Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
संस्कृति का स्वरूप और लक्ष्य
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संसार के सभी विद्वानों ने ‘संस्कृति’ शब्द की विभिन्न परिभाषायें, व्याख्यायें की हैं। कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं मिल पाती फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि “संस्कृति” उन भूषण रूपी सम्यक् चेष्टाओं का नाम है जिनके द्वारा मानव समूह अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन को, अपनी शारीरिक मानसिक शक्तियों को संस्कारवान, विकसित और दृढ़ बनाता है। वस्तुतः संस्कृति इतनी व्यापक और बृहद् चेष्टाओं का भण्डार है जो सनातन काल से क्रमिक रूप में निखरती आई है और जिन्होंने मानव के सर्वांगीण विकास में पूरा-पूरा योगदान भी दिया है। संस्कृति मानव समूह के उन आचार-विचारों की प्रणाली का प्रतिनिधित्व करती है जो मनुष्य को सुसंस्कृत बनाकर उसे सभी प्रकार योग्य समर्थ बनाती है।
संस्कृति की परिभाषा बतलाते हुए श्री टायलर ने कहा है- “समाज के सदस्य के नाते मनुष्य जो ज्ञान, विश्वास, कला, नीति, कानून, रीति रिवाज या अन्य कोई योग्यता प्राप्त करता है, उन सबके जटिलता पूर्ण संग्रह को संस्कृति कहते हैं।”
मैथ्यू अर्नाल्ड ने लिखा है-”विश्व के सर्वोत्कृष्ट कथनों और विचारों का ज्ञान भण्डार ही संस्कृति है।”
श्री नेहरू ने लिखा है - “संस्कृति, शारीरिक मानसिक शक्तियों के प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास परम्परा और उससे उत्पन्न अवस्था है।”
श्री राजगोपालाचार्य ने संस्कृति की परिभाषा करते हुए लिखा है-”किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरुषों में विचार, वाणी एवं क्रिया का जो रूप व्याप्त रहता है, उसी का नाम संस्कृति है।”
एक अन्य विद्वान ने कहा है- “संस्कृति का उद्गम संस्कार शब्द है। संस्कार का अर्थ है वह क्रिया जिससे वस्तु के मल (दोष) दूर होकर वह शुद्ध बन जाय। मानव के मल-दोषों को दूर कर उसे निर्मल बनाने वाली प्रक्रियाओं का संग्रहीत कोष ही संस्कृति है।”
एक वाक्य में सभ्यता, सज्जनता, शिष्टता, जो हमें दूसरों के साथ रहने की विशेषता, दूसरों के साथ जीने में आनन्द की कला सिखावे वही संस्कृति है।
इसी तरह की बहुत-सी परिभाषायें मिलती हैं, बहुत से अर्थ मिलते हैं। वस्तुतः संस्कृति इतना व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिससे एक बहुत बड़े मानव समुदाय के उन समतोलों का बोध होता है, एक लम्बे अनुभव से सिद्ध उन सम्यक् चेष्टाओं का ज्ञान मिलता है जो उसके आचार, विचार, व्यवहार को उत्कृष्ट बनाते हैं, उसकी संस्थाओं को चलाते हैं। जिनके ऊपर उसका आन्तरिक बाह्य विकास निर्भर करता है। संक्षेप में संस्कृति मानव समुदाय के जीवन यापन की वह परम्परागत किंतु निरन्तर विकासोन्मुखी शैली है जिसका प्रशिक्षण पाकर मनुष्य संस्कारित सुघड़ प्रौढ़ और विकसित बनता है।
संस्कृति ही किसी राष्ट्र या समाज की अमूल्य सम्पत्ति होती है। युग युगान्तर के अनवरत अध्यवसाय, प्रयोग, अनुभवों का खजाना है संस्कृति। यह किसी एक व्यक्ति के प्रयत्नों का परिणाम नहीं हैं या किसी एक युग की ही उपज नहीं होती है संस्कृति। मनुष्य और परिवार, काल कवलित होते हैं चले जाते हैं। समाज बनते हैं और बिगड़ते हैं किंतु संस्कृति न तो एक युग में बन जाती है और न बिगड़ती ही है। वह युगों-युगों की गोद में पलती है उसके पन्नों में अनेकों उत्थान, पतन आघात, अवरोधों का इतिहास होता है।
संस्कृति ही किसी देश, समाज या जाति का प्राण है। वहीं से इन्हें जीवन मिलता है। किसी भी देश की सामाजिक प्रथायें, व्यवहार, आचार-विचार, पर्व, त्यौहार, सामुदायिक जीवन का सम्पूर्ण ढाँचा ही संस्कृति की नींव पर खड़ा रहता है। यह संस्कृति की अजस्र धारा जिस दिन टूट जाती है, उसी दिन से उस समाज का बाह्य ढाँचा भी बदल जाता है। संस्कृति के नष्ट होते ही किसी सभ्यता का भवन ही लड़खड़ा कर गिर जाता है।
संस्कृति ही मानव समाज के उस बाह्य ढाँचे का निर्माण करती है जिसे ‘सभ्यता’ कहते हैं। वस्तुतः सभ्यता संस्कृति का ही बहिरंग रूपांतर है। किसी समाज का रहन-सहन, व्यवहार, आचार-शास्त्र, नियम, मर्यादायें ही उसकी संस्कृति का बाह्य परिचय प्रदान करते हैं। इस तरह सभ्यता और संस्कृति दोनों एक ही हैं। सभ्यता संस्कृति का परिचय देती है तो संस्कृति सभ्यता को जीवन देती है। दोनों की एकरूपता में ही किसी भी समाज, राष्ट्र का जीवन निर्भर करता है।
संस्कृति ही मानव जीवन के विकास, आनन्द, उत्कर्ष का आधार होती है। जिस तरह जन्म देने वाली माता के रक्त, रस, गुणों का मनुष्य के निर्माण में स्थान होता है उसी तरह अपने समाज- राष्ट्र की संस्कृति से ही व्यक्ति का कल्याण होता है। यही व्यक्ति के जीवन की निर्मात्री-धात्री होती है। मनुष्य को संस्कृति से विलग कर दीजिए वह आदिमयुग-बर्बरयुग का पशुमात्र ही रह जाएगा। संस्कृति के द्वारा संस्कृत होकर ही मनुष्य-मनुष्य बनता है। असंस्कृत तो निरा पशु ही माना जाता है। निःसंदेह संस्कृति व्यक्ति-समाज-राष्ट्र के जीवन का सिंचन कर उसे पल्लवित पुष्पित फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता है। सभ्यता और संस्कृति के प्रवाह-संस्कार ही व्यक्ति के जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं। इनसे विलग रहकर मनुष्य जीवन को सार्थक नहीं बना सकता इसलिए अपनी सभ्यता और संस्कृति का परिचय प्राप्त करना, उनसे अपने जीवन की प्रेरणा प्राप्त करना, प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है।
युगों-युगों से चली आ रही परिस्थितियों, जीवन-दर्शन, व्यक्तिगत और सामुदायिक विशेषताओं, भूगोल, ज्ञान-विज्ञान के विकास क्रम आदि के कारण भिन्न-भिन्न राष्ट्र, समाज, जातियों की अपनी-अपनी संस्कृति होती है। यह भिन्नता विभिन्नता सहज और स्वाभाविक है। फिर भी प्रत्येक संस्कृति के कुछ सार्वभौमिक आधार हैं, जिनके कारण वह जीवित रहती है। जिसमें ये सार्वभौम गुण जितने प्रचुर मात्रा में होते हैं, उतनी वह संस्कृति व्यापक और प्रभावशाली बन जाती हैं। सार्वभौमिक सत्यों पर ही संस्कृति अजर-अमर रहती है वह कभी नहीं मरती। भले ही समाज-राष्ट्र मर जाये। संकीर्णता-क्षुद्रता पर आधारित संस्कृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। अतः किसी भी संस्कृति की महानता इस पर निर्भर करती है कि वह कितने सार्वभौमिक सत्यों पर खड़ी है? और इसी कारण वह सब ओर गतिशील होती है।
संस्कृति की अमरता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह कितनी विकासोन्मुखी है। स्मरण रहे किन्हीं प्राचीन परम्पराओं, रूढ़िवाद या किन्हीं बंधे-बँधाये नियमों को संस्कृति नहीं माना जा सकता। संस्कृति तो एक निरन्तर विकासोन्मुखी धारा है जो प्रत्येक युग के घाट पर अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लेती है। जिस संस्कृति में युग की माँग के अनुसार विकसित और रूपांतरित होने की क्षमता नहीं होती वह पिछड़ जाती है और एक दिन नष्ट हो जाती है।
प्रत्येक संस्कृति का जीवन सामर्थ्य उसकी सूक्ष्मता पर भी निर्भर करता है। जो संस्कृति वस्तु, पदार्थ, शरीर, संसार को ही आधार बना कर चलती है, वह अधिक समय जीवित नहीं रह सकती। इनके नष्ट होते ही संस्कृति भी नष्ट हो जाती है पर तत्वों को अपने प्रयोग का, कर्म क्षेत्र का आधार बनाकर चलने वाली संस्कृति सदा-सदा जीवित रहती है और अधिक सामर्थ्यवान होती है। वह व्यक्ति-समाज के मूल को ही प्रेरणा देकर सम्पूर्ण बाह्य ढाँचा बदल देती है।
संस्कृति तो एक मूर्तिवान, सजीव, चेतनायुक्त प्राण परम्परा है जो युगों -युगों से हमारे जीवन को प्रकाशित करती आई है। समस्त इतिहास- साहित्य, सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान, नीति, दर्शन, धर्म, कला-कौशल, सम्पूर्ण विकास गाथा ही संस्कृति के अंग उपाँग हैं। इतनी व्यापक और विशाल है यह संस्कृति।
उक्त परिभाषाओं, सीमाओं, गुणों के आधार पर हमें अपनी संस्कृति के बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त करना जरूरी है। युग की माँग के अनुसार साँस्कृतिक प्रयोगों को करके नवीन सत्यों की खोज करनी है। अपने तथा समाज के जीवन में साँस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना करना हमारा आज का बहुत बड़ा कर्तव्य है।