Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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उधार सौदा-ऋण समान
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आर्थिक तंगी से बचने के लिये आप अपने बजट के मुताबिक खर्च करने की आदत डालिये। खर्च के मद में जीवनोपयोगी वस्तुओं को ही प्रमुख स्थान दीजिये। आकर्षण या विलासिता के सामान खरीदकर न अपव्यय कीजिये न अपनी कठिनाइयाँ बढ़ाइये। प्रदर्शन से कुछ लाभ नहीं होता। इस ओछी भावना को छोड़िये और उतना खर्च किया कीजिये जितनी आपकी आय है, जितना आप वेतन पाते हैं।
आप अनावश्यक वस्तुयें खरीद लाते हैं या जरूरत से ज्यादा सामान खरीद कर उसे बेकार करते रहते हैं। देखिये, कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको उधार लेने की आदत पड़ गई है।
अपनी आय से तो आप अपनी जरूरत ही पूरी कर सकते थे, फिर यह घड़ी, यह कैमरा, पंखा, कुर्सी, मेज, अलमारी, भारी बर्तन आपने कहाँ से खरीद लिये? दो ही साधन हो सकते हैं या तो आपने बेईमानी की हो या फिर उधार या किश्त में सौदा खरीद लिया हो। प्रायः इन्हीं दो कारणों से मनुष्यों का आर्थिक सन्तुलन बिगड़ता है। इन पर थोड़ा ध्यान दौड़ाइये कि आप ठीक कर रहे हैं या आर्थिक बोझ तो नहीं लाद रहे हैं।
प्रो. स्टुअर्ट केञ्जी ने अपनी पुस्तक “आपका जीवन” में आप बीती घटना पर प्रकाश डालते हुये लिखा है-”जब से हमने उधार लेना बन्द कर दिया, कुछ पैसा बचने लगा है। बचत का यह निर्दोष और सरल उपाय है। हमारे पास उधार की खरीद की वस्तुओं से दो स्टोर भर गये हैं। इन्हें आवश्यक समझकर नहीं खरीदा था। दुकानदार ने इनका लालच दिखाया और हमारी दिलचस्पी का अनुचित लाभ उठाकर हमारे हवाले कर दिया। उस समय तो प्रतीत नहीं हुआ, पर जब बिल भुगतान करना पड़ा तो मालूम हुआ, भारी गलती हो गई। अब मेरी धर्मपत्नी सौदा खरीदती हैं। सब नकद सौदा, उधार नहीं। हमारे पास पैसे उतने ही होते हैं, जितने से उपयोगी वस्तुयें खरीद सकें। शौक और मजेदारी की चीजें खरीदना छोड़ दिया है। अब न स्टोर सम्भालने की कठिनाई रही और न आर्थिक तंगी। नकद खरीदने की आदत ने सब ठीक कर दिया है।”
ऋण, साहूकार इस लालच से देता है कि एवज में उससे कुछ अधिक पैसे मिलेंगे। ब्याज न मिले तो बहुत कम लोग दूसरों की आर्थिक सहायता करना चाहेंगे। सौदागर भी ठीक ऐसे ही होते हैं। उन्हें मालूम होता है कि आपको वेतन कब मिलता है। उतने समय के लिये उधार वस्तु इस हिसाब से देंगे कि जितने की आपने वस्तु खरीदी है, उसका ब्याज भी साथ में जोड़ लेंगे। इस तरह 1 रु. की वस्तु सवा 1 रु. में देना तो सामान्य बात होगी, पर यदि दुकानदार अधिक लालची है तो वह ड्योढ़े दाम तक वसूल करता है। आप यह समझते हैं कि आपका काम चल गया पर दरअसल ऐसा समझना भारी भूल है। जितने पैसे से आप महीने भर का गुजारा कर सकते थे, उधार लेने से आपको उस पैसे से ड्योढ़े की जरूरत पड़ेगी। इस अतिरिक्त व्यय की पूर्ति दो ही तरह से हो सकती है, या तो आप सदैव कर्ज में बने रहें या फिर अवाँछनीय तरीके से रुपया कमाने का प्रयत्न करें। यह दोनों ही अवस्थायें दुःखदायी होती हैं। दोनों से मनुष्य के कष्ट और क्लेश बढ़ जाते हैं।
ऐसा भी होता है कि आप एक पर्चा लिखकर दुकान से सामान मँगा लेते हैं, अपने पास उसका कोई लिखित हिसाब नहीं रखते। दुकानदार उस पर्चे का सामान आपको दे देता है और कीमत से अधिक पैसे अपनी बही में आपके नाम चढ़ाकर पर्चे को फाड़कर फेंक देता है। महीने-भर बाद जब हिसाब होता है और आपको अनुमान से अधिक पैसे देने पड़ते हैं तो हिसाब पूँछते है पर एक-एक तारीख में आपने क्या मँगाया है, इसका आपके पास कोई प्रमाण नहीं होता। दुकानदार अपनी बही दिखा देता है-देखिये महाशय! अमुक तारीख में इतने का सौदा गया अमुक में इतने का-कुल इतना पैसा हुआ। इसके बाद पैसा भुगतान कर देने या लड़ाई-झगड़े के अतिरिक्त आपके पास कोई चारा नहीं रह जाता। आपको दुबारा फिर उसी दुकान में जाना है, इसलिये आपको ही हार मानकर पैसा चुकता करना पड़ता है। एक का डेढ़ देना पड़ता है।
किश्त पर सौदा लेने की प्रथा का इन दिनों बहुत विस्तार हो गया है। दुकानदारों की उसमें उदारता हो, ऐसी बात नहीं, यह तो लोगों को सौदा खरीदने के लिये लालच देने का तरीका है। आप की इच्छा थी कि रेडियो खरीद लेते पर वह तीन सौ रुपये में आता है। आपका वेतन कुल दो सौ रुपये मासिक है, इस पर आवश्यक खर्चे भी हैं। ऐसी अवस्था में रेडियो कैसे खरीद पाते? आपने विज्ञापन देखा कि रेडियो किश्त में मिलता है। तीन किश्तें हैं। प्रति किश्त में सवा सौ रुपये देने होंगे। इतना पैसा आप किसी तरह बचा सकते हैं, इसलिये झट से दुकान पहुँचे और आर्डर दे दिया। 6 महीने की तीन किश्तें हो गई हैं। कुल मिलाकर तीन सौ पचहत्तर रुपये देने पड़े। तीन सौ रुपये का रेडियो तीन सौ पचहत्तर रुपये में लिया। 6 महीने में पचहत्तर रुपये गँवा दिये। इतने से कोई बड़ा काम ले सकते थे, पर आपने ऐसा सोचा कहाँ? आपको तो रेडियो की जल्दी थी। यह रुपये बच्चों की पढ़ाई के काम आयेंगे, इस पर आपने विचार ही कब किया?
उधार लेने के बजाय आप प्रति मास अपनी आय से पचास रुपये पोस्ट ऑफिस में डाल देते तो शेष पैसों से आपका महीने-भर का खर्च भी आराम से चलता रहता और छः महीने पीछे रेडियो जितनी कीमत आराम से जमा हो जाती। पचहत्तर रुपये भी न जाते और छः महीने में पोस्ट ऑफिस से 300) पर ब्याज और मिल जाता। तीस वर्ष तक आपका घर बिना रेडियो का रहा तो क्या छः महीने और नहीं रह सकता था। आप जल्दी न किया करें और मनचाही वस्तुओं को किश्त पर खरीदने की अपेक्षा उतना पैसा बचाकर खरीद लिया करें, यह आपके आर्थिक सन्तुलन में कहीं अधिक सहायक हो सकता है।
नकद वस्तु खरीदना बड़ी समझदारी की बात है इससे आपकी आवश्यकतायें सीमित रहती हैं और किसी तरह के कोई झगड़े नहीं बढ़ते। एक रुपये की चीज एक रुपये में ही मिल जाती है और अनावश्यक सामान का स्टोर जमा करने की बुराई से भी बचे रहते हैं।
नकद सौदा खरीदने में दुकानदारों में भी आपकी साख बनी रहती है और वे सहसा आपको ठगने का साहस नहीं कर सकते। आप अपनी ही कमजोर नीति के शिकार होते हैं और उसी से दुकानदारों को आप से अधिक पैसा ठग लेने का साहस होता है।
बाजार में ऐसे भी दुकानदार होते हैं, जो ईमानदार आदमी को वाक्पटुता द्वारा, कलेंडर, चित्र या तस्वीर देकर अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। कुछ दिन अच्छा सामान देते हैं, बाद में बुरा सामान देने की धूर्तता भी करने लगते हैं और यह उदारता दिखाने लगते हैं कि आप जब चाहें, उनके यहाँ से उधार सामान खरीद ले जायें। कोई नई चीज मँगायेंगे तो आपको दिखाकर कहेंगे-औरों को तो इस दाम देते पर आपको कम में इतने में दे देंगे। ऊँची कीमत की वस्तु आपको उधार में दे देंगे। आप यह समझेंगे कि कम कीमत में चीज मिल रही है, बाद में ही पैसे दे देंगे तो क्या हर्ज है? पर ऐसा करना भी भूल है। दुकानदार अपनी आमदनी देखता है और ग्राहक बनाने के लिये प्रायः हर किसी से वह ऐसी ही प्रलोभनपूर्ण बातें करता है। आपको उसकी दिखावटी आत्मीयता पर नहीं आकर्षित होना चाहिये। अगर कोई वस्तु दरअसल उपयोगी ही हो और उस समय आपके पास पैसे न हों तो उसके निर्माता का पता जान लीजिये और बाद में स्वयं जाकर या पोस्ट द्वारा मँगा लीजिये। अच्छी खरीद का यह अच्छा तरीका है। इससे निर्माता और उपभोक्ता का सीधा सम्बन्ध हो जाने के कारण बीच में दुकानदार द्वारा गड़बड़ी पैदा करने की सम्भावना भी दूर रहती है। ऐसी चतुरता आर्थिक सन्तुलन की दृष्टि से हर गृहस्थ को बरतनी चाहिये।
छोटी-छोटी आदतें दुरुस्त हो जायें तो कम आय के लोग भी आराम की जिन्दगी जी सकते हैं। उधार सौदा लेना बुरा स्वभाव है, यह ऋण से कम नहीं। जहाँ तक संभव हो, हमें नकद खरीदने की ही आदम डालनी चाहिये।