Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
जनसंख्या वृद्धि का अभिशाप
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
दिनों दिन तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या हमारे वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन के लिए गम्भीर समस्या बनती जा रही है। विशेषज्ञों का दावा है कि यदि इस पर नियन्त्रण नहीं किया गया तो हमारी विकास की योजनायें धरी रह जाएंगी। व्यक्ति का जीवनस्तर भी ऊँचा नहीं उठ पाएगा। अभी भी हमारे यहाँ दो तिहाई लोगों को पर्याप्त भोजन, वस्त्र नहीं मिलता। जो मिलता है वह बहुत ही घटिया और पौष्टिक तत्वों से रहित मिल पाता है।
हमारा देश अभी भी एक अभावग्रस्त अविकसित देश है जिसके सामने बहुत सी समस्याएँ हैं। तीन पंचवर्षीय योजनाओं के बावजूद भी अभी हम अन्न उत्पादन और आर्थिक विकास उद्योग के क्षेत्र में आत्म निर्भर नहीं बन पाये हैं। अतिरिक्त उत्पादन तो दूर रहा अभी भी हमें अन्न बाहर से मँगाना पड़ता है। कई जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिये विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका मुख्य कारण है हमारे यहाँ की तेजी से बढ़ने वाली जनसंख्या।
पिछली दो योजनाओं के मध्य अर्थात् एक दशाब्दी में हमारे यहाँ लगभग 6 करोड़ की वृद्धि हुई है बढ़ी हुई जनसंख्या विकास योजनाओं से मिलने वाले परिलाभ को खाती रही हैं। अर्थशास्त्र विशेषज्ञों का मत है कि “बढ़ती हुई जनसंख्या” को नियन्त्रित किये बिना हमारी विकास योजनाओं से विशेष लाभकारी परिणाम नहीं निकलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे देश के समक्ष तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या एक बहुत बड़ी समस्या, एक चुनौती के रूप में मौजूद है। राष्ट्रीय-सामाजिक-जीवन में भी अधिक बच्चे होना आज के युग में मनुष्य का कम दुर्भाग्य नहीं है। जिस रफ्तार से एक गृहस्थ के यहाँ बच्चों की संख्या बढ़ती है, उस क्रम से उनके जीवन-निर्वाह के साधन और आमदनी में बढ़ोतरी नहीं होती। एक किसान अपनी जमीन में औसत पैदावार ही कर पायेगा। एक नौकरी−पेशा आदमी को तो अपनी बँधायी ही तनख्वाह मिलेगी। बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे करने वाले जो अधिक कमा सकते हैं, उनकी संख्या ही हमारे देश में कितनी-सी है। अधिकाँश लोगों की आय का स्त्रोत तो बँधा-बँधाया ही होता है। इसकी तुलना में हमारे यहाँ हर गृहस्थ में औसतन दो या तीन साल में एक बच्चा पैदा हो ही जाता है। इसके साथ-साथ आज के वैज्ञानिक साधनों, चिकित्सों सुविधाओं के कारण मृत्यु-संख्या भी पूर्वापेक्षा घट गई है।
जिस अनुपात से हमारे यहाँ बच्चों का जन्म होता है उस अनुपात से हमारी उत्पादन क्षमता, आर्थिक सामर्थ्य नहीं बढ़ती। यदि 10 वर्ष में किसी गृहस्थ के चार बच्चे हो गये तो उसकी आमदनी चौगुनी होने के बजाय चालीस, पचास प्रतिशत भी नहीं बढ़ती। परिणाम यह होता है कि प्रत्येक बच्चे के जन्म के साथ ही घर के सभी सदस्यों को कुछ तंगी में गुजारा करना पड़ता है। जरा उस गरीब आदमी की कल्पना कीजिए जिसकी गिनी-चुनी मजदूरी पर घर के पाँच बच्चे, वह स्वयं, घर वाले निर्भर करते हों ? निश्चय ही उसे अभाव और कष्टों में जीवन बिताना पड़ेगा।
अभाव और आर्थिक तंगी के कारण फिर बच्चों का पालन-पोषण, उनकी शिक्षा, उनका जीवन-निर्माण भली प्रकार नहीं हो पाता। विचार कीजिए, जो व्यक्ति अपने चार-पाँच बच्चों और घर वालों को उपयुक्त भोजन, वस्त्र, मकान आदि की ही व्यवस्था नहीं कर सकता, वह कैसे उनकी उचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करेगा? बच्चों को पर्याप्त दूध, पोषक भोजन, शिक्षा की उचित व्यवस्था वह बेचारा कहाँ से, कैसे, कर पायेगा?
बच्चों से ही जिम्मेदार नागरिक बनते हैं लेकिन बिना साधनों के वे कैसे कुशल व्यक्ति बन सकते हैं? बच्चे तो बढ़ रहे हों लेकिन अभिभावकों में उनके पालन-पोषण, जीवन-निर्माण की क्षमता का सामर्थ्य न हो, तो वे देश और समाज के लिये अयोग्य, भारस्वरूप ही सिद्ध होंगे। कोई माँ-बाप यह नहीं चाहता कि उसका बालक उच्च-शिक्षा प्राप्त न करे, उसे अच्छा भोजन न मिले, लेकिन गरीबी, अभाव और तंगी के कारण अधिकाँश लोग इसमें असमर्थ रहते हैं। जब बालक को उचित खाद्य, खेलने-कूदने के स्थान, साधन, शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था, जीवन-निर्माण का उपयुक्त वातावरण नहीं मिलेगा तो कैसे वह उत्कृष्ट नागरिक बन सकता है?
साधन सम्पन्नता न बढ़े लेकिन बच्चे खूब पैदा होते रहें तो माँ-बाप के व्यक्तिगत जीवन में तंगी, अभावग्रस्तता के साथ-साथ बच्चे का अयोग्य, अविकसित रहना, गैर-जिम्मेदार नागरिक बनना अवश्यंभावी है। व्यक्ति के साथ-साथ इसका देश और समाज पर भी प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता क्योंकि व्यक्ति की स्थिति पर ही देश और समाज की स्थिति निर्भर करती है।
अन्धाधुन्ध सन्तान पैदा करने के कारण मनुष्य का महत्वपूर्ण जीवन, उसकी महान् शक्तियाँ किसी महान् कार्य में न लगकर, कमाने और बच्चों का पालन करने में ही लगी रहती है। जब कोई आदमी अभाव के दलदल में फंसा हुआ वहाँ से निकलने के लिए ही परेशान रहे तो जन-सेवा, राष्ट्रोत्थान समाज-कल्याण, आत्म-विकास जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में कैसे लग सकता है? यह भी एक मुख्य कारण है कि हमारे देश का नागरिक बहुत कुछ सुनते, जानते, समझते-बूझते भी उत्कृष्ट कार्यों से उपेक्षित रहता है। अनियन्त्रित जनसंख्या व्यक्ति और समाज की शक्ति को ऊर्ध्वगामी नहीं होने देती, न किसी महान् लक्ष्य की ओर सोचने का अवकाश देती है। अपना और परिवार का पेट-पालन ही औसत नागरिक के जीवन का लक्ष्य बना रहता है ऐसी स्थिति में।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि दिनों दिन बढ़ती हुई जनसंख्या, अनियन्त्रित सन्तान वृद्धि हमारे वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन के लिए अनेकों समस्याएँ पैदा कर देती है। सन्तान वृद्धि की अनियन्त्रित बाढ़ के कारण हमारी विकास योजनाएँ पंगु बन जाती हैं। कई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सुधार के प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। जब समाज में सबको भरपेट भोजन, तन ढकने को कपड़ा नहीं मिलेगा, न शिक्षा-दीक्षा की ही व्यवस्था होगी तो सुख-शान्ति, विकास की बातें एक काल्पनिक आदर्शमात्र ही बनी रहेंगी। भूखा, अभावग्रस्त आदमी अनैतिक मार्ग अपनाने में भी नहीं हिचकिचायेगा। इसलिये बढ़ती हुई जनसंख्या हमारे लिए एक गम्भीर समस्या है। हमें इसे व्यक्तिगत, समाजिक स्तर पर हल करना होगा। यदि हमें राष्ट्र को प्रबल समर्थ विकसित बनाना है, यदि हमें सुविधापूर्ण जीवन जीना है, यदि हमें अपनी सन्तान को योग्य एवं कुशल नागरिक, स्वस्थ मनुष्य बनाना है, यदि हमें आर्थिक, आत्म-निर्माण शक्ति प्राप्त करनी है तो अविलम्ब अनियमित तौर पर बढ़ती हुई सन्तान वृद्धि पर रोक लगानी होगी। प्रत्येक दम्पत्ति की यह मानवीय जिम्मेदारी है कि वह उतनी ही सन्तान पैदा करे जिसका पालन-पोषण, शिक्षण, संवर्धन वह सरलता से कर सके। सचमुच आज कम से कम बच्चे पैदा करना एक बहुत बड़ा सामाजिक कर्तव्य है, देशभक्ति है।