Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रियदर्शी सम्राट अशोक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इतिहास में सम्राट अशोक- ‘अशोक महान्’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह ‘महान्’ की पदवी उसे इसलिए नहीं मिली कि उसका साम्राज्य पूर्व में बंगाल के समुद्र, पश्चिम में अफगानिस्तान, उत्तर में कश्मीर और दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। उसको ‘महान्’ इसलिए भी नहीं कहा जाता है कि उसने कलिंग जैसे राज्यों को विजय किया और अपने साम्राज्य की सीमायें बढ़ाईं।
अशोक केवल ‘महान्’ ही नहीं, बल्कि प्रियदर्शी भी कहा जाता है। वह इसलिए कि उसने अपने अनुभव के आधार पर मानवता के सत्य स्वरूप के दर्शन किये, युद्ध की विभीषिकाओं को समझा और जन-सेवा के महत्व का मूल्याँकन किया।
प्रारम्भ में अशोक भी उन बुराइयों से मुक्त न थे, जो किसी भी शासक, सम्राट अथवा सत्ता-सम्पन्न व्यक्ति में हो सकती हैं। अहंकार, क्रूरता, लिप्सा आदि अवगुण अशोक में भी थे। यद्यपि अपने पिता बिन्दुसार से अशोक को एक विशाल एवं सम्पन्न साम्राज्य प्राप्त हुआ था, जिसकी रक्षा एवं पालन का ही दायित्व इतना बड़ा था कि अशोक को एक क्षण का भी अवकाश न मिलता। किन्तु लोभ एवं लिप्सा मनुष्य की इतनी बड़ी दुर्बलता है कि उसके वशीभूत होकर उसकी विस्तार भावना की कोई सीमा नहीं रहती और वह भूत, भविष्य का विचार किये बिना अन्धा होकर उसमें लग जाता है और अन्त में एक दिन ऐसा आता है कि मनुष्य की यही लिप्सा उसे विनाश के अनन्त गर्त में लेकर बैठ जाती है और तब उसके वे काम जो उसने यश, ऐश्वर्य के लोभ से किये थे, उसके अपयश का कारण बनते हैं।
किन्तु जो बुद्धिमान् इस दिशा में थोड़ा चलकर ही ठहर जाते है, विचारपूर्वक उसकी हानियों एवं अवाँछनीयता को समझ लेते हैं और अपना मार्ग बदल देते हैं, वे मानो मृत्यु के मार्ग से अमृत-पथ पर आ जाते हैं। सम्राट अशोक भी निस्सन्देह एक ऐसे ही बुद्धिमान व्यक्ति थे।
अशोक का राज्याभिषेक पिता की मृत्यु के चार साल बाद हुआ था। हो सकता है, जैसा अनेक इतिहासकार बतलाते हैं कि इस अवधि में अशोक को सिंहासन के मार्ग में विरोधी अपने अनेक भाइयों से लड़ना और उन्हें मारना पड़ा हो। यद्यपि अनेक इतिहासकार इस अनुमान से असहमति प्रकट करते हुए कहते हैं कि अशोक को राज्य के लिए अपने भाइयों से न तो लड़ना पड़ा होगा और न उनके रक्त से अपने हाथ रँगने पड़े होंगे, क्योंकि अपने पिता के जीवन-काल में ही वह तक्षशिला तक अन्य अनेक दूरवर्ती प्रदेशों का शासक रह चुका था, जिससे यह सिद्ध हो चुका था कि मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी अशोक ही था। कुल परम्परा के अनुसार उसे राज्य के लिए अपने भाइयों की हत्या करने का पाप नहीं करना पड़ा होगा। यह तो इतिहासकारों का अपना-अपना अनुमान ही है, इसकी सत्यता की कोई पृष्ठ-भूमि इतिहास में नहीं है। जहाँ बिन्दुसार की मृत्यु तथा अशोक के राज्याभिषेक के बीच अन्तर अवधि को लोग बन्धु-कलह का कारण बतलाते है, वहाँ यह भी कहा जा सकता है कि इस अवधि में वह पिता के शोक के कारण राज्यारोहण के लिए तैयार न हुआ हो और सिंहासनासीन हुए बिना ही राज्य संचालन करता रहा हो।
खैर कुछ भी सही, यदि अशोक अपने भाइयों को मारकर सिंहासन का मार्ग निष्कण्टक करने में लगा भी रहा हो, तो भी यह उसकी वह सामान्य दुर्बलता थी, जो सत्ता लोलुपों में पैदा हो जाती है। अधिकार की प्यास वास्तव में वह पिशाचिनी है, जो अपने पालने वाले को ही खा जाती है।
निदान सिंहासन पर आरुढ़ होते ही अशोक ने अपने विस्तृत साम्राज्य का और विस्तार करने की सोची! उन दिनों महानदी से मद्रास के पुलीकट और बंगाल तक फैला हुआ एक ऐसा स्वाभिमानी प्रदेश था, जो कलिंग कहलाता था और गणतन्त्र होने से किसी सम्राट की सत्ता न मानता था। यद्यपि कलिंग न तो अशोक की सीमाएं छूता था और न किसी प्रकार उसे परेशान करता था, तथापि अशोक से उसकी स्वतन्त्र सत्ता न देखी गई और वह उस पर किसी कारण के बिना ही चढ़ दौड़ा।
इस अभिमान के पीछे न तो कोई आवश्यकता थी, न कोई राजनीति और न कोई विशेष उद्देश्य। इसके पीछे अशोक का एक मात्र अहंकार ही काम कर रहा था। अहंकार मनुष्य की बुद्धि को इस सीमा तक भ्रष्ट कर देता है कि वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए बिना किसी कारण के दूसरे को कष्ट देने लगता है। अहंकारी व्यक्ति तब तक किसी की सत्ता नहीं लेता, त्रास नहीं देता, उसे सन्तोष नहीं होता। यदि वह चुपचाप बैठा रहे और अपने अहंकार के वशीभूत होकर अत्याचार के पथ पर पाँव न रक्खे तो यह पिशाच उसकी मानसिक शाँति हरण कर लेता है और जब वह उसकी प्रेरणा से क्रूर कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है तो उसकी आत्मा का नाश करके उसे श्रेय पथ में गिरा देता है। यह अहंकार दुमुंहे साँप की तरह अपने आश्रयदाता को हर स्थिति में डसता रहता है, इसीलिए अभ्युदय तथा सुख शान्ति के सच्चे इच्छुकों ने इस सर्प को जड़ मूल से नष्ट कर देने का निर्देश किया है।
निरहंकार हो जाने पर मनुष्य जीवन की सारी अशाँति पूर्ण सम्भावनाएं नष्ट हो जाती हैं। उसके मन, बुद्धि परिष्कृत होकर आत्मा को एक निस्पृह आनन्द से भर देते हैं।
कलिंग का कोई अपराध न था, तब भी अहंकारवश अशोक ने उस पर आक्रमण कर ही दिया। अशोक की दृष्टि में कलिंग का स्वाभिमानपूर्ण स्वतन्त्रता-प्रेम ही अपराध बन गया। कलिंग एक शाँति प्रिय छोटा सा प्रदेश था। अशोक अश्व, गज, रथ आदि से सुसज्जित सेना और योजनों तक विस्तृत साम्राज्य का स्वामी! कलिंग के व्यवस्थापक इस शक्ति असन्तुलन की अच्छी तरह समझते थे, फिर भी उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता को रक्षा में बरबाद हो जाने का संकल्प करके अशोक की चुनौती स्वीकार करली।
कलिंग की जनता पराधीनता के अभिशाप को अच्छी तरह समझती थी। पराधीनता के अभिशाप एवं अपमानित जीवन की अपेक्षा कलिंग के स्वाभिमानी वीरों ने वीर-गति की अखण्ड शाँति को अधिक श्रेयस्कर समझा।
युद्ध हुआ, और एक निर्णायक युद्ध हुआ! अशोक की अहंकार-जन्य क्रूरता की विजय हुई। किन्तु कब? जब कलिंग का बच्चा-बच्चा रण-भूमि में काम आ गया। पुरुष नाम का कोई चिन्ह वहाँ बाकी न रहा। इस युद्ध में अकेले कलिंग की राजधानी में ही लगभग ढाई लाख व्यक्ति घायल हुए और बन्दी बनाये गए, जब कि इससे पाँच गुनी संख्या में लोग मारे गये। इस प्रकार कलिंग के लगभग आठ लाख व्यक्ति उस युद्ध में काम आये।
अशोक विजयी हुआ, किन्तु शीघ्र ही उसकी विजय पराजय में बदल गई, जब कलिंग की वीर महिलायें स्वाधीनता की रक्षा में रण-क्षेत्र में उतर आई। अशोक को एक मात्र स्त्रियों की सेना देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कारण पूछने पर पता चला कि इस युद्ध में कलिंग का सम्पूर्ण पुरुष वर्ग काम आ चुका है और अब नारियाँ अपने देश की स्वाधीनता के लिए संग्राम-भूमि में आई है। अशोक को अपनी विजय पर लज्जा, और किये पर घोर आत्म-ग्लानि हुई! यथार्थ का पता लगाने के लिए उसने संग्राम-भूमि से लेकर नगर की गलियों तक का निरीक्षण किया। सम्पूर्ण नगर लाशों से भरा पड़ा था। स्थान-स्थान पर रक्त के पनाले बह रहे थे। वृद्ध माताएं बाल विधवाएं और असमर्थ पिताओं का विलाप इस अकारण हत्याकाण्ड के लिए अशोक को कोस रहा था।
अहंकार से मूर्छित अशोक का ‘मनुष्य’ जाग उठा। अभी तक जो अशोक अहंकार की आँखों से नर-संहार को देख-देखकर अपनी रक्त-रंजित विजय पर गर्व कर रहा था, वही मनुष्यता की आँखों से उस पाप को देखकर रोने लगा। उसकी आँखों में पश्चात्ताप के इतने आँसू बहे कि हृदय से आत्मा तक वह करुणा, दया तथा सम्वेदना की जीती-जागती प्रतिमा बन गया।
मनुष्य पाप करता है, अपराध करता है और तब तक करता रहता है, जब तक वह ठहर कर अपने किए पर विचार नहीं करता, क्योंकि ज्यों ही वह अपने किए पर विचार करने लगता है, उसका पैर पाप-पथ पर चलता-चलता स्वयं रुक जाता है। उसका विवेक जाग उठता है और उसे अपने कुकृत्य के स्वरूप और उसको परिणाम स्पष्ट दीखने लगते हैं। वह अपने कर्मों का स्वयं न्यायी बन कर निर्णय देने लगता है और अपने को दोषी पाता है, धिक्कारता है और पश्चात्ताप करता हुआ उसके परिमार्जन के लिए तड़प उठता है।
कि सी भी कारण अथवा बहाने से आये पाप-कर्मी के जीवन में एक दिन यह घड़ी अवश्य आती है और तब उस तड़पती हुई स्थिति में अपने को संभाल सकना उसके लिए असम्भव होने लगता है। इस पाप परिमार्जन तथा पश्चात्ताप से बचने के लिए केवल एक ही उपाय, एक ही रास्ता शेष रह जाता है और वह है- अपने किये का समुचित प्रतिकार! और वह है- असत्कर्मों के विपरीत सत्कर्म करना। जिस मानवता को त्रास दिया है, उसे हर प्रकार से सुखी करना।
अशोक ने मार्ग बदला, हृदय बदला और बदल दिया अपना समस्त दृष्टिकोण। अब वह अपने को प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक समझने लगा। कलिंग हत्याकाँड से करुण बना, अशोक जब जन-सेवा के क्षेत्र में आया तब उसकी आत्मा में धर्म के द्वार स्वयं खुलने लगे और वह मनुष्यता से देवत्व की ओर बढ़ने लगा। राज्य-विस्तार छोड़ कर अब वह धर्म-प्रसार की ओर बढ़ चला!
अशोक ने अपने साम्राज्य भर में धर्म शिक्षाओं से अंकित शिक्षा-लेख तथा स्तूप गढ़वाये, जिनमें उसने धर्म का मूल समझा कर दया को मनुष्य मात्र के हृदय से प्रेरित करने का प्रयत्न किया। आत्म-संयम, पवित्रता, कृतज्ञता, करुणा तथा सहानुभूति का प्रचार करते हुए उसने मनुष्यों को क्रोध, क्रूरता तथा ईर्ष्या जैसे दुर्गुणों से बचने की शिक्षा दी। प्राणि मात्र के प्रति दया, माता-पिता की सेवा तथा गुरुजनों के प्रति आदर-भावना अशोक के धर्म लेखों के प्रमुख आदेश थे।
यही नहीं कि अशोक ने धर्म को अपनी राजनीति में प्रमुख स्थान दे दिया, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए विद्वानों तथा महात्माओं की एक समिति स्थापित कर दी। राज्य कर्मचारियों को आदेश दे दिया कि वह प्रजा में धर्म-पालन की प्रगति के प्रति दृष्टि रखें।
बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा की लंका, चीन एवं इण्डोचाइना आदि देशों में धर्म-प्रचार के लिए भेजा। आज संसार में जो बौद्ध-धर्म का प्रचार दीखता है, उसका सारा श्रेय सम्राट अशोक को ही है। प्राणि मात्र में दया उपजाने के लिए अशोक ने आखेट पर प्रतिबन्ध लगा दिया और स्वयं भी माँस तथा मदिरा का सेवन त्याग दिया। सम्राट अशोक के इन सत्प्रयत्नों से न केवल उसकी प्रजा ही धर्म-परायण हो गई, बल्कि उसकी आत्मा का अतुलनीय विकास हो गया।
धर्म-प्रचार करने के साथ-साथ अशोक ने प्रजा के लिए अनेक हितकर कार्य भी किये। उसने राज्य में अनेक सदाचार समितियों की स्थापना की, अनेक दान-शालायें खुलवाई और न्यायालयों का सुधार किया। अशोक ने सारे राज्य में सड़कों का निर्माण कराया, उनके किनारे फलदार तथा छायादार वृक्ष लगवाये। आधे-आधे कोस पर हजारों कुँओं और गौ-शालाओं का निर्माण कराया। सैकड़ों धर्मशालाओं तथा औषधालयों के निर्माण के साथ-साथ उसने पशुओं के लिए भी अनेक चिकित्सालयों का प्रबन्ध किया।
इस प्रकार कलिंग के हत्यारे अशोक ने अपनी जीवन-गति में मोड़ लाकर अपने सारे पापों का परिमार्जन कर डाला।
सम्राट अशोक के उदाहरण ने स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य संसार में क्या से क्या बन सकता है। जहाँ वह अपने एक दृष्टिकोण से पशु और पिशाच बन सकता है तो दूसरे में पिशाच से देवता भी बन सकता है। मनुष्य को प्राणि मात्र के प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिए और उनकी सुख-सेवा के लिए यथा-सम्भव प्रयत्न करना चाहिए। मनुष्यत्व का लक्षण दया है, धर्म है, क्रूरता अथवा कुकर्म नहीं।