Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्ञान-दान संसार का सब से बड़ा दान
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‘परोपकारायमिदं शरीरम्’- भारतीय धर्म संस्कृति में परोपकार की बड़ी महिमा बताई गई है।
परोपकार का आशय है किसी का भला करना अथवा हित करना। मानव समाज एक दूसरे की सहायता पर ही निर्भर है। जीवन धारण करने से लेकर जीवन-यापन और समापन करने तक मनुष्यों को परस्पर सहयोग और सहायता की आवश्यकता पड़ती है। इसके अभाव में जीवन चल सकना सम्भव नहीं।
किन्तु इस प्रकार की समाजव्यापी सहायता और सहयोग को परोपकार नहीं कहा जा सकता। यह तो जीवन-निर्वाह की एक सार्वजनिक व्यवस्था है। इस सेवा और सहायता का आधार विनिमय है। इसमें एक मनुष्य एक तरह से सहयोग करता है तो दूसरी तरह से उसका बदला पाता है। परोपकार का आधार त्याग एवं उत्सर्ग होता है। किसी की, की हुई किसी भलाई का जब किसी प्रकार का कोई मूल्य अथवा बदला नहीं लिया जाता तो वह सुकृत्य परोपकार कहा जा सकता है। इसी प्रकार के उपकार का आध्यात्मिक महत्व होता है और इसी का भारतीय धर्म संस्कृति में बखान किया गया है।
परोपकार के बहुत से प्रकार और बहुत से रूप हो सकते हैं। जिन्हें प्रथम द्वितीय और तृतीय श्रेणी में बाँटा भी जा सकता है। इस विभाजन को समझने के लिये तृतीय श्रेणी से चलिये।
तृतीय श्रेणी का परोपकार वह होता है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति का सामयिक हित होता है। जैसे किसी भूखे को भोजन करा देना, किसी रोगी अथवा आहत को अस्पताल पहुंचा देना, किसी याचक को पैसा दे देना, शीत पीड़ित को वस्त्र अथवा खोये को उसके गन्तव्य स्थान तक पहुँचा देने की सहायता कर देना आदि तृतीय श्रेणी का परोपकार होता है।
तृतीय श्रेणी के इन उपकारों से किसी का कोई सामयिक हित ही हो सकता है, उसका कोई स्थायी हित नहीं होता और न इस प्रकार का उपकार किसी के जीवन को स्थिरता प्रदान कर सकता है। जिस उपकार से किसी को जीवन विकास में जितनी कम सहायता मिलती है वह उतनी ही सामान्य कोटि का उपकार माना जाता है।
द्वितीय श्रेणी के परोपकार उनको कहा जा सकता है, जिससे किसी का दूरगामी हित होता है। जैसे किसी को नौकरी करा देना, उसकी जीविका का प्रयत्न करा देना। कार-रोजगार में निःस्वार्थ सहायता करा देना। किसी को घातक रोगों से मुक्ति दिला देना। किन्हीं व्यक्तियों अथवा परिवारों का वैमनस्य मिटा देना, किसी को निराशा अथवा निरुत्साह के अन्धकार से निकाल देना अथवा किन्हीं की स्थायी शत्रुता को मिटा देना आदि सत्कर्म द्वितीय श्रेणी के परोपकार माने गये हैं।
द्वितीय श्रेणी के इन उपकारों से निश्चय ही किन्हीं को दूरगामी लाभ तो होता है, तथापि जीवन-समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं होता। एक अवधि के बाद उपकृत के जीवन में पुनः उसी प्रकार की समस्याएँ उठ सकती हैं। और उसके लिए पुनः किसी उपकारी की आवश्यकता हो सकती है। द्वितीय श्रेणी के उपकारों से किसी को दूरगामी लाभ तो हो सकता है किन्तु समस्याओं का स्थायी हल नहीं होता।
जिन उपकारों से मनुष्य का स्थायी हित होता है, वह अपने जीवन के विकास और उसकी समस्याओं का हल करने की क्षमता पाता है वह उपकार प्रथम श्रेणी का माना जायेगा। मनुष्य को इस योग्य बनने में सहायता देना कि उसे किसी पर निर्भर न रहना पड़े, किसी का आश्रय न देखना पड़े और किसी का सहारा लेकर न खड़ा होना पड़े। निस्सन्देह प्रथम श्रेणी के परोपकार हैं। इस श्रेणी में वे सारे उपकार आ जाते हैं जिनसे किसी में जीवन-जीने की योग्यता का विकास होता है
किसी को शिक्षा दिला देना अथवा किसी को कोई कार-रोजगार करा देना निश्चय ही प्रथम श्रेणी का परोपकार है। किन्तु यह धन-साध्य परोपकार है। ऐसे उपकारों का पुण्य ले सकना सब के सामर्थ्य की बात नहीं है। यह तो साधन-सम्पन्न तथा धनवान व्यक्ति ही कर सकते हैं। किन्तु परोपकार का पुण्य सब के लिए वांछनीय है, और सभी क्यों न चाहेंगे प्रथम श्रेणी का परोपकार करना। ऊँचे से ऊँचा परोपकार सबको ही करना चाहिए क्योंकि इसके बिना जीवन को उच्च गति नहीं मिलती।
अब प्रश्न यह है कि जो सामान्य व्यक्ति हैं, जो साधन सम्पन्न और धनवान नहीं हैं तो वे क्या जीवन भर प्रथम श्रेणी का परोपकार कर सकने से वंचित ही रह जायेंगे? नहीं ऐसा नहीं। उपरोक्त उपकारों के अतिरिक्त प्रथम श्रेणी के उपकारों के और भी प्रकार हैं, जिनका निर्वाह कोई भी सामान्य से सामान्य व्यक्ति कर सकता है। वे उपकार हैं ज्ञान-दान और गुण, अथवा चरित्र-निर्माण।
किसी को ज्ञान-दान करने के लिए किसी को धन अथवा साधनों की आवश्यकता नहीं रहती। आवश्यकता रहती है, केवल इस बात की कि उपकारभावी व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक स्वतः भी ज्ञान संचय करता रहे। भारतीय ऋषि-मुनियों के पास न कभी साधनों की प्रचुरता रही और न धन की। तथापि वे समाज के सर्वश्रेष्ठ उपकारी माने जाते हैं। संसार में सबसे अधिक सम्मान उनको मिला। अपने जीवन काल में तो उनकी पूजा होती ही रही, आज हजारों वर्ष बीत जाने पर भी जन-मानस में उनका वही स्थान बना हुआ है।
भारतीय ऋषि-मुनियों को सर्वश्रेष्ठ माने जाने का एक मात्र कारण यही है कि उन्होंने अज्ञान के अन्धकार में भटकती हुई मानवता को ज्ञान का आलोक दिया। समाज के प्रति उनका यह बहुत बड़ा उपकार था। ज्ञान का आलोक पाया हुआ मनुष्य संसार के सारे दुःखों से छूट जाता है। उसे न तो त्रयताप व्यग्र कर पाते हैं और न कोई अभाव दुःखी कर पाता है। ज्ञान के आधार पर वह अपनी सारी समस्यायें और कठिनाइयाँ स्वयं हल कर लिया करता है। इसके लिए उसे किसी का मुखापेक्षी नहीं बनना पड़ता और न किसी का सहारा खोजना पड़ता है। इसीलिए ज्ञान-दान को प्रथम श्रेणी का उपकार माना गया है।
ज्ञान-दान से बढ़ कर संसार में कोई दान नहीं। जिसे यह प्राप्त होता है उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है। धन अथवा साधन देकर किसी का उतना उपकार नहीं किया जा सकता जितना कि ज्ञान देकर। किसी से धन की सहायता पाकर कोई मनुष्य, माना अपना विकास कर सकता है। कार-रोजगार बढ़ा सकता है। तब भी ज्ञान के अभाव में धन उसको वह वाँछित सुख नहीं दे सकता जिसकी मानव जीवन में अपेक्षा की जाती है। वह सुख, वह शाश्वत सुख तो केवल ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है जिसको पाकर आत्मा संतुष्ट हो जाती है। कोई व्यक्ति जीवन में कितनी ही उन्नति क्यों न कर ले, किन्तु जब तक उसकी आत्मा को सुख चैन नहीं मिलेगा उसका कल्याण न होगा वह एक अभाव और अशाँति से निरन्तर व्यग्र बना रहेगा।
इतना ही क्यों अज्ञान की दशा में उसका धन और उसका भौतिक विकास अन्ततः उसके पतन का कारण बन जायेगा। ज्ञानहीन धनाढ्यता की दशा में संसार के नाशकारी भोग-विलास और विषय-वासना की अनुचित वृत्तियाँ मनुष्य पर अपना घेरा डाल देती हैं। उसमें इच्छाओं और तृष्णाओं का जंगल उत्पन्न कर देती हैं। धन की सहायता की अपेक्षा ज्ञान की सहायता कहीं श्रेष्ठ है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने मानव-समाज की यही तो सहायता की है जिसके लिए वे आज भी पूज्य बने हुए हैं और युग-युग तक मानवता उनका उपकार मानती रहेगी।
लेकिन वे आदरणीय मनीषी संसार का यह उपकार कर तभी सके हैं, जब उन्होंने पहले प्रचण्ड साधना द्वारा स्वतः ज्ञान का भण्डार एकत्र किया था। योंही वे कुछ थोड़ी-सी पुस्तकें पढ़ कर ही ज्ञानी नहीं बन बैठे थे। उन्होंने जीवन का अधिकाँश भाग अध्ययन, मनन और चिन्तन में लगाया था। संयम और साधना द्वारा अपना विवेक परिपक्व किया था और अपने ज्ञान भण्डार को अनुभव की तुला पर तोल कर प्रामाणिक बना लिया था और तब इतनी साधना करने के बाद वे समाज को ज्ञान-दान करने के योग्य हो पाये थे। उन्होंने उस ज्ञान के बल पर मानवता के प्रति सर्वश्रेष्ठ उपकार किया। जिसके लिए वे तब भी पूजित रहे, आज भी हैं और आगे भी पूजनीय बने रहेंगे। ज्ञानोपकार से बढ़ कर संसार का कोई अन्य परोपकार है ही नहीं।
ज्ञान-दान से मनुष्य का सर्वांगीण, अक्षय और स्थायी लाभ होता है। ऋषियों के दिए उस मूलभूत ज्ञान को ही आधार बना कर मनुष्यता तब से अब तक विकास करती चली आ रही है। यदि उन पूर्व पुरुषों ने यह उपकार न किया होता और केवल अर्थ की साधना ही सिखाई होती, केवल वही साधन खोज कर दिए होते जिनसे शारीरिक भोगों की ही सुविधा हो सकी होती तो शायद मनुष्य अब तक मानव-पशु की अवस्था में ही होता। न तो उसे आत्मा का ज्ञान हो पाता और न ईश्वर का परिचय। शरीर ही उसकी आत्मा होती और शरीर ही परमात्मा जिसकी तृप्ति करते रहना ही उसकी पूजा होती। वह आज की तरह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को क्रम-क्रम से प्राप्त कर सकने का मार्ग न पा पाता। आज की सुन्दर सभ्यता आनन्ददायी संस्कृति और कल्याणकारी धर्म, जिसके कारण हम मनुष्य संसार के सर्वश्रेष्ठ प्राणी बने हैं उन ऋषि मुनियों का वह उपकार ही है जिसको उन्होंने ज्ञान-दान के रूप में हम पर किया है। ज्ञान-दान संसार का सर्वश्रेष्ठ उपकार है।
गुण अथवा चरित्र विकास भी प्रथम श्रेणी के उपकार माने गये हैं। यह भी ज्ञान-दान के अंतर्गत ही आते हैं। जो दिया हुआ ज्ञान मनुष्य को गुणी अथवा चरित्रवान नहीं बना सकता वह या तो ज्ञान नहीं है अथवा उसका देने वाला स्वयं चरित्रवान नहीं। अन्यथा गुण एवं चरित्र तो ज्ञान के अनिवार्य अनुबन्ध हैं। ज्ञान के साथ उनका आ जाना अपरिहार्य होता है।
संसार का सर्वश्रेष्ठ उपकार करने के लिए मनुष्य को स्वयं ज्ञानी, गुणी तथा चरित्रवान बनना चाहिए और इन विशेषताओं को बिना किसी स्वार्थ अथवा लोभ के समाज में वितरित करना चाहिए। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो सर्वश्रेष्ठ उपकार कर सकने की परिस्थिति में नहीं है, वह उपकार के कार्यों की ओर से विमुख अथवा उदासीन हो जाये। जो प्रथम श्रेणी का उपकार नहीं कर सकता उसको द्वितीय अथवा तृतीय श्रेणी का ही उपकार करते रहना चाहिए। समाज के जीवन और संसार के विकास के लिए परोपकार की प्रवृत्तियाँ बहुत आवश्यक हैं वह चलती ही रहनी चाहिए- इससे लोकहित भी होगा और आत्म-कल्याण भी।