Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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पुस्तकालय को प्रणाम (Kavita)
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ये किताबें, या कहानी हैं करुण अनगिनत मानव-हृदय की मूक-सी।
ओह! कितनी साध है इनमें छिपी, सोचकर, उठती हृदय में हूक-सी॥
महाजग में, एक जो असहाय-सा, जानवर, कहते जिसे इन्सान हैं।
उसकी सारी बेवकूफी के जमा, इसमें इक से इक अजीब बयान हैं॥
किस तरह, पेड़ों की डाली छोड़कर, गगन-चुम्बी भवन में रहने लगा।
छोड़कर वह चाल बन मानुस की फिर, कैसे वायु-विमान में उड़ने लगा॥
किस तरह उसने खुदा पहिचान कर, खूँ बहाया फिर खुदा के नाम पर ।
और कैसे मर मिटा वह चाव से, बुजर्गों के स्वर्ग से प्रिय धाम पर ।
मैं दबा- सा जाता हूँ, इस ढेर में जो हिमालय -का -सा आलीशान है।
दिल मेरा धक-धक धड़कता सोचता, पुस्तकालय! क्या अनोखी शान है॥
इसमें गौतम की दया, गाँधी का सत, क्षमा ईसा की, मुहम्मद का ईमान।
साधना जरथुस्त्र की, कन्फ्यूशियस की अमर उपदेश-माला का वितान॥डडडडडड;
पुस्तकालय! क्या नहीं तुझमें बता, सब ही तीरथ तुझमें हैं, मेरे लिए।
तुझमें वृंदावन है मीरा का छिपा, जगमगाते तुझमें ‘जौहर’ के दिए॥
तुझमें प्याला विषभरा, सुकरात का, तुझमें सूली ‘अनलहक’ की तान की ।
तेरे दामन में कहीं हैं ‘हल्दीघाट’ और ‘थरमापली’ भी यूनान की॥
कि तने ही ‘परताप’ ‘लिओनिडाज’ हैं, कितने ही ‘अर्जुन’ और ‘सीजर’ हैं छिपे।
कौन-सा है दीप जगमग ज्योति से, जो न इस जागृत दिवाली में दिपे।
है इसी में, आदि कवि की गुरु गिरा, है इसी में प्रतिमा कालीदास की।
हैं इसी में ‘सूरके शर’, भी इसी में, अमर -वाणी सन्त तुलसीदास की॥
इसमें मिल सकते हमें श्री प्रेमचन्द, गोरकी, हयूगो तथा हैं टाल्स्टाय।
जिसका चरचा था किया, ‘खय्याम’ ने, है वही यह ‘कारवानों की सराय।
भारती के भव्य मन्दिर! हे महान! कावे! विद्याप्रेमियों के पाक नाम!’
जगत की जागृति के हे जेरूसलम! इसलिए है प्रेम से तुझको प्रणाम॥
लक्ष्मण त्रिपाठी
*समाप्त*