Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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सदा शुभ ही सोचिये, अशुभ नहीं!
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संसार में असंख्यों ऐसे उदाहरण पाये जाते हैं कि समान साधनों वाले दो व्यक्तियों में से एक उन्नत और महान् बन जाता है और दूसरा यथास्थान एड़ियाँ घिसता हुआ मरा करता है।
साधारणतया लोग ऐसी विषमताओं को भाग्य कहकर सन्तोष कर लेते हैं। इसके वास्तविक रहस्य को समझने का प्रयत्न नहीं करते। किसी बात को केवल भाग्य कहकर टाल देना और उसके कारणों की खोज न करना मनुष्य जैसे बौद्धिक प्राणी के लिए शोभनीय नहीं। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धि दी ही इसलिए है कि वह किसी बात पर ठीक-ठीक विचार करके उसका निष्कर्ष निकाले और परिणामों से पूरा-पूरा लाभ उठायें।
किसी का भाग्य कोई पूर्व निर्धारित नियति नहीं है और न वह कोई ऐसा ईश्वरीय विधान ही है, जो पहले से लिख दिया जाता हो, जिसके अनुसार सफलता असफलता, उत्थान-पतन अथवा सुख-दुःख की प्राप्ति होती हो।
अविचारकों एवं अकर्मकों ने विधि-विधान के अर्थ में जिस विषय को भाग्य की संज्ञा दे रखी है, वह वस्तुतः मनुष्य के कर्म-कौशल का प्रमाण-पत्र है, जो यह प्रकट किया करता है कि उसने क्या, कितना और कैसे किया? उसकी योग्यता, कार्य और कर्मठता में कितना सामंजस्य है?
सफलता-असफलता, उन्नति और अवनति हानि और लाभ, सुख और दुःख आदि मानव-जीवन के जो भी संयोग हैं, वे उसके व्यक्तित्व की क्षमता पर निर्भर करते हैं। जिसने जिस अनुपात से अनुकूल और जिसने अपने व्यक्तित्व को जितना निकृष्ट, निर्बल और निस्तेज बनाया हुआ है वह उसकी प्रतिकूल सम्भावनाओं का भागी बनता है।
जीवन में अभ्युदय पाने, ऊँचे उठने और सौभाग्यपूर्ण सफलताओं का वरण करने के लिए मनुष्य को अपना व्यक्तित्व पूर्ण, परिष्कृत एवं प्रतिभावान बनाना ही होगा !
मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण बाह्य परिस्थितियों पर उतना निर्भर नहीं करता, जितना कि अपने प्रति उसके निजी दृष्टिकोण पर। जो व्यक्ति अपने प्रति जिस प्रकार की धारणा रखता है, वह उसी प्रकार का बन जाता है।
आत्मा में एक ऐसी शक्ति निवास करती है जो मनुष्य के विचारों को अपने स्मृति-पट पर अंकित कर लेती है और जीवन के समस्त तत्वों को उन्हीं के अनुसार बनाती बिगाड़ती रहती है। अपने प्रति क्षुद्र विचार रखने, अपनी योग्यताओं, क्षमताओं और कुशलताओं में अविश्वास करने से मनुष्य की आत्म-शक्ति बिना किसी संशोधन, सुधार अथवा हेर-फेर के उन विचारों को शरीर के प्रत्येक अणु-परमाणु के पास प्रेषित कर उन्हें वैसा ही नगण्य एवं निष्क्रिय बन जाने का आदेश देती है, जिसके फलस्वरूप वे वैसे ही बन जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व हीन एवं हेय बन जाता है।
यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई कितना ही बलवान्, तेजस्वी और स्वस्थ क्यों न हो, यदि प्रतिदिन दो-चार आदमी उससे यह कहते रहें कि तुम तो बड़े ही निर्बल, मलीन और अस्वस्थ दिखाई देते हो तो कुछ ही समय में वह वैसा बन जायेगा।
इस प्रकार के निराशापूर्ण संकेतों की निरन्तर पुनरुक्ति से किसी भी प्रकार के मन में पहले सन्देह उत्पन्न होता है- ‘क्या वास्तव में वह वैसा ही है’ और उसी दृष्टिकोण से निरीक्षण करने के कारण अपने को कुछ-कुछ उसी प्रकार का देखने भी लगता है। ऐसी दशा में एक ओर उसका सन्देह विश्वास में बदलने लगता है और दूसरी ओर चिन्ता के कारण उसका शारीरिक एवं मानसिक पतन प्रारम्भ हो जाता है। जिससे ‘अन्ततो गत्वा’ वह बिल्कुल निस्तेज, निर्बल और रोगी हो जाता है।
झूँठे संकेतों, काल्पनिक भयों और निर्मूल शंकाओं के कारण संसार में न जाने कितने व्यक्ति नित्य मरते और बीमार होते रहते हैं। धूर्त भविष्यवक्ता कितने ही भोले-भाले व्यक्तियों को ग्रह-नक्षत्रों, भाग्य-दुर्भाग्य और अशुभ अनिष्टों की झूँठी सूचनायें दे-देकर, भयभीत करते और ठगते रहते हैं।
इस प्रकार जब दूसरों के झूठ-मूठ बहकाने और कहने भर से आदमी प्रभावित होकर वैसा बन जाता है तब अपने प्रति मनुष्य की धारणा कितनी प्रभावपूर्ण होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अन्य व्यक्ति तो कभी समय, अवसर आने पर अपना विचार व्यक्त कर पाते हैं, किन्तु अपने प्रति अपनी धारणा तो हर समय काम करती है। फिर भला उसके अनुसार बनने में कितना समय लगेगा?
यदि हम अपने प्रति इस प्रकार के विचार करते हैं कि हम निहायत निकम्मे, नालायक और किसी काम के योग्य नहीं हैं, तो हमारी आत्म-शक्ति हमारे मन मस्तिष्क एवं शरीर के समस्त तत्वों को उसी प्रकार का बना देगी जिसके फलस्वरूप हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही नगण्य एवं हेय हो जायेगा। मनुष्य के शक्ति -तत्व यन्त्र की भाँति आज्ञाकारी और छुई-मुई की तरह संवेदनशील होते हैं। क्षुद्रता की सूचना पाते ही वे शिथिल और प्रोत्साहन पाते ही विकसित हो उठते हैं।
मनुष्य के विचारों में एक आकर्षण-शक्ति भी होती है; जिसके द्वारा वह वायु-मण्डल में फैले सजातीय विचारों का प्रभाव भी खींच लेते हैं। अपने प्रति दीनता, हीनता निरुपायता, निष्क्रियता, विवशता आदि का विचार बनाते ही वायुमण्डल में बिखरे हुए हेयता के सारे तत्व आकर्षित होकर आप में इकट्ठे हो जायेंगे, जिनके दबाव से आपकी शक्तियाँ कुचल कर नष्ट हो जायेंगी और आप जीवन में किसी काम के न रहेंगे।
निरन्तर चिन्तन एक प्रकार की उपासना ही होती है। जिस देवता की चिन्तन द्वारा निरन्तर उपासना की जाती है, वह प्रसन्न होकर अपने अनुरूप वरदान करता है। यदि आप अपने क्षुद्र विचारों का निरन्तर चिन्तन करते रहेंगे तो अवश्य ही आपको क्षुद्रता की सिद्धि होगी और अनचाहे भी वह आपके जीवन में बस जायेगी।
इसके विपरीत जब मनुष्य अपने प्रति शुभ विचार रखता है और निरन्तर उसी दिशा में सोचता रहता है, वह एक दिन अवश्य शिवं का अधिकारी बनता है। अपने को सशक्त समर्थ, होनहार तथा भाग्यवान समझने और उसका संकेत आत्मा को देते रहने से वह आपके शक्तितत्त्वों को उसी प्रकार प्रेरित करती और गढ़ती रहती है। यही कारण है कि किसी के विकास में प्रोत्साहन, सराहना एवं प्रशंसा का बहुत गहरा महत्व है।
देखा जाता है कि कमजोर से कमजोर बच्चे प्रोत्साहन और शुभ सूचनायें पाकर बड़े ही कुशाग्र बुद्धि और होनहार बन जाते हैं। प्रोत्साहन पाकर हारती हुई सेनायें जीत जाती हैं, साहस बँधाने से डूबते हुए व्यक्ति किनारे लग जाते हैं और आशा का सम्बल देने से मरणासन्न रोगी जी उठते हैं।
अभ्युदय, समुन्नति एवं आत्म-कल्याण चाहने वाले को चाहिए कि वह अपने प्रति कभी कोई हीन भावना न बनाये, अपने को पस्तहिम्मत न करें। इस प्रकार कभी न सोचे कि वह तो कमजोर है, साधनहीन है, संसार में क्या कर सकता है। इसके विपरीत उसे इस प्रकार के महान और कल्याणकारी विचार रखने चाहिये कि वह सर्वशक्ति मान परमात्मा का अंश है, उसमें उस परमात्मा के सारे तत्व उसी प्रकार विद्यमान् हैं, जिस प्रकार एक अंजलि जल में समुद्र के अनन्त जल के सम्पूर्ण तत्व समाये रहते हैं। वह संसार के हर काम को करने की क्षमता रखता है। निराशा, पस्तहिम्मती उसके पास नहीं आते उसकी आत्मा उसकी मित्र है। संसार में वह महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए भेजा गया है, इसके लिए उसे आवश्यक शक्तियाँ भी दी गई हैं। अपने अन्दर की इन्हीं शक्तियों के आधार पर वह वे सारे कार्य सम्पादित कर दिखायेगा। वह अवश्य सफल होगा और शीघ्र ही अभ्युदय प्राप्त करेगा !
इस प्रकार के आशापूर्ण विचार रखने और तदनुसार उसकी सूचना आत्मा को देते रहने से वह उसकी शक्ति इसी भावना के अनुसार गढ़ देगी और तब आत्मा का शक्ति तत्व इसी के अनुसार महान और तेजस्वी बन जायेगा और फिर आपके अभ्युदय का मार्ग संसार का कोई भी अवरोध नहीं रोक पायेगा!
सदा शुभ सोचो शुभ करो, शुभ की आकाँक्षा करो, आपका सम्पूर्ण जीवन पवित्र और पुनीत बन जायेगा, आपको सत्य शिव और सुन्दर की प्राप्ति होगी।