Magazine - Year 1967 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विवाहों में अनावश्यक अपव्यय क्यों करें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सामान्य स्थिति में किसी भी गृहस्थ के पास जाकर पूछिए-कि क्या वह बच्चों की ब्याह-शादी में होने वाले अपव्यय को पसन्द करता है? तो सौ में पिचानबे व्यक्तियों का यही उत्तर होगा कि इस अपव्ययता के कारण बच्चों के शादी-ब्याह जान के लिए जंजाल बने हुए हैं। बच्चे के ब्याह योग्य अवस्था में आने से पहले ही उनके ब्याह के लिए पैसा जुटाने की चिन्ता से दिन की भूख और रात की नींद चली जाती है-तब भी लोग न जाने क्यों ब्याह-शादियों को सादे सरल डंग से क्यों नहीं करते?
यद्यपि ब्याह-शादियों में इस प्रकार की अपव्ययता का कोई धार्मिक विधान नहीं है और न ऐसा कोई सामाजिक बन्धन ही है जिसका निर्वाह न करने से किसी को बहिष्कृत ही कर दिया जाये। बन्धन है तो लोगों की रूढ़िवादी मनोवृत्ति का। चूँकि ब्याह-शादियों में प्रदर्शन एवं धूमधाम की प्रथा एक लम्बे समय से चली आ रही है इसलिए वह एक रूढ़ि परम्परा बन कर बन्धन बन गई है और लोग अभ्यास-वश वैसा करते और करने के लिए मजबूर होते चले जा रहे हैं।
इच्छा न होते हुए भी लोग ब्याह-शादियों में पैसे की बरबादी करते रहते हैं। इसके पीछे अनेक कारण काम कर रहे होते हैं। पहला कारण तो संस्कारों की प्रेरणा है। शादी-ब्याह के अवसर आते हैं लोगों में अपव्ययता का एक जुनून-एक उन्माद-सा जाग उठता है, तब उन्हें याद ही नहीं रहता कि वे क्या कर रहे हैं। ब्याह-शादियों के अवसर को वे खर्च करने का त्यौहार मान लेते हैं। मन और मुट्ठी खोल कर खर्च करते हैं। पास नहीं होता तो वे कर्ज लेते हैं। घर-मकान बेचते व रहन करते हैं मनुष्य कुल परिवार एवं सामाजिक वातावरण से संस्कार ग्रहण किया करता है यह प्रक्रिया इतनी सहज स्वाभाविक है कि प्रयत्न किये अथवा सीखे जाने बिना ही वह उन संस्कारों में दीक्षित हो जाता है जो कि फिर उसके लिए बन्धन जैसे बन जाया करते हैं। प्रथा परम्पराओं की मान्यता भी ऐसे संस्कार ही होते हैं जिनसे प्रेरित लोग न चाहते हुए भी वैसा करने को विवश होते हैं।
किन्तु विवेकशीलता इसी में है कि मनुष्य कोई भी प्रथा परम्परा अपनाने से पूर्व उसके औचित्य एवं अनौचित्य पर विचार कर ले और जो कुछ उपयुक्त हो उसे ग्रहण कर बाकी को कूड़ा-कर्कट की तरह छोड़ दे। इतनी निर्बलता मनुष्य के लिए कदापि शोभनीय नहीं है कि उसका मन-मस्तिष्क महीन कपड़े की तरह परम्परागत रीति-रिवाजों में बिना सोचे-समझे रँग जाए। ब्याह-शादियों के अपव्ययता पूर्ण रीति-रिवाज परम्परागत रूढ़ियां हैं, इनमें न कोई औचित्य ही है और न उपयोगिता। उल्टी हानि ही हानि है स्वतन्त्र चिन्तन के बिना मनुष्य एक ऐसा यन्त्र बन जाता है जिसे कोई भी अच्छी बुरी बात, उल्टा सीधा वातावरण अपने अनुरूप सञ्चालित कर सकता है। यह जड़ता है जो विवेकवान् मनुष्य के लिए लज्जा की बात है।
ब्याह-शादियों में अपव्ययता का कारण लोक-लज्जा का भय भी बतलाया जाता है। अनेक समझदार लोग यह कहते सुने जाते हैं कि “शादियों में पैसे की बरबादी बुरी बात है, किन्तु क्या किया जाये-लोकापवाद के भय से इच्छा न रहते हुए भी वैसा करना होता है। यदि न करें तो लोग अँगुली उठाते हैं, आलोचना तथा मीन-मेख निकालते हैं। कंजूस, खसीस, असामाजिक, न्यारिया आदि न जाने क्या-क्या कहते हैं। इन्हीं कटुताओं से बचने के लिए भले आदमियों को ब्याह-शादियों के खर्चीले रीति-रिवाज पूरे करने होते हैं।
गलती को सुधारने और नेक बात अपनाने में लोक भय से विचलित हो जाना कायरता है। उचित अनुचित के संग्रह त्याग में लोग भय की बाधा उन्हीं को लगती है जो आँतरिक रूप से निर्बल होते हैं। लोक भय का बहाना लेने वाले अधिकतर ऐसे लोग ही होते हैं, जिनकी आदर्शों के प्रति पूर्ण निष्ठा नहीं होती। हवा की चाल पर उड़ने वाले तिनकों की तरह जिधर अधिक लोग चल रहे होते हैं चल पड़ते हैं। इस प्रकार की अस्तित्व हीनता मनुष्यता के लिए कलंक की बात है। सत्य एवं उपयुक्त को स्वीकार करना और असत्य एवं अनुपयुक्त को त्याग देना ही विवेक का लक्षण है। बहुत लोग जिस गलत बात को कर रहे हैं इसलिए हमको भी करना चाहिये- इस प्रकार की विचार धारा उन्हीं लोगों की होती है, जिनके पास अपनी बुद्धि का संबल नहीं होता। पूरी दुनिया के एक ओर हो जाने पर भी असत्य एवं अहितकर के आगे सिर न झुकाना ही मनुष्यता का गौरव है। लोग बुरा न कहें, अँगुली न उठायें इसलिए हमें गलत बात को भी कर डालना चाहिये, यह कोई तर्क नहीं है। विवेक का तकाजा यही है कि उचित को स्वीकार करने के सिवाय और सब कुछ अस्वीकार कर दें। दुनिया के लोगों की भेड़-चाल प्रसिद्ध है। वह स्वयं तो जिस खाई खन्दक की ओर चलती है सो तो चलती ही रहती है, साथ में यह भी चाहती है कि दूसरे विवेकशील लोग भी उसका अनुगमन करें, और यदि वे वैसा नहीं करते तो उनकी आलोचना करते हैं।
लोकापवाद से डरने वाले लोगों से पूछा जाये कि यदि एक बार बहुत से लोग उनसे यह कहें कि वे अपने घर में आग लगा लें- तो क्या वे अपवाद के भय से अपने घर में आग लगा लेंगे । निश्चय ही कोई ऐसा करने को तैयार न होगा। तब पता नहीं कि लोग ब्याह-शादियों के अपव्यय हो असह्य एवं अनुचित मानते हुए वैसा करने से विरत क्यों नहीं होते। कहा जा सकता है कि लोक द्वारा घर में आग लगा लेने की माँग करना अनुचित होगा। इसलिए उसका मान जाना आवश्यक नहीं। यदि घर में आग लगाना उचित नहीं तो फिर पैसे की निरर्थक बर्बादी ही कहाँ तक उचित है? घर की सारी धन-सम्पत्ति बेकार के हो-हल्ला में उड़ा देना घर में आग लगाने के समान ही है। तब लोकापवाद की इस अनुचित माँग को क्यों पूरा किया जाता है? क्यों नहीं उसे, घर फेंक देने की माँग के समान ही अनुचित कह कर अस्वीकार कर दिया जाता है।
वास्तविक बात यह है कि ब्याह-शादियों में अपव्यय की अस्वीकृति में लोक-भय उतना सक्रिय नहीं होता जितना कि मनुष्य की , बड़प्पन दिखलाने की लालसा! अनेक निर्बल-मना व्यक्ति प्रदर्शन द्वारा समाज में अपने को बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया करते हैं। यों तो प्रदर्शन करने का कोई अवसर मिलता नहीं। ब्याह-शादियों में वे अपनी इस हविश को अवश्य पूरा करने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इस प्रकार के लोग होते बड़ी ही हल्की मनोभूमि के व्यक्ति! ऐसे लोग सामन्तशाही के युग में रह रहे होते हैं और यह नहीं समझ पाते कि अब वह समय नहीं रहा जब पैसे का अपव्यय करने वाला बड़ा आदमी समझा जाता था। अब लोगों की चेतना आगे बढ़ गई है और मान्यताएँ बदल गई हैं। आज बड़प्पन का मानदण्ड सरलता, सादगी और सत्कर्म बन गये हैं। निःसन्देह यही मानदण्ड बड़प्पन का सही और उपयुक्त मानदण्ड है। अपव्यय में बड़प्पन अथवा इज्जत की कल्पना करना मरु-मरीचिका में जल देखने के समान है। आज के कठिन आर्थिक समय में बेकार के स्वाँग-तमाशों में पैसा बरबाद करना बड़प्पन नहीं ओछेपन का लक्ष्य है। जिसके पास पाप तथा हराम की कमाई बेकार पड़ी होगी। ब्याह-शादियों के प्रदर्शन में अन्धाधुन्ध खर्च कर सकता है। मेहनत मजदूरी से खून पसीना एक कर के पैसा कमाने वाले यदि इसको इस प्रकार बर्बाद करते हैं तो उन्हें बड़ा आदमी तो क्या भूखा मनुष्य ही माना जायेगा। आज कठिनता के युग में जो निरर्थक कामों में पैसे की होली जलाते हैं, लोग उसकी आय में भ्रष्टाचार का माध्यम मान लेते हैं उसकी नेक कमाई में सन्देह करने लगते हैं। यह कोई बड़प्पन की बात नहीं। पैसे का पैसा बरबाद हो और समाज में भ्रष्टाचार का सन्देह किया जाये-ऐसे काम करना किसी भी दशा में बुद्धिमानी न कहा जायेगा। आज इज्जत पैसा बरबाद करने में नहीं। मितव्ययिता द्वारा खर्च कर के बचाने और उसे राष्ट्र, धर्म, समाज, सभ्यता , संस्कृति एवं अपने आप परिवार की उन्नति के साधनों में सदुपयोग करने में है। सम्मान, प्रतिष्ठा अथवा बड़प्पन का अधिकारी वही हो सकता है जो समाज की कुछ सेवा करता है, दीन दुखियों की सहायता कर परोपकार एवं परमार्थ का उत्पादन करता है। व्यर्थ विषयों में पैसा नष्ट करने वालों का प्रतिष्ठा पाने का स्वप्न कभी पूरा नहीं हो सकता। जो लोक भय के पीछे छिपे अपने इस अहंकार को नहीं देखते वे अपने विवेक और अपनी आत्मा को धोखा देते हैं।
अनेक लोग ब्याह-शादियों में होने वाले अन्धाधुन्ध अपव्यय को प्रसन्नता की अभिव्यक्ति बतलाते हैं। उनका कहना होता है कि बच्चों के प्रति प्रेम के कारण, जब उनका विवाह होता है अभिभावकों को अतिशय प्रसन्नता होती है । यही कारण है कि वे उस अवसर पर खूब धूमधाम किया करते हैं। इस प्रकार का तर्क भी अपव्ययता के समर्थन में कोई सारपूर्ण तथ्य को प्रकट नहीं करता । बच्चों के शादी-ब्याह में प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही है। किन्तु उस प्रसन्नता को उचित नहीं कहा जा सकता जिसके प्रवाह में मनुष्य अपना विवेक बहा दे और निरर्थक के कार्य करने लगे। यदि पैसा खर्च करने से ही हर्ष की अभिव्यक्ति होती है तो उसके लिए अनेक ऐसे तरीके मौजूद हैं, जिन्हें अपनाने से हर्ष भी प्रकट हो जाये, पैसे का सदुपयोग भी हो, प्रतिष्ठा प्राप्त हो। ढोल-ताशे, गाजे-बाजे, धूम-धड़ाका, नाच-माना, स्वाँग-तमाशे बिजली-बत्ती, आतिशबाजी, नेगन्यौछावर, दावत-ज्यौनार के बड़े-बड़े प्रबन्ध एवं आयोजन करने में पैसा खर्च करने के बजाय अन्धे, लूले, लँगड़े अपाहिज तथा असमर्थ व्यक्तियों का दुःख दूर करने, राष्ट्र समाज, धर्म की उन्नति में सहयोग देने, अविद्या, गरीबी ओर बेकारी की समस्या का हल निकालने में उस पैसे का सदुपयोग किया जा सकता है। खुशी प्रकट करने का यह तरीका न केवल सभ्यतापूर्ण ही बल्कि परमार्थ एवं पुण्य रूप होगा जिससे आत्म-कल्याण के साथ वर-वधू के मंगल भविष्य की सम्भावना बढ़ेगी। बच्चों के शादी-ब्याह में होने वाले हर्ष की अभिव्यक्ति करने के यह सुशील तरीके छोड़ कर नट, भाँडों अथवा स्वाँगियों, बहरूपियों को लुटाना अथवा आतिशबाजी, बिजली और अन्य प्रकार के हुड़दंगों में गँवाना आज की बहुत बड़ी अबुद्धिमत्ता मानी जायेगी।
बहुत बार आदर्श विचार वालों को घर के बड़े-बूढ़ों की जिद के सम्मुख झुकना पड़ता है। बाबा-दादी, नाना-नानी आदि गुरुजन अनुरोध करते हैं कि उनके नाती, पौत्र की शादी खूब धूम-धाम से की जाये। अपने अन्तिम दिनों में वे उस सुख, समारोह को आँख भर कर देख लें। यदि उन्हें पैसे की बचत के लाभ समझाये जाते हैं तो उनका उत्तर यही रहता है कि पैसा बच्चों से ज्यादा प्यारा नहीं है। वह तो फिर भी मिल जायेगा लेकिन ऐसी खुशी के अवसर बार-बार नहीं आते। यदि बड़े-बूढ़ों की बात नहीं मानी जाती है तो वे नाराज होकर दुःख मानते हैं। उनकी अनुरोध रक्षा में सिद्धान्तवादियों को भी कभी-कभी झुक जाना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाये तो अवज्ञा होने अथवा माँ-बाप को बच्चों पर इजारा दिखाने का उपालम्भ देते हैं।
ऐसे समय पर अभिभावकों को किसी प्रकार समझा बुझा कर ठीक मार्ग पर ले जाना चाहिये। और यदि तरह-तरह से समझने पर भी वे अपनी जिद नहीं छोड़ते तो वृद्ध-हठ, बाल-हठ के सिद्धाँत के अनुसार अपने आदर्श की रक्षा करनी चाहिए। गुरुजनों की जहाँ हर उचित आज्ञा शिरोधार्य है वहाँ अनुचित अनुरोध अपेक्षणीय भी है । कोई जरूरी नहीं कि वृद्धों के बाल हठ की रक्षा करने के लिए आर्थिक संकट लाकर परिवार का भविष्य धुँधला किया जाये। उनकी नाराजगी को भावुक दृष्टि से न देख कर उचित अनुचित की दृष्टि से देखना चाहिये और कर्तव्य की कठोरता के नाते सहन कर लेनी चाहिये। आगे विवाह का वातावरण सिमट जाने पर सभी यथा-स्थिति में आकर प्रसन्न रहने लगेंगे।
इस प्रकार विवाहों के अपव्यय के कारणों में लोकापवाद, बड़प्पन, प्रसन्नता अथवा बड़े-बूढ़ों की नाराजगी अथवा हठ आदि को जोड़ लेना उचित नहीं। यह सब कारण तथ्यहीन हैं। इनके पीछे कोई भी औचित्य नहीं है। इसका विशेष कारण है अभिभावकों का स्वयं कमजोर तथा रूढ़ि प्रेरित होना। देश, समाज, बच्चों तथा अपना हित देखते हुए विवाहों में व्यर्थ अथवा अपव्यय की विकृति का त्याग कर देना ही उचित एवं बुद्धिमत्तापूर्ण है।