Magazine - Year 1967 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारी शिक्षा योजना हर कसौटी पर खरी सिद्ध होगी।
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आगामी गायत्री जयन्ती से गायत्री तपोभूमि में जिस त्रिविध प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा रही है उसके पीछे नव-युग की पृष्ठभूमि तैयार कर सकने वाले- उत्कृष्ट व्यक्तियों का निर्माण करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। कोई बड़ा काम वे ही व्यक्ति सम्पन्न कर सकते हैं जो गुण,कर्म, स्वभाव की दृष्टि से- दूरदर्शिता एवं प्रबुद्धता की दृष्टि से सुसम्पन्न हों। ऐसे व्यक्ति बड़े परिश्रमपूर्वक बनाने और ढालने पड़ते हैं। गाँधी जी ने स्वाधीनता आँदोलन का नेतृत्व कर सकने वाले व्यक्ति ढाले थे। युग-निर्माण की सर्वतोमुखी पृष्ठभूमि विनिर्मित करने के लिए जिन सजीव शस्त्रों की-उत्कृष्ट व्यक्तित्वों की आवश्यकता है, वे अनायास ही नहीं मिल जाएंगे वरन् प्रयत्नपूर्वक ढालने पड़ेंगे। त्रिविध प्रशिक्षण के रूप में यही कार्य प्रारम्भ किया जा रहा है।
देश के कोने-कोने में इसी स्तर के विद्यालय स्थापित करने पड़ेंगे जैसे कि मथुरा में इस समय किए जा रहे हैं इनका संचालन ज्ञान और तप की पूँजी से सम्पन्न वानप्रस्थ लोग करेंगे। डाक्टरों की, इंजीनियरों की पढ़ाई चार वर्ष की होती है। इससे कम में नव-निर्माण का प्रयोजन पूरा कर सकने वाले विद्यालय के प्रिंसीपल भी प्रशिक्षित नहीं किए जा सकते। देश में अनेक प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रसारण करना है, विवाहोन्माद, नशेबाजी, उच्छृंखलता, स्वार्थलिप्सा, भ्रष्टाचार जैसी अनेक दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्षात्मक मोर्चा खड़ा करना है। जनमानस को नारकीय निकृष्ट स्तर से ऊपर उठा कर स्वर्गीय उत्कृष्टता के उच्च सोपान तक पहुँचाना है इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए विचार क्राँति का दावानल प्रदीप्त करना है। यह सब कार्य निस्पृह आत्मबल एवं तत्व दृष्टि से सम्पन्न गृह-निवृत्त वानप्रस्थ ही करेंगे। उनकी ढलाई और शिक्षा चार वर्षीय तप एवं ज्ञान साधना के बिना सम्पन्न न हो सकेगी। कोई संस्थान एवं अभियान कैसे चलाया जा सकता है, इसका व्यावहारिक मार्ग दर्शन वे लोग चार वर्ष मथुरा रह कर प्राप्त कर लेंगे और युग-निर्माण की एक बड़ी आवश्यकता को पूरा करेंगे।
गृह कार्यों की जिम्मेदारी के कारण जो लोग अधिक व्यस्त हैं। आयु अधिक हो जाने के कारण देर तक पढ़ नहीं सकते, जल्दी ही उपार्जन में जिन्हें लगना है ऐसे लोगों के लिए एक वर्ष की शिक्षा है वे इस अवधि में जीवन रथ के संचालन की सर्वतोमुखी शिक्षा प्राप्त कर लेंगे। रेल, मोटर आदि चलाने वाले ड्राइवर, उस मशीन का ठीक उपयोग करने की विधि तथा कल-पुर्जों की बनावट, खराबी, मरम्मत आदि की आवश्यक जानकारी रखते हैं। पर खेद है कि हम मानव शरीर और मन जैसे बहुमूल्य यान वाहन का उपयोग तो करते हैं पर उसको सही तरीके से इस्तेमाल करना नहीं जानते। यही कारण है कि हम पग-पग पर दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं। हमारा शरीर और मन इसी प्रकार की दुर्घटनाओं से क्षतिग्रस्त होकर अस्त-व्यस्त पड़ा रहता है। मानव जीवन प्राप्त कर के जिन महान सफलताओं को आसानी से प्राप्त किया जा सकता था, अपने और दूसरों के लिए स्वर्गीय वातावरण विनिर्मित किया जा सकता था, गैर जानकारी के कारण हम उससे वंचित ही बने रहते हैं। अन्यायों, असफलताओं एवं शोक सन्तापों का रोना रोते हुए उनका दोषारोपण किन्हीं दूसरों पर करते हुए मौत के दिन पूरे किया करते हैं। आवश्यकता ऐसे प्रशिक्षण की है जो शरीर और मन और व्यवहार के सम्बन्ध में उपयुक्त शिक्षा देकर व्यक्ति को सर्वतोमुखी प्रगति का अधिकारी बना दे। प्रौढ़ों को एक वर्षीय शिक्षा का जो पाठ्यक्रम रखा गया है उससे इसी आवश्यकता की पूर्ति होगी। आशा करनी चाहिए कि इस प्रशिक्षण को प्राप्त कर निकले हुए शिक्षार्थी अपने लिए-अपने परिवार एवं समाज के लिए एक वरदान बन कर निकलेंगे।
तीसरी शिक्षा किशोरों की है। जूनियर हाई स्कूल तक पढ़े 4 वर्ष में और हाई स्कूल तक पढ़े तीन वर्ष में इसे पूरा करेंगे। यह ग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई है। अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, गणित, कानून, समाज-शास्त्र, मनोविज्ञान शरीर शास्त्र, विश्व परिचय, व्यवसाय, लोक-व्यवहार आदि जीवनोपयोगी हर विषय इसमें पढ़ाया जाएगा। सरकारी कालेजों से निकले हुए -छात्रों की तुलना में इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले छात्र हर दृष्टि से बहुत अधिक अनुभवी, अग्रगामी एवं प्रतिभाशाली सिद्ध होंगे। यह शिक्षार्थी अपनी अपने परिवार की आर्थिक तथा अन्यान्य समस्याओं का सुलझाने में तो समर्थ होंगे ही, साथ ही विश्व कल्याण की-नव निर्माण की-भूमिका सम्पादित करने में भी महत्वपूर्ण योगदान करेंगे।
शिशु-कक्षाओं से लेकर जूनियर हाई स्कूल तक के लिए भी ऐसे ही विद्यालयों की आवश्यकता है। हम स्वयं तो इस प्रकार की व्यवस्था नहीं बना सके पर आशा है कि दूसरे लोग उसे भी बनाएंगे और प्रेरणाप्रद प्रखर प्रशिक्षण के माध्यम से जन-मानस के नव-निर्माण का पुण्य प्रयोजन समग्र रूप से पूरा हो सकेगा। मथुरा में उसका शुभारम्भ है। अगले दिन इस उद्यान के पेड़-पौधे फलेंगे फूलेंगे और उनसे उत्पन्न बीजों द्वारा इस समस्त विश्व को फिर हरा भरा बनाया जा सकेगा। आज का हमारा छोटा शुभारम्भ अगले दिनों एक ऐसे विशालकाय नव-निर्माण का साकार स्वरूप प्रस्तुत करेगा जिसे देखकर असम्भव को सम्भव होने जैसा आश्चर्य किया जा सके।
हमारा व्यक्तिगत कार्यक्रम पाँच वर्ष तपश्चर्या प्रधान होगा। गायत्री तपोभूमि की इमारत में युग-निर्माण का उत्तरदायित्व वहन करने वाले प्रखर व्यक्तित्वों का निर्माण करना होगा इसलिए यह प्रशिक्षण व्यवस्था आरम्भ की गई है। इसका संचालन एवं अध्ययन-अपने अन्य साथी सहचरों के साथ पाँच वर्ष तक हम स्वयं करेंगे। एक व्यवस्थित ढर्रा चल पड़ने पर हमारे उत्तराधिकारी उसे आसानी से गतिशील बनाये रह सकेंगे। यह एक बड़ा काम है। इसे स्थानीय छोटी-सी शिक्षण व्यवस्था नहीं समझा जाना चाहिए कि यह एक छोटी चिनगारी जलाई जा रही है जो आगे चलकर विशाल दावाग्नि का काम करेगी। नव-निर्माण की महान् हलचल को गतिशील बनाने के लिए प्रखर व्यक्तित्वों एवं कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की जरूरत पड़ेगी। प्रस्तुत प्रशिक्षण योजना उसी की पूर्ति के लिए है।
इस महान शुभारम्भ को सफल बनाने के लिए प्रत्येक परिजन की सहानुभूति एवं सहायता आवश्यक है। सबसे पहली आवश्यकता उपयुक्त छात्रों की है। कूड़ा-करकट यहाँ जमा होगा तो उसे सुधारने में ही सारी शक्ति लग जायगी। बिगड़े छात्र सुधारने की स्थिति में पहुँचने तक ही हमारी सारी शक्ति खा जायेंगे। आवश्यकता सुसंस्कृत छात्रों की है जिन्हें डाल कर विद्यालय का यश और मिशन का प्रयोजन पूरा किया जा सके। अतएव प्रत्येक परिजन को अपने आप-पास के क्षेत्र में से तीनों प्रशिक्षणों के लिए सुयोग्य शिक्षार्थी तलाश करने चाहिए और उन्हें प्रेरणा प्रोत्साहन देकर मथुरा भिजवाना चाहिए। जिनका अधिक जन संपर्क है ऐसे लोग-बड़ी आसानी से इस प्रकार का सहयोग देकर इस महान अभियान की सफलता का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों में विद्यालय के मूल प्रयोजन की चर्चा की गई है। साथ ही आजीविका उपार्जन सम्बन्धी-शिल्प शिक्षा भी इसमें सम्मिलित है। उसे हमारी दृष्टि से दूसरा स्थान प्राप्त है। पर लोग दूसरी तरह ही सोचते हैं। आज शिक्षा का प्रयोजन आजीविका उपार्जन है। कमाई के लिए पढ़ाई यही सबकी मान्यता है। यह प्रयोजन एक सीमा तक सरकारी डिग्रियों से पूरा होता है इसलिए वर्तमान शिक्षा-प्रणाली से घोर असन्तोष होते हुए भी लोग अपने बच्चों को उसी में धकेलने के लिए मजबूर होते हैं और ऐसे प्रशिक्षणों में-जैसा कि हम आरम्भ कर रहे हैं-अपने बच्चे भेजने को रजामन्द नहीं होते। लोगों की इस प्रवृत्ति को हम समझते हैं इसलिए उन उद्योगों का समावेश अपनी शिक्षा प्रणाली में कर रहे हैं जिससे नौकरी की अपेक्षा स्वावलंबी जीवन यापन करते हुए अपेक्षाकृत अधिक धन भी कमाया जा सके। इस कसौटी पर भी अपनी शिक्षा अधिक ही सफल रहेगी। सामान्य शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी डेढ़-दो सौ की नौकरी मुश्किल से पाते हैं पर प्रस्तुत योजना से सिखाये गए शिल्पों में से एक भी ऐसा नहीं है जो ठीक तरह चलाये जाने पर दस-बीस रुपया रोज की आमदनी न दिला सके।
अभी शिक्षा 20 फीसदी है। अगले दस वर्ष में वह 80 फीसदी हो जायगी। तब आज की तुलना में प्रेस व्यवसाय भी कम से कम चार गुना बढ़ जायगा। छोटे कस्बों में भी कई-कई प्रेस चलेंगे। यह व्यवसाय भी 4-5 हजार की पूँजी से ही छोटे रूप में आसानी से चल सकता है और उसमें निस्सन्देह दस रुपया प्रति दिन का काम मिल सकता है। इतना ही नहीं उस कार्य में घर के कई व्यक्ति सिखा कर इस लायक बनाए जा सकते हैं जो घर रह कर सौ-डेढ़ सौ रुपये मासिक की मजदूरी कर लिया करें। इस प्रकार एक पूरे परिवार का वह आजीविका स्रोत बन सकता है। अपने पास पूँजी न हो तो इस विषय का सर्वांगपूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति किसी की साझेदारी में काम आरम्भ कर सकता है। इतना भी न बन पड़े तो प्रेस मैनेजर, प्रूफ रीडर, कम्पोजीटर, मशीनमैन, बाइन्डर जैसे कामों के लिए किसी प्रेस में अच्छे वेतन की नौकरी कर सकता है।
रबड़ की मुहरें बनाना, एक सहायक काम प्रेस व्यवसाय के साथ जुड़ा रह सकता है। इसमें लागत की तुलना से प्रायः तीन गुना लाभ रहता है। 10) प्रति दिन की मुहरें बनाने को मिल जाय तो आसानी से 6) बच सकते हैं। जो लोग लेटर पेपर आदि नहीं छपा सकते वे मुहरों से काम चलाते हैं, हर संस्था में, हर छोटे-बड़े दफ्तर में कई-कई मुहरों की जरूरत पड़ती है। वे घिसती खराब होती भी रहती हैं। इस प्रकार थोड़े से सरकारी दफ्तरों, संस्थाओं, व्यवहारी, व्यापारियों से संपर्क बना लिया जाय तो यह काम भी थोड़ा-बहुत मिलता ही रहेगा ओर प्रेस के अतिरिक्त कुछ और आमदनी भी होती रहेगी।
इसी प्रकार पुस्तक प्रकाशन, पत्र-पत्रिकाओं का निकालना यह व्यवसाय भी प्रेस खोलने के साथ जोड़ा जा सकता है। जो कागज प्रेस में छपें उन्हें तथा विवाह-शादियों के कार्ड, लिफाफे आदि विक्रयार्थ रखे जाय तो वे अपने आपसे एक छोटा व्यवसाय बन सकते हैं। घर के लोगों को सीना, मोड़ना, काटना सिखा लिया जाये तो उस प्रेस में छपने वाली पुस्तकों, रसीद बहियों, पैडों आदि की बाइंडिंग, परफोरेटिंग घर में ही हो सकती है और यह परिवार के लिए एक सहायक गृह-उद्योग मिल सकता है। प्रेस अपने मालिक को ही नहीं उसके परिवार को भी सम्मानित आजीविका दे सकता है। उसकी शाखा, प्रशाखा फूटने की तो बहुत बड़ी गुंजाइश है। कम पूँजी में आवश्यक अर्थ उपार्जन की व्यवस्था कर सकने वाला प्रेस व्यवसाय है उसका आदि से अन्त तक सर्वांगपूर्ण शिक्षण प्राप्त व्यक्ति न तो बेकार रह सकता है और न भूखा रह सकता है सच तो यह है कि यदि भाग्य साथ दे तो उसमें आगे बढ़ने और फलने-फूलने की काफी गुंजाइश है।
साबुन हमारा दूसरा औद्योगिक प्रशिक्षण है। यह घरेलू आवश्यकता की चीज है। हर जगह इसकी खपत है। ज्यों-ज्यों शिक्षा और खुशहाली बढ़ेगी, साबुन की आवश्यकता भी बढ़ेगी। दूसरे देशों की तुलना में अभी चार-पाँच गुना साबुन उद्योग के विकास की इस देश में गुंजाइश है। छोटे देहातों तक में इसकी खपत बढ़ रही है। इस व्यवसाय का आदि से अन्त तक व्यापारिक एवं रासायनिक ज्ञान किसी को हो तो वह बाजार से बढ़िया साथ ही सस्ती चीज दे सकता है और अपने गुजारे की अच्छी व्यवस्था कर सकता है।
मोमबत्ती उद्योग इसी से जुड़ा हुआ है। यह साबुन उद्योग का सहायक धन्धा है। दिवाली पर, त्यौहारों पर तथा तत्काल प्रकाश सुविधा के रूप में इसकी अच्छी खपत है। लाभ का धन्धा है। साबुन के साथ-साथ आसानी से इसे चलाया जा सकता है।
निवाड़ बुनना एक छोटे से पावर लूम से बड़ी सुविधापूर्वक चल सकता है। लोगों के पास के पुराने लिहाफ की रुई बेकार बचती है। उसका कोई ठीक उपयोग नहीं होता। उस पुरानी रुई के बदले में, कताई-बुनाई की मजदूरी लेकर यदि लोगों को हाथों-हाथ निवाड़ दे दी जाए तो वे मूँज की रस्सी से बार-बार चारपाई बुनवाने, बार-बार उसके टूटने के झंझट से बच कर घर में सुन्दर एवं चिरस्थायी छोटे पलँग बना सकते हैं। इसके लिए हर घर में काम मिल सकता है। इधर इस पुरानी रुई को कातने, ऐंठने के लिए अनेकों महिलाएँ गृह उद्योग प्राप्त कर सकती हैं। बुनने वाला अपनी मजूरी तथा लाभ के रूप में दस रुपया रोज कमा सकता है। यह ऐसा काम है जिसमें काम न मिलने, बिक्री न होने जैसी शिकायत उत्पन्न नहीं हो सकती है।
सूती, ऊनी, रेशमी कपड़े तुरन्त धो देने, रँगने और रफू करने का धन्धा अब इस सभ्यता के जमाने में बड़ा विस्तार करता चला जा रहा है। छोटे-बड़े शहरों में ड्राइक्लीनिंग की दुकानें धड़ाधड़ खुलती चली जा रही हैं। धोबी देर में कपड़े धोकर देते हैं, तेजाब लगा कर कपड़े गला देते हैं, पीट कर उन्हें कमजोर कर देते हैं। कम कपड़े होने पर जर्क-वर्क सफाई चाहने वालों को सूखी धुलाई का सहारा लेना पड़ता है। मशीनों के सहारे, पेट्रोल तथा दूसरी रासायनिक वस्तुओं के सहारे एक घण्टे में सर्दी, वर्षा, रात-दिन की कठिनाई के बिना कपड़ा धोकर दे दिया जाता है। इसके लिए लोग खुशी-खुशी कुछ अधिक पैसा दे देते हैं। रंग फीका हो जाने पर उसे फिर रँग देना, फट जाने पर उसे रफ कर देना यह धुलाई का सहायक धन्धा है। आवश्यक मशीनों में कुछ पैसा लग जाता है पर आमदनी उतनी हो जाती है जितनी सरकारी नौकरी में डिप्टी-कलक्टरों या मामूली वकीलों की भी नहीं होती।
रेडियो, ट्राँजिस्टर एवं घड़ियाँ दैनिक जरूरत की चीजें बनती चली जा रही हैं। धीरे-धीरे हर घर में प्रवेश करती जाती हैं। कहना न होगा कि यह खराब भी जल्दी-जल्दी होती हैं और मरम्मत भी बार-बार चाहती रहती हैं। इन दोनों यन्त्रों को सुधारने की कला जिन्हें आती हो वे बिना कोई बड़ी पूँजी लगाए अपने बुद्धि, कौशल तथा हलके से हलके परिश्रम से ही काफी कमा सकते हैं। उपयुक्त दोनों चीजें नई बेचने का भी धन्धा साथ-साथ चलता रह सकता है। अलग-अलग पुर्जे खरीद कर एक नया रेडियो बना देना यह अपने आपसे एक अलग से धन्धा है। जो रेडियो बाजार में -दो सौ-तीन सौ रुपये में बिकते हैं वे घर बनाने पर सौ रुपये में बन सकते हैं। जिन्हें नये रेडियो तक बना कर खड़े कर देने की जानकारी है उन्हें नौकरी के लिए मारा-मारा न फिरना पड़ेगा। कोई व्यक्ति इस कार्य को आरम्भ करे तो वह विवाह-शादियों, उत्सवों, सभाओं तथा ऐलानों के लिये किराए पर देने को लाउडस्पीकर भी रख सकता है। लाउड-स्पीकरों की मरम्मत एवं चलाने की विधि भी सहायक धन्धे के रूप में इसी प्रशिक्षण में सम्मिलित है। टेप रिकॉर्डर यन्त्र का उपयोग एवं सुधार भी इस शिक्षा के अंतर्गत आ जाता है । बिजली के छोटे-मोटे फिटिंग, पंखे आदि की मरम्मत यह शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थी आसानी से कर सकते हैं।
उपर्युक्त चार उद्योग ऐसे हैं जो बाकायदा दुकान लगा कर आरम्भ किये जा सकते हैं। कुछ उद्योग ऐसे हैं जो घरों में स्त्री-बच्चों की सहायता से एक सहायक गृह उद्योग के रूप में चल सकते हैं। इनके लिए कोई कारखाना लगाने की जरूरत नहीं है। जितना काम मिल जाय उतना धन्धा प्रशिक्षित स्त्री-बच्चे कर सकते हैं और उससे एक अतिरिक्त आमदनी हो सकती है। जापान में घर-घर ऐसे गृह उद्योग चलते हैं इससे वहाँ हर घर में खुशहाली दिखाई पड़ती है। इस प्रकार के कुटीर-उद्योगों में से कुछ को सिखाने की व्यवस्था अपने विद्यालय में भी की गई है। जिनमें से प्रमुख यह हैं-
(1) सुधरे नये किस्म के अम्बर चरखे से सूत कातना (2) मधु-मक्खी पालन, उनके विशेष प्रकार के बने लकड़ी के छत्तों द्वारा बिना छत्ता तोड़े शहद निकालना (3) विभिन्न प्रकार के धातुओं तथा ऐवरी आदि के छोटे-बड़े बटन बनाना (4) प्लास्टिक, पैरिस प्लास्टर, टीन, चीनी तथा विभिन्न रासायनिक पदार्थों से मनमोहक सुन्दर खिलौने बनाना (5) बिजली की सहायता से पीतल, ताँबे आदि के बने जेवरों पर असली सोने का असली चाँदी का असली पर्त चढ़ा कर थोड़े से पैसों में कीमती जेवर पहनने की हविस पूरा देना (6) कई किस्म की पेन्सिलें बनाना (7) अगरबत्ती, धूपबत्ती एवं तरह-तरह की स्याहियाँ बनाना (8) स्वेटर, बनियान, मोजे, फीते, बार्डर आदि बनाना। (यह गृह उद्योग बड़े पैमाने पर भी किया जा सकता है।)
ऊपर चार बड़े और आठ छोटे उद्योगों का जिक्र है। जहाँ सुविधा हो वहाँ इन छोटे उद्योगों को भी बड़े कारखाने का रूप दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त और भी ऐसे ही उद्योगों की खोज-बीन जारी है जो सरल भी हों और जिनकी खपत भी आसानी से हो सके।
इस प्रकार प्रयत्न यह किया जा रहा है कि अपनी शिक्षा-पद्धति, जिसका मूल उद्देश्य उत्कृष्ट व्यक्तित्वों का निर्माण करना है, आजीविका उपलब्ध करने की कसौटी पर खरी सिद्ध हो सके। नौकरी से विरत कर नई पीढ़ी को स्वावलम्बी बनाने की प्रेरणा तो देनी ही होगी। परिस्थितियों की माँग भी यही है। आखिर हर वर्ष लाखों की संख्या में स्कूल, कालेजों से निकलने वाले युवकों को नौकरी मिलेगी भी कहाँ से? उन्हें नौकर रखेगा भी कौन? अस्तु सरकारी डिग्रियों का मोह छोड़ कर जिन्हें इस प्रशिक्षण के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है उन्हें आर्थिक दृष्टि से भी कोई घाटा रहने वाला नहीं है। भार-स्वरूप वर्तमान शिक्षा पद्धति से जिन बच्चों का मन हट जाता है उन पर मानसिक बलात्कार घातक मनोवैज्ञानिक असर डालता है। उसकी तुलना में अपनी शिक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें इतना परिश्रम न करने पर भी छात्रों को हर घड़ी एक मनोरंजक खेल खेलने जैसी प्रसन्नता होती रहेगी। मन ऊबने को उसमें कोई गुंजाइश नहीं है। लाठी, तीर, बंदूक आदि चलाने तथा विभिन्न खेल-कूदो एवं फौजी कवायदों के आधार पर वे जिस व्यायाम द्वारा स्वास्थ्य सुधारेंगे वह भी भार रूप न होकर एक मनोरंजन ही होगा। फिर पढ़ाई का सारा क्रम भी तो ऐसा है जो किस्से, कहानी सुनने जैसा अपने आपमें एक अनोखी दिलचस्पी से भरा-पूरा है। इससे कम समझ विद्यार्थी भी आवश्यक दिलचस्पी लेंगे और वे अपना आश्चर्यजनक बौद्धिक विकास करेंगे।
वानप्रस्थों का प्रशिक्षण उनके आत्म-कल्याण तथा लोक-शिक्षण की आवश्यकता को पूरा करने के लिए है। आर्थिक दृष्टि से देखा जाय तो उनके भावी जीवन के आवश्यक गुजारे की भरपूर गारण्टी उसमें मौजूद है। रामायण, गीता के धुरन्धर प्रवचनकर्ता, यज्ञों तथा संस्कारों की प्रेरणाप्रद योग्यता से सम्पन्न, विद्यालयों के संचालक, रचनात्मक प्रवृत्तियों के संचालक लोक-सेवी बिना माँगे भी इतनी सुविधा प्राप्त कर लेंगे जिसमें वे सपत्नीक अपना निर्वाह बड़ी सुविधा शाँति और सम्मान के साथ कर सकें।
बेशक शिक्षण काल में किसी उपार्जन की गुंजाइश नहीं है। शिक्षा की अवधि में तो खाने, पहनने का प्रबन्ध स्वयं ही करना पड़ेगा। शिक्षा, निवास, बिजली, फर्नीचर, पुस्तकालय आदि की सुविधा ही निःशुल्क कर सकना हमारे लिए सम्भव हो सका है। किन्तु इतना निश्चित है कि प्रौढ़ों किशोरों तथा वानप्रस्थों की तीनों ही शिक्षा ऐसी हैं जो न केवल उनका व्यक्तित्व ही सुविकसित करेंगी वरन् उनकी आर्थिक सुविधा की व्यवस्था भी करेंगी।