमी माना जाता।
अन्य देशों की तरह यूनान में भी दास-प्रथा सामाजिक जीवन का एक अंग बनी हुई थी। वहाँ का एक व्यापारी जो गुलामों के खरीदने बेचने का ही व्यापार करता था, एक बार एक ऐसा गुलाम पकड़ लाया जो दुबला-पतला होने के साथ-साथ बहुत कुरूप भी था। झुण्ड के और सब गुलाम तो बिक गये पर तीन रद्दी किस्म के बच गये। इनमें सब से फिसड्डी समझा जाने वाला कुरूप “ईसप” था। व्यापारी चाहता था कि कोई इन दोनों गुलामों को खरीद ले तो फिसड्डी ईसप को उसे मुफ्त में ही दे दूँ।
यूनान के एक दार्शनिक को एक गुलाम की जरूरत थी। वे हाट में पहुँचे और सस्ती कीमत का माल ढूँढ़ने लगे। मिट्टी की हाँडी ठोक बजा कर ली जाती है तो बिना परखे गुलाम कौन खरीदता? उसने एक प्रश्न पूछा तुम लोग क्या काम कर सकते हो? तो रद्दी गुलाम अपने मालिक के सिखाये हुए शब्द रटे बैठे थे, एक ने कहा—’कुछ भी’। दूसरे ने कहा—’सब कुछ।’ अब मुफ्त में मिलने वाले फिसड्डी ईसप ने कहा— महोदय जब हम तीन में से एक सब कुछ कर सकता है और दूसरा कुछ भी कर लेगा, तो फिर मेरे लिए काम बचता ही क्या है?
दार्शनिक को फिसड्डी ईसप की तर्कपूर्ण बात बहुत रु ची और उनने उससे और भी कई प्रश्न पूछे जिनका उत्तर उस ने एक तार्किक और विचारक की भाँति ही दिया। दार्शनिक ने उसे खरीद लिया और रस्से में बाँध कर घर ले आया। ईसप रास्ते भर सोचता आया कि किसी दार्शनिक के यहाँ रहने पर सम्भवतः उसे कुछ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार मिलेगा। पर जैसे ही वह घर के दरवाजे पर पहुँचे उसका दुर्भाग्य मालकिन ने ऐसा कुरूप आदमी अब तक नहीं देखा था। उनने कहा—बाजार में क्या सारे गुलाम मिट गये थे। इस जंगली जानवर को घर में रखना हो तो फिर मुझे ही यहाँ से निकलना पड़ेगा।
इन विषम परिस्थितियों में ईसप निराश न हुआ। उसने अपनी मधुर वाणी, शिष्ट व्यवहार, वफादारी और जिम्मेदारी जैसी अच्छाइयों को बढ़ाया और कुछ ही दिनों में मालकिन को इतना संतुष्ट कर लिया कि वे उससे सज्जनता का व्यवहार करतीं। दार्शनिक महोदय तो इस गुलाम की प्रशंसा करते हुए उसे अपना मित्र कहने में भी संकोच न करने लगे।
दूसरे गुलाम जब कि निराश एवं खिन्न रहते हुए दुर्भाग्य का रोना रोते हुए दिन काटते थे, ईसप अपने बचे हुये समय को कुछ सीखने और सोचने में लगाता। उसने छोटी-छोटी अनेक कहानियाँ गढ़ डालीं। मनोयोग और रुचि पूर्ण कहने और सुनाने की शैली भी बड़ी मधुर हो गई। पास-पड़ोस के बच्चे उससे कहानियाँ सुनने आते। चर्चा बड़ों तक फैली। दूर-दूर के लोग, विशेषतया शिक्षक उसके पास आते और उन गढ़ी हुई कहानियों को नोट कर के ले जाते। वे लघु कथाएं इतनी सुन्दर, आकर्षक और नीति धर्म का प्रतिपादन करने वाली होतीं कि सुनने वाले को अन्य बहुमूल्य निष्कर्षों पर पहुँचने में सुविधा होती। धीरे-धीरे ईसप की कही कथाएँ एक से दूसरे के—दूसरे से तीसरे के कानों में पहुँचती हुई यूनान भर में फैलने लगीं। भारत में ‘हितोपदेश’ तथा “पंच-तत्र की कथाएँ” जैसे आदरपूर्वक कहीं सुनी जाती हैं, इसी तरह उस देश में ईसप की कहानियाँ-लोक व्यवहार एवं सदाचार सिखाने के लिए प्रयुक्त होने लगी।
दिन भर कठोर श्रम, बदले में रूखा-सूखा भोजन, फटा-टूटा कपड़ा, चटाई पर सोना और तिरस्कृत जीवन। विधि की इस विडंबना पर भी ईसप झल्लाया नहीं वरन् यही सोचता रहा कि ऊँचे पहाड़ों की चोटी पर चट्टानों के बीच जब पेड़ पौधे उग और बढ़ सकते हैं तो मैं भी इन कठिनाइयों के बीच रहते हुए प्रगति के लिए कुछ तो कर ही सकता हूँ। परिस्थितियाँ शरीर को ही तो बँधे रह सकती हैं। मन को विकसित कर सकना तो तब भी मेरे हाथ में रह ही जाता है। जितना अवसर प्राप्त है उसी से लाभ क्यों न उठाऊँ। छुट्टी की घड़ियों को वह पढ़ने में लगाया करता और शरीर से काम करते हुए भी वह मन को विभिन्न विषयों के संबंध में विचारने में लगाया करता।
कुरूपता को उसकी सज्जनता ने ढक दिया। शरीर से दुबला और देखने में फिसड्डी लगने वाला अपने अध्यवसाय के बल पर उस स्थिति में भी अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाता चला गया। उसकी शिक्षा बढ़ती गई और चतुरता भी। एक दिन उस दार्शनिक को कोई ताम्र पत्र मिला जिसमें पुरानी भाषा में कहीं छिपे हुए धन का संकेत था। पर भाषा और लिपि की अस्पष्टता से उसका तात्पर्य ठीक से निकल न रहा था। ईसप ने अपने मालिक से कहा- यदि उसे गुलामी से मुक्त कर दें तो वह इसका सही अर्थ निकाल सकता है। मालिक ने शर्त मान ली। ईसप ने सही अर्थ निकाल दिया और उन्हें गढ़े धन का भारी लाभ हुआ। फिर भी उसने अपने वचन का पालन न किया। इस लोभ से कि ईसप से अभी और भी लाभ उठाये जा सकते हैं, वे अपनी बात से मुकर गये और ईसप गुलाम का गुलाम ही बना रहा। फिर भी उसकी प्रतिभा बादलों में ढके सूर्य की किरणों की तरह फैलती ही गई।
एक बार यूनान के राज-दरबार में कोई बहुत ही पेचीदा प्रश्न उपस्थित हुआ और उसे हल करने के लिए देश के प्रमुख विद्वान बुलाये गये। कोई भी समस्या का सही हल न सोच सका, तब ईसप के बारे में फैली हुई जन श्रुति की परीक्षा करने के लिए उस गुलाम को राज्य सभा में बुलाया गया। उसने जो हल बताये उनसे दरबार में सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए। राजा ने उसे गुलामी से मुक्त करा दिया और उसकी राज्य सभा में परामर्शदाता की तरह नियुक्ति कर दी।
लीडिया के राजा क्रूसस ने यूनान पर चढ़ाई कर दी। आक्रमण की शक्ति इतनी प्रबल थी कि यूनान लड़खड़ा गया। शत्रु से संधि करने की आवश्यकता अनुभव की गई और यह कार्य ईसप के जिम्मे किया गया। दूत बन कर जब वह कुरूप व्यक्ति क्रूसस के पास पहुँचा तो उसने घृणा से मुँह फेर लिया और बात करने से इनकार कर दिया। ईसप ने नम्रता पूर्वक कहा—सचमुच मैं बहुत कुरूप हूँ और इसी योग्य हूँ कि आप जैसे श्रीमान मुझे देख कर अपनी प्रसन्नता नष्ट न करें। आप मुँह फेरे रहें पर कृपा कर मुझे एक छोटी कहानी कह लेने की आज्ञा दे दें। इतने पर संतुष्ट होकर मैं वापिस लौट जाऊँगा। राजा ने उसकी बात मान ली। ईसप ने एक गरीब चिड़िया की कहानी इतने मार्मिक ढंग से कही कि क्रूसस पिघल गया और उसने उससे घुल-मिल कर बातें कीं और अन्त में एक अच्छी संधि का मसौदा बन कर तैयार हो गया।
ईसप की इस सफलता से उसकी प्रतिष्ठा और बढ़ी। पर राज दरबार के लोग यह नहीं चाहते थे कि