Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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बाल अपराध बढ़े तो राष्ट्र गिर जायगा।
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राष्ट्र का भावी विकास और निर्माण आज के व्यक्तियों पर उतना अवलम्बित नहीं है, जितना कल की पीढ़ी पर। विशाल स्तर पर चल रहे कार्यक्रमों का आधार स्तम्भ हमारे बालक हैं, जिनके लिये अनेक योजनायें बनाते हुये चले जा रहे हैं। जिस आधार स्तम्भ पर यह निर्माण कार्य चल रहा है, वही विश्रृंखलित, अस्त-व्यस्त और कमजोर हुआ तो ऐसी हजार योजनाएं बनें, लाभ कुछ न होगा, राष्ट्र उठेगा और उठकर गिर जायेगा। निर्माण का भवन बनेगा और बनकर धराशायी हो जायेगा।
जंगलों के बीच बसे हुये गाँवों से लेकर शहर के विद्यार्थियों तक उद्दण्डता, उच्छृंखलता और अनुशासनहीनता आज बिल्कुल सामान्य हो गई है। उनके चरित्र की झाँकी ले तो छुटपन से ही अश्लीलताओं, वासनाओं, दुर्व्यसनों की दुर्गन्ध उड़ती दिखाई देगी। छोटे-छोटे बच्चों को बीड़ी पीते देखकर ऐसा लगता है कि सारा राष्ट्र बीड़ी पी रहा है। युवतियों के पीछे अश्लील शब्द उछालता है तो लगता है, सम्पूर्ण राष्ट्र काम-वासना से उद्दीप्त हो रहा है। अपराधी बालकों ने आज सारे समाज को ही कलंकित करके रख दिया है।
न अभिभावकों के प्रति सम्मान और श्रद्धा और न समवयस्कों के साथ प्रेम और सहयोग। अध्यापक और बाजार में बैठे दुकानदार उनके लिये एक समान हैं। कुछ शेष रहा है तो फैशन, शौकीनी, सिनेमा, ताश, चौपड़ और मटरगस्ती।
बाल अपराध के आँकड़े उठाकर देखते हुये हाथ काँपते हैं, कलेजा मुँह को आता है। सन् 1958 में यह संख्या 15 हजार थी, जबकि इनसे कई गुने प्रकाश में नहीं आये हुये होंगे या जानबूझकर छुपा दिये गये होंगे। सन् 1961 में यह संख्या बढ़कर 33 हजार तक पहुँची और विगत चार वर्षों में भी इसी क्रम से अपराध हुये होंगे तो अब यह संख्या 54 हजार होनी चाहिये। इस दिशा में सरकारी और गैरसरकारी तौर पर प्रयास भी किये गये, किन्तु लाभ कुछ न निकला, समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती और उलझती ही गई।
परिपक्व व्यक्ति की मानसिक स्थिति का अनुमान करना आसान होता है, अतः उन्हें दण्ड से भी, शिक्षा से भी सुधारा जा सकता है। किन्तु बाल-अपराधों का सही कारण ज्ञात करना भी कठिन कार्य है, इसलिये यह समस्या अधिक दुरूह ओर गम्भीर हो रही है।
हम इस समस्या का अध्ययन प्रारम्भिक स्थिति से करते हैं और बालकों के अपराध का दोषी उनके माता-पिता तथा परिवार बालों को मानते हैं। यों तो समाज-प्रवेश के बाद बालक अपनी गतिविधियों का निर्माण दूसरों को देखकर भी करता है, पर यह उसकी रुचि के अनुरूप होता हैं और अच्छी या बुरी, विकासशील या अधोगामी रुचि की उत्पत्ति का मूल केन्द्र बालक के माता-पिता ही होते हैं। सच कहा जाय तो पिता माता की महत्वाकाँक्षायें ही बालक की रूप बनकर उभरती हैं और इन्हीं से उसके चरित्र का विकास होता है। ‘बर्ट’ तथा ‘टैपन’ आदि प्रमुख पाश्चात्य बाल अपराध शास्त्रियों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि बालक के शारीरिक व मानसिक दोष वंशानुगत होते हैं। इन्हीं का आश्रय लेकर वह अपराधों की ओर प्रवृत्त होता है। वातावरण केवल साहस पैदा करता है। पास-पड़ोस स्कूल, मित्र, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियाँ सहयोग तो देती हैं, किन्तु अपराधों का मूल कारण उनके परिवार वालों का रहन-सहन और उनकी आदतें ही होती हैं।
उदाहरण के तौर पर जिन घरों के लोग बीड़ी, सिगरेट, गाँजा भाँग या शराब पीते हैं उनके बालक भी इन से कोई नशा करना सीख जाते हैं। जिन घरों में मास पकाया जाता है, उन्हीं घरों के बच्चे माँस खाते हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि माता-पिता शाकाहारी हों और बच्चे माँसाहारी हो जायँ। अवगुण अधिकाँशतः वंश परम्परा से ही विकसित होते हैं।
परिवार की निर्धनता जैसी कमियाँ, बुरे लोगों के संग, अवाँछित पड़ोस, नैतिकता को गिराने वाली सिनेमा जैसी प्रवृत्तियाँ, स्कूल के अविवेकपूर्ण वातावरण आदि भी बालक की मानसिक स्थिति का संगठन होता है किन्तु यदि माता-पिता पूर्व में बालकों में अधिक शक्ति-शाली संस्कार भर सकें तो बाहरी परिस्थितियाँ उतना प्रभाव नहीं डाल सकतीं और बच्चा बुराइयों से अधिकाँश बचा रह सकता है।
इस सम्बन्ध में कुछ उपयोगी सुझाव हैं, जिन्हें प्रयोग में लाया जा सकता है और उससे बालकों का चरित्रबल और मनोबल बढ़ाया जा सकता है।
जो लोग बालक की उपस्थिति में कैसा भी उचित-अनुचित कार्य किया जाना अयुक्त नहीं समझते वे भूल करते हैं। उनकी यह आम धारणा होती है कि बालक अज्ञान है, कुछ जानता नहीं पर वस्तुस्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है। बालक सबसे चतुर विद्यार्थी, संवेदन-शील एवं ग्रहणशील बुद्धि वाला होता है। वह माता-पिता की प्रत्येक हरकत को बड़े गौर से देखता है कि वे क्या कर रहे हैं और फिर स्वयं भी वैसी ही चेष्टायें दिखाता है। कभी-कभी वह प्रारम्भ में वैसी रुचि भले ही न प्रदर्शित करे तो भी उसके अंतर्मन में वैसी ग्रन्थि बन जाती है, जो अवस्था के साथ विकसित होकर स्वभाव में परिवर्तित हो जाती है।
अपने घर से भेद-भाव की मंथरा को दूर रखें, अन्यथा वह राम और भरत का संग्राम उठा देगी। एक बच्चे को अधिक प्यार दूसरे को कम। पढ़ने वाले बच्चे को अच्छे कपड़े और जो घर में रहता है, उसे कम अच्छे कपड़े-आप इस बात से सावधान रहें। बच्चे आप से पूरा न्याय चाहते हैं। उन्हें समानता न देंगे तो उनकी विग्रह-बुद्धि बढ़ेगी और अपराधों की दिशा में अग्रसर करेगी।
अपने व्यवहार से बच्चे को साँवेगिक असुरक्षा का शिकार न बनाइये। आपके दुर्व्यवहार से, कटुता से, छल से तंग आकर कहीं ऐसा न हो कि वह विद्रोह खड़ा कर दे। अपना जीवन संकट में डाल ले और अपनी मनोवृत्तियों को दूषित बना ले। अनुचित व्यवहार की तरह अनुचित प्यार भी करना बालक के लिये हितकर नहीं होता क्योंकि ऐसा करने से वह अपने आपको विशेष महत्व समझने लगता है और जब आर्थिक जीवन में पहुँचने पर उसकी इस क्षेत्र में उपेक्षा की जाने लगती है तो वह विद्रोह कर देता है और समाज के प्रति उसके भी हृदय में उपेक्षा का भाव जागृत हो जाता है।
बच्चे के गुण, साहस और शौर्य की प्रशंसा में कृपण मत हूजिये। इन कार्यों में प्रशंसा से उसकी आन्तरिक प्रसन्नता होती है और यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह आत्मप्रशंसा के लिये बल प्रयोग के मार्ग का अवलम्बन ले सकता है।
बच्चे पर अविश्वास न कीजिये और उससे कुछ छुपाइये नहीं। अर्थ अनुशासन की उसे शिक्षा मिले यह तो ठीक है, पर यदि उसकी पुस्तकों के लिये या फीस के लिये पैसे देने हों तो उसे टोकिये मत, न ही ऐसा विचार व्यक्त कीजिये कि वह इस पैसे का दुरुपयोग तो नहीं करेगा? बच्चा यदि अपनी स्वाभाविक दुर्बलता के कारण कभी ऐसी गलती कर भी दे तो सुधार का एक तरीका है कि आप उसे अधिक बड़ी जिम्मेदारी दीजिये। उत्तरदायित्व सम्भालने में बालक प्रसन्न भी होते हैं और इससे उनमें कर्मठता भी आती है।
उनमें कुछ छिपाना इसलिये नहीं चाहिये क्योंकि इससे उनके हृदय में भी भेद-भावना उत्पन्न होगी और मानसिक कटुता बढ़ेगी। मन असंतुलित रहा तो उसके कार्य भी असंतुलित होंगे और उससे बालक का अहित ही होगा।
अपने घर का वातावरण और बालक के प्रति व्यवहार यदि आपने दुरुस्त कर लिया तो यह समझिये कि बालक को आपने 90 प्रतिशत अपराधी प्रवृत्ति से बचा लिया। आज बाल अपराधों में अभिवृद्धि का कारण लोगों की पारिवारिक अव्यवस्था ही है। इसमें सुधार हो जाये तो बालकों के चरित्र का विकास कोई कठिन बात न रह जाये।
शेष 10 प्रतिशत अपराधों का कारण समाज की बुराइयाँ होती हैं। बच्चे को बुरे लोगों की बैठक से बचाकर, सिनेमा आदि के स्थान पर साहित्यिक या अन्य कोई रचनात्मक आदत डालकर सुधारा जा सकता है। यह कार्य कोई मुश्किल कार्य नहीं। थोड़ा-सा ध्यान रहे तो बाल-अपराध बढ़े नहीं क्योंकि इनका कारण कोई और नहीं होता। अपने उत्तरदायित्व का समुचित पालन न करने से लोग स्वयं ही अपने बालकों को अपराधी बनाते हैं तो सुधार का श्रीगणेश भी अपने आप से ही किया जाना चाहिये।