Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन के सदुपयोग की रीति-नीति
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एक लम्बे समय से अशाँत, असंतुष्ट तथा असुखपूर्ण जीवन जीते चले आ रहे हैं, आइये अब संतुष्ट तथा सुखी जीवन की योजना बना कर उस पर अमल करें तब देखें हमें दुःख अथवा असन्तोष किस प्रकार आक्रान्त कर सकते हैं?
सबसे पहले यह समझलें कि जीवन है क्या? क्योंकि जब तक उस मूल बात को ही न समझ लें, जिसकी सार्थकता के लिये योजना बना रहे हैं तब तक कोई बात बन भी कैसे सकती है।
जीवन एक अवधि, एक अवसर हे, जो जीवात्मा को परमात्मा की ओर से इसलिये दिया गया है कि वह संसार में अपना निवास बनाये रहे, कर्म करे और जिस दिन अपने स्वरूप का साक्षात्कार करले उस दिन मेरी अनन्त आनन्ददायिनी गोद में सदा सर्वदा के लिये चला आये। इस सब साधना को करने के लिये उसे सर्वशक्ति सम्पन्न यह मानव शरीर साधन के रूप में अनुग्रह किया गया है। और अधिकार नहीं, स्वतन्त्रता दी गई है कि वह जिस प्रकार चाहे इसका उपयोग कर सके। उसने शरीर का किस प्रकार उपयोग किया है इसका लेखा-जोखा तो इसके बाद लिया जायेगा। बीच में न उसे टोका जायेगा और न रोका जायेगा। हाँ, उसे सद्परामर्श देने के लिये बुद्धि-विवेक रूप में एक हित-चिन्तक अथवा मंत्री अवश्य दे दिया है, जिसका परामर्श मानने के लिये भी वह स्वतन्त्र है।
जीवन क्या है-यह समझ लेने के बाद यह भी आवश्यक है कि उसका उद्देश्य भी जान लिया जाये। हम जीवन-यान को किस दिशा में चलायें, किन रास्तों पर उसे डालें और किन उपत्यिकाओं से बचायें- इस विधान को तब तक ठीक से जाना समझा ही नहीं जा सकता, जब तक अभियान के सुनिश्चित लक्ष्य का निर्धारण न हो जाये। इसलिये आवश्यक है कि जीवन लक्ष्य अथवा उसके उद्देश्य को भी स्पष्ट कर लिया जाये।
जैसा की ऊपर जीवन की परिभाषा में संकेत किया गया है कि जीवन परमात्मा ने इसलिये दिया है कि जीवात्मा उस अवधि में आत्म-साक्षात्कार करके उसकी अनन्त आनन्ददायिनी गोद में सदा सर्वदा के लिये जा पहुँचे। इसी को निर्वाण, मोक्ष अथवा जीवन-मुक्ति कहा गया है और निःसन्देह जीवन का यह एक मात्र उद्देश्य एवं परम लक्ष्य भी है। मनुष्य का यह चरम लक्ष्य और कुछ नहीं निर्बंध, निर्मुक्त, निःसीम निर्भय, निर्विकार और निर्द्वंद्व आत्मा की अनन्त अथवा अक्षय आनन्दानुभूति का अपार हिल्लोह है। यह आत्म-बिन्दु की परमात्म सागर में परिसमाप्ति के पश्चात् तदाकार हो जाने का पूर्व प्रवर्तन ही है।
महान् मनुष्य जीवन के अनुरूप ही उसका लक्ष्य भी परम पवित्र तथा महान् है- इस सत्य से तो इनकार किया ही नहीं जा सकता। साथी ही यह सत्य भी स्वीकार करना होगा कि जब तक इस महान् जीवन को महानताओं से समाविष्ट करके यापन नहीं किया जायेगा तब तक इतना विशाल और व्यापक लक्ष्य कदापि नहीं पाया जा सकता।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हर मनुष्य बाध्य है। बाध्य इस अर्थ में कि जब तक वह इसे नहीं पा लेता तब तक उसे जन्म मरण के चक्र में पिसना और यदि अधिक प्रमाद किया जो अधम योनियों की नारकीय यातनाओं को हजारों लाखों वर्ष भुगतान होगा- इस भयानक सम्भावना को देखते हुए बुद्धि से रहित ऐसा व्यक्ति अभागा ही होगा जो अपने लक्ष्य कह ओर उदासीन होकर जीवन यापन में ऐसा प्रमाद बरतेगा जिससे कि अनन्त आनन्ददायिनी परमात्मा की गोद हाथ से निकल जाये और हजारों लाखों वर्षों की नारकीय कारावास की यातना हाथ आये।
जीवन यापन के अभियान की अवधि में स्थिर प्रसन्नता एवं एक आन्तरिक सुख की अनिवार्य आवश्यकता है। क्योंकि इसके अभाव में खिन्नता, चिन्ता अथवा असन्तोष का अभिशाप साथ लेकर इतने उच्चस्थ लक्ष्य को पाने की लम्बी यात्रा पूरी नहीं की जा सकती। खिन्न, चिन्तित तथा दुःखी अवस्था में जब साधारण कर्म-मार्ग में कदम नहीं उठ पाता, घर की दहलीज पहाड़ जैसी मालूम होती है, तब उस अवस्था में इतनी लम्बी यात्रा ठीक तरह पूरी की जा सकती है यह सम्भव नहीं हो सकता।
इसके लिये जब चित्त प्रसन्न रहता है हृदय में अखेद तथा अनुद्वेगपूर्ण शाँति विराजमान रहती है, तब क्रियाओं को अपेक्षित गति तथा उत्साह प्राप्त होता रहता है, जिससे यात्रा की दूरी, लक्ष्य की दुरूहता अथवा पथ की क्लाँति प्रभावित नहीं कर पाती और मनुष्य हँसता-खेलता अपेक्षित दिशा की ओर बढ़ता चला जाता है। प्रसन्न अवस्था में मनुष्य की बुद्धि तथा विवेक भी प्रबुद्ध तथा सक्रिय रहता है जिससे प्रकाश एवं सत् व असत् का ठीक-ठीक निर्णय भी होता चलता है। अभियान में गति हो, गति में उत्साह, पथ में प्रकाश तथा मार्ग की उपयुक्त दिशा का निर्णय होता चले तब संसार का कोई भी तो अवरोध बाधा नहीं दे सकता और न कोई मरीचिका ही पथ-भ्राँत कर सकती है। जिसकी यात्रा इतनी दृढ़ तथा निरापद है वह क्या कारण हो सकता है कि शीघ्र ही अपना लक्ष्य न पाले।
यात्रा को सुयोग्य बनाने के लिये केवल शारीरिक नहीं मानसिक प्रसन्नता तथा सुख-शाँति अपेक्षित है। और उसी अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये लोग सुख-शाँति पाने का उपक्रम किया करते हैं। उसके लिये साधन-सुविधायें एकत्र किया करते हैं। किन्तु यह कम खेद का विषय नहीं है कि लोग यह भूल बैठे हैं कि वे यह उपक्रम किस लिये कर रहे हैं। अज्ञान के वशीभूत होकर साधन को साध्य मान बैठे हैं? शारीरिक सुख को वह सुख-समझ लिया है जो उनको यात्रा के लिये आवश्यक है। फल यह हुआ कि शरीर की उपासना में इस सीमा तक लग गये हैं कि मूल उद्देश्य को ही भूल गये।
शरीर एक ऐसा यंत्र, एक ऐसा साधन है कि इसको जितना आराम दो, जितना बिठलाये रक्खो यह उतना ही जड़ तथा निष्क्रिय होकर अपनी शक्ति तथा क्षमता खोता जाता है। इसकी सारी प्रखरता एवं विशेषता नष्ट हो जाती है। शीघ्र ही असाध्य होकर इतना आलसी हो जाता है कि फिर किसी कार्य के लिये भी उत्साहित नहीं होता है। रुग्ण एवं असहिष्णु हो जाता है। शरीर का स्वभाव भी बच्चों जैसा ही होता है। इसको जिस अभ्यास पर डालो उसी को पकड़ लेता है। अधिक विश्रान्ति दीजिये तो आलसी बन कर दिन-रात आराम के लिये ही रोता और हठ करता रहेगा और जितना काम लिया जाये उतना ही कर्मठ बनता है। यह बात सही है कि शरीर को भी विश्राम की आवश्यकता है। किन्तु काम के बाद काम की थकान ही इसको विश्राम का अधिकारी बनाती है। कार्य रहित विश्राम इसके अस्वास्थ्य का कारण बनता है।
अब आइये उन कारणों तथा हेतुओं पर थोड़ा विचार किया जाये जो सुख-शांति के वाहक तथा इसके विपर्य के प्रेरक बनते हैं।
सबसे पहले शारीरिक आरोग्य को ले लिया जाये। आरोग्य सुख का और अस्वास्थ्य दुःख का कारण है। आरोग्य की आधार शिला संयम तथा नियम ही है। बहुधा लोग संयम, नियम का अर्थ केवल व्रत-उपवास ही समझ लिया करते हैं। यद्यपि कभी-कभी किसी आवश्यक अनुष्ठान अथवा पथ्य दशा में इनकी आवश्यकता होती है तथापि यह संयम एवं नियम की अर्थ पूर्ति नहीं करते हैं।
संयम, नियम का प्रमुख आशय यह है कि जिह्वा की स्वाद लिप्सा अथवा रस-वैचित्र्य पर नियन्त्रण रक्खा जाये। भोजन के विषय में जिह्वा के संकेत पर नहीं बुद्धि तथा आवश्यकता के परामर्श पर चला जाये। स्वस्थ रहने के लिये भोजन में कौन से तथा कितने पदार्थ की आवश्यकता है, इसका ज्ञान तथा पालन ही संयम का सही स्वरूप है।
नियम का सीधा-सीधा अर्थ है जो कुछ खाया जाये वह समय पर और कम ही खाया जाये। इस समय तथा क्रम का व्यतिक्रमण न करना ही नियमता है। किंतु इन नियम एवं संयम को अनावश्यक रूप से इतना न कस दिया जाये कि वह शरीर को एक बोझ, एक बन्धन बन कर रह जाये। पदार्थों का चुनाव इस आधार पर किया जाये कि कौन-कौन-सी वस्तुयें शरीर तथा रुचि के अनुकूल हैं और कौन-कौन-सी प्रतिकूल। इस विषय में रुचि तथा पदार्थों में जितना परिमार्जन, सात्विकता तथा सामर्थ्य का समावेश होगा, शरीर उतना ही स्वस्थ तथा तेजस्वी रहेगा। इन सब बातों को हर व्यक्ति अपने अनुभव तथा अध्ययन के आधार पर आसानी से समझ लेता है।
शारीरिक स्वास्थ्य के बाद मानसिक स्वास्थ्य का क्रम है। जिस प्रकार, ज्वर, शीत, रेचन, मन्दाग्नि आदि शरीर के साधारण रोग हैं, उसी प्रकार ईर्ष्या, द्वेष लिप्सा लोलुपता, स्वार्थ, संकीर्णता, दुर्भाव आदि मन की व्याधियाँ हैं। और इन दोनों अस्वास्थ्यों का परिणाम अकर्मण्यता, आलस्य, निराशा, निरुत्साह एवं असफलता के रूप में फलीभूत होते हैं। तब फिर प्रसन्नता तथा सुख-शाँति की सम्भावना कहाँ। जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य के लिये असंयम दूर करके संयम की स्थापना आवश्यक है, उसी प्रकार मानसिक व्याधियों को हटा कर उसके स्थान पर प्रेम, पवित्रता, स्नेह, सौहार्द, उदारता, विशालता तथा सद्भावों की प्रतिष्ठा आवश्यक है। स्थानापन्नता के अभाव में विस्थापन अपूर्ण तथा असफल ही रहता है।
भौतिक साधन तथा उनका उपभोग सुख-शाँति में सहायक होते हैं, किन्तु जब तक ही जब तक उनका औचित्य बना रहता है। मर्यादा का उल्लंघन करते ही यह मानव-जीवन को अमूल बेलि की तरह लिपट जाते हैं और उसका सारा स्वत्व तथा तत्व शोषण कर लेते हैं। मनुष्य निर्जीव तथा रिक्त बन कर निष्प्रयोजन बन जाता है। भौतिक साधन तथा उपकरण जुटाइये, उनके लिये यथा सम्भव पुरुषार्थ कीजिये किन्तु यह किसी क्षण भी न भूलिये कि यह साधन मात्र ही हैं, साध्य नहीं हैं। इन सब को हमारा सेवक ही रहना चाहिये स्वामी न बन जाना चाहिये।
जिसकी इन्द्रियाँ पदार्थों की दासता स्वीकार कर लेती हैं, उन्हें अपने चरम लक्ष्य की ओर अभियान करने का न तो अवकाश ही रहता है और न शक्ति। साधनों को साधन तक ही सीमित रखना चाहिये। जिस प्रकार इनका अभाव दरिद्रता के दुःख की अनुभूति कराता है, उसी प्रकार इनकी अधिक तृष्णा भी दरिद्री बना देती है। तृष्णा एवं अभाव समान रूप से ही दारिद्रय के हेतु हैं। अन्तर केवल इतना है कि पहले से उत्पन्न दरिद्र प्रत्यक्ष होता है और दूसरे का अप्रत्यक्ष। किन्तु परिणाम दोनों का एक ही है। जो शारीरिक अथवा मानसिक रूप से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी रूप से भी दरिद्री है, उसकी उस विशाल एवं महान् लक्ष्य के लिये पात्रता नष्ट हो जाती है।
यदि गम्भीरता से विचार किया जाय तो कोई भी काम निष्काम होना सामान्यतः सम्भव नहीं जब निर्बन्ध तथा गतिमान रहने के लिये निष्कामता बहुत आवश्यक है। इस निष्कामना की पूर्ति केवल इतनी बात से हो सकती है कि प्राप्ति का पुरुषार्थ प्राप्ति की भावना से ही करना चाहिए लोभ की भावना से नहीं।
कामनाओं की अतिशयता भी अभिमान का एक बड़ा अवरोध है। संसार में विपुल पदार्थ तथा उनके असंख्यों प्रकार भरे पड़े हैं। उन सब की कामना करना ही कामनाओं की अतिशयता मानी गई है। ‘यह भी मिल जाए- वह भी मिल जाए’ की चपल वृत्ति अथवा प्रकारों के प्रति मन को आकर्षण मरीचिकाओं में भटका कर छोड़ देगा और तब मनुष्य क्षण-क्षण बदलते हुए संसार के माया-जाल में फँस कर रह जाएगा जो उसके उद्देश्य के लिए बड़ा ही अमाँगलिक होगा। सुख-शाँति में सहायक जिन उपकरणों की उपयोगिता हो उनको ही उपलब्ध करने का प्रयास कीजिए। वस्तुओं की बहुलता अथवा विविधता, उपयोगिता की वृद्धि करने में सक्षम नहीं होती। आवश्यकता एवं सामर्थ्य के अनुरूप उनकी मात्रा को पर्याप्त की सीमा तक ही रखना बुद्धिमानी है। इसके आगे बढ़ने का अर्थ होता है अपने चारों ओर अपने प्रयास से स्वयं ही जाल बिछाना।
इस प्रकार उपयोग तथा आवश्यकता को तुला पर तुले हुए पर्याप्त साधनों का संचय, उपभोग करते हुए, निर्लोभ कर्मों द्वारा बन्धनों का बहिष्कार करते हुए, स्वस्थ, संतुष्ट, शाँत तथा प्रसन्न जीवनयापन की योजना के साथ अपने चरम लक्ष्य की ओर उन्मुख रहिए आपके लोक-परलोक दोनों समान रूप से सफलता तथा आनन्द से अलंकृत होकर प्रकाशित हो उठेंगे।