Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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सावित्री और सविता का सम्बन्ध
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गायत्री वेद-जननी चारों वेदों की माता होते हुए एक वेद-मन्त्र भी है। वेद के हर मन्त्र का एक छंद, एक ऋषि और एक देवता होता है। उनका स्मरण उच्चारण करते हुए विनियोग किया जाता है। गायत्री महामंत्र का- गायत्री छन्द- विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता है। सविता बोल-चाल की भाषा में सूर्य को कहते हैं। सविता की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण गायत्री का दूसरा नाम सावित्री भी है। सविता और सावित्री का युग्म प्रख्यात है। कहते हैं सावित्री में जो शक्ति है वह सविता की है। यों सविता, परमब्रह्म परमात्मा को भी कहते हैं और उसकी प्रेरक विधेयक, निर्मात्री, संचारिणी ह्लादिनी, चेतना शक्ति को-गायत्री को-सावित्री कहा जा सकता है। यह ज्ञान-दृष्टि हुई। विज्ञान-दृष्टि में सविता को परमात्मा का तेजपुञ्ज ब्रह्म बताते हैं, जिसके प्रभाव और प्रकाश में यह सारा दृश्य जगता, सक्रिय रहता है। उस सविता की समग्र क्षमता एवं स्थिति को-प्राण-प्रक्रिया को सावित्री माना गया है।
शरीर और प्राण में जो सम्बन्ध है वही सविता और सावित्री में है। प्राणी के अस्तित्व को प्रकाश एवं अनुभव में लाने के लिए शरीर चाहिए और शरीर सजीव बना रहे उसके लिए उसमें प्राण की स्थिति आवश्यक है। दोनों की ‘अन्योन्याश्रय’ सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे की गति नहीं, स्थिति नहीं, उपयोगिता नहीं, शोभा नहीं। इसी प्रकार सविता और सावित्री एक दूसरे के लिए जुड़े हुए हैं। दोनों का एक मिश्रित युग्म है। अलंकार रूप से सावित्री को सविता को पत्नी भी कहते हैं।
मोटे अर्थ में यह प्रातः उदय होने वाला, साँयकाल अस्त होने वाला, प्रकाश और गर्मी देने वाला, अग्नि पिंड भी, सूर्य है- सविता है। उसकी भी अपनी शक्ति एवं क्षमता है। इस संसार का सारा क्रिया-कलाप उसी के प्रभाव से हो रहा है। इसलिये उसकी स्थूल जगत् में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करने वाली क्षमता को लौकिक सावित्री कहा जा सकता है। वैज्ञानिक इसी अदृश्य और अविज्ञात महाशक्ति सावित्री के विभिन्न पक्षों का अनुसंधान आविष्कार करने में सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि पर्यन्त प्रयत्नशील हैं। उन्होंने बहुत कुछ पाया भी है।
अग्नि-तत्व पता लगा कर मनुष्य ने जिस दिन उसका उपयोग जाना उस दिन उसने ऐसा अनुभव किया मानो उसने कोई महान् शक्तिशाली देवता को अपने घर आँगन में प्रतिष्ठित रहने के लिये मना लिया हो। अग्नि के आविष्कार ने बन्दरों की तरह अस्त-व्यस्त जीवन व्यतीत करने वाले मानव प्राणी को व्यवस्थित बनाने में महान योगदान दिया। इसके उपरान्त वर्तुलाकार लुढ़कने से उत्पन्न होने वाली गतिशीलता का पता लगा कर उसने पहिये का निर्माण किया और विभिन्न प्रकार के वाहन और यंत्र बनाना सम्भव हो सका।
आज तो बिजली, भाप, ईथर, अणु आदि क्षेत्रों में काम करने वाली सहस्त्रों शक्तियों को जान लिया गया है और उनके आधार पर विज्ञान के चरण द्रुत गति से अग्रसर हो रहे हैं। अन्यान्य ग्रह, नक्षत्रों पर चढ़ाई करने की योजनायें बन रही हैं, इस धरती पर एक-से-एक अद्भुत आविष्कारों की तैयारी है, मनुष्य शरीर का काया कल्प करके उसे चिरस्थायी बनाने की योजना है। यह सावित्री शक्ति के कतिपय पक्षों की जानकारी का परिणाम है। सावित्री- प्रकृति चेतना के बारे में जितना अब तक जाना जा सका है उससे अभी असंख्य गुना जानना शेष है। सीमित बुद्धि वाला मानव प्राणी अनन्तकाल तक नई-नई उपलब्धियाँ प्राप्त करता रहे, तो भी प्रकृति की असीम शक्तियों की पूरी तरह जानकारी प्राप्त कर सकना संभव न हो सकेगा। सावित्री का भाण्डागार अपरिमित है। इतना अपरिमित- जिसकी कल्पना भी हम पूरी तरह नहीं कर सकते।
सावित्री- सविता की शक्ति है। यह अग्नि-पिंड सूर्य की तरह इस पृथ्वी पर जिस प्रकार की शक्तियों का वितरण-विकिरण करता है उसी की खोज-बीन में हम लगे हैं। पर यही सूर्य अन्य अनेक ग्रह, नक्षत्रों पर वहीं की स्थिति के अनुरूप अन्यान्य प्रकार की विचित्र और विलक्षण प्रकार की शक्तियों का सृजन करता है। यदि इन सब सूर्य के प्रभाव से प्रभावित ग्रह-नक्षत्रों तक पहुँच सकना हमारे लिये सम्भव हो सके तो पता चले कि हमारी इस छोटी-सी पृथ्वी पर जो विज्ञान अब तक प्रकाश में आया है उससे सर्वथा भिन्न प्रकार का वैज्ञानिक-वातावरण उन ग्रह पिण्डों पर फैला पड़ा है।
हम लोग पृथ्वी के आकर्षण में जितना भार अनुभव करते हैं, आकर्षण रहित ग्रहों में उतना बिल्कुल भी न होगा। पक्षियों की तरह हर कोई वहाँ आकाश में सुगमता पूर्वक उड़-उछल सकता होगा। तब वहाँ इस सम्बन्ध में जो वैज्ञानिक नियम कार्य में आ रहे होंगे, वे हमारी पृथ्वी पर प्रचलित नियमों से सर्वथा भिन्न होंगे। यह एक उदाहरण मात्र है। सृष्टि में फैली पड़ी असीमित शक्तियाँ पृथ्वी पर ही इतनी व्यापक हैं कि उसकी सम्पूर्ण खोज मनुष्य के वर्तमान साधनों द्वारा सम्भव नहीं, फिर सविता के विस्तृत प्रभाव-क्षेत्र- ग्रह-नक्षत्रों में बिखरी पड़ी विचित्र स्तर की शक्तियों की जानकारी एवं उससे लाभान्वित होने की सुविधा तो मिल ही कैसे सकेगी? कहने का तात्पर्य इतना भर है कि चमकने वाले उदीयमान अग्नि-पिण्ड- सूर्य की (सविता की) क्षमता, (सावित्री) जब इतनी विस्तृत है तो असली सविता, परब्रह्म परमात्मा की पंचतत्वों से अत्यन्त ऊँचे स्तर की चेतना के- सावित्री के बारे में तो कहा ही कैसे जाय?
वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं के माध्यम से प्रकृति की विलक्षणताओं का- सावित्री की गरिमा में- यत्किंचित ज्ञान एवं उपयोग जानने का प्रयोग करते और जो उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, उनसे साँसारिक सुविधायें बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। इसी स्तर का एक वैज्ञानिक प्रयोग आत्म-विद्या विशारद योगीजन भी करते हैं। वे अपने शरीर एवं मन की प्रयोगशाला में प्रस्तुत अद्भुत अविज्ञात शक्ति संस्थानों की सहायता से प्रकृति की सूक्ष्मता के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं और वहाँ से वैसी ही विलक्षण उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं, जैसे गोताखोर समुद्र में डुबकी लगा कर वहाँ छिपी पड़ी-राशि को बटोरते रहते हैं। तथाकथित ऋषि-मुनियों का आधार यही है।
जो कार्य किन्हीं शक्तिशाली यन्त्रों के द्वारा हो सकता है वही कार्य शरीर संस्थान के वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा भी हो सकता है। इसी प्रणाली का नाम ‘तंत्र’ है। जिस प्रकार बन्दूक चला कर किसी का प्राण हरण किया जा सकता है, वैसे ही तंत्रोक्त ‘कृत्या’ से भी अनिष्ट उत्पन्न हो सकता है। जिस प्रकार विद्युत सम्बन्धों से धातुओं के स्वरूप को बदला जा सकता है, उसी प्रकार ताँबे को सोने में परिणत करने में असफलता प्राप्त की जा सकती है। कितने सिद्ध पुरुष ऐसा करते भी रहे हैं। नागार्जुन, रावण आदि ऐसे ही असुर सम्प्रदाय के ताँत्रिक वैज्ञानिक थे जिन्होंने निर्धारित तपश्चर्यायें करके शरीरों से इतनी अणु-शक्ति संचालित कर ली थी कि वे अपने मनोबल के द्वारा अभीष्ट वस्तुयें तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते थे।
दक्षिणमार्गी ऋषि-मुनि इसी प्रयोजन को अपने ढंग की सात्विक योग साधनाओं से सम्पन्न करते थे। इसलिये उनकी पद्धति मंत्र-योग कहलाती थी। दक्षिण और वाममार्ग में सात्विक और तामस का अन्तर रहने के कारण उन्हें तंत्र-विद्या और मंत्र-विद्या का अलग-अलग नाम दिया गया है। जहाँ तक परिणामों का सम्बन्ध है दोनों के प्रतिफल लगभग समान हैं। जो भौतिक लाभ मंत्र-योगी उठा सकता है, वही चमत्कार उत्पन्न कर सकना तंत्र-योगी के लिए भी सम्भव है। सविता की महाशक्ति सावित्री एक ही है, उससे संपर्क बनाने में अनेक तरीके हो सकते हैं, इनमें से एक तरीका शरीर यंत्र को माध्यम बना कर साधना विधान के प्रयोग का है, दूसरा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं के माध्यम से उपकरणों एवं यंत्रों के माध्यम से लाभान्वित होने का है।
आज यह यंत्र-विज्ञान उस क्षेत्र में काम करने वाले निष्ठावान कार्यकर्ताओं के कारण सफलतापूर्वक काम कर रहा है। तंत्र और मंत्र क्षेत्रों के वैज्ञानिकों ने तपश्चर्या की कठोरता से डर कर उधर से मुँह मोड़ लिया, फलस्वरूप वहाँ सुनसान ही दृष्टिगोचर हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि वैज्ञानिक तत्परता के साथ, इस क्षेत्र में भी काम किया जाता रहे और ऋषि-मुनियों की बातें कल्पना समझी जाने का अवसर न आने देकर उस विज्ञान को मानव जाति के कल्याण में प्रस्तुत किया जाय।
यहाँ प्रसंग सविता और सावित्री का चल रहा है। पंच-भौतिक जगत् में यह उदीयमान सूर्य ही सविता है और उसके प्रभाव से उत्पन्न होने वाली अगणित शक्तियों का पुञ्ज ही सावित्री है। इस युग्म से हमें बड़ा लाभ होता है। उसी के प्रभाव से हम जीवित हैं और अभीष्ट साधन सामग्री उपलब्ध कर रहे हैं। श्रुतियों में सूर्य को “जगत् की आत्मा” बताया गया है। उसी से वह प्राण प्रादुर्भूत होता है जिसके कारण प्राणियों के लिये शरीर धारण किये रह सकना, वनस्पतियों का उगना, पंच-तत्वों का सक्रिय रह सकना सम्भव है। यदि सूर्य ठण्डा हो जाय तो देखत-देखते यह धरती हिम-पिण्ड की तरह ठण्डी हो जाय और यहाँ सब कुछ निर्जीव हो जाय, जीवन का किंचित लक्षण भी यहाँ दिखाई न पड़े। इसलिये इस अग्नि पिण्ड सविता का भी हमारे भौतिक जीवन में असाधारण महत्व है।
सविता की असाधारण रहस्यमयी शक्तियों का- सावित्री का उपयोग हम यंत्रों के माध्यम से तो कर ही रहे हैं। चाहे तो तंत्र और मंत्र योगों द्वारा भी वैसे ही लाभ उठा सकते हैं जैसे कि भौतिक-विज्ञान वाले उठा रहे हैं या उठाने की बात सोचते हैं। यह सूर्य-योग चाहे किसी भी विधि से किया जाय, भौतिक जीवन में सुविधायें बढ़ाने के लिये बड़ा उपयोगी सिद्ध होता रहा है, आगे यह उपयोगिता और भी बढ़ने की सम्भावना है।
असली सविता जो गायत्री मंत्र का देवता है- इस उदीयमान सूर्य से भी ऊँचा है। उसे असंख्य सूर्यों का सूर्य- परम शक्ति-स्त्रोत, इस सृष्टि का विधाता, नियामक और परिपुष्ट कर्ता, विधाता, प्रजापति कहा जाता है। उसके साथ सम्बन्ध, संपर्क बना कर यदि सान्निध्य लाभ किया जा सके तो दृश्य सूर्य की अपेक्षा वह आध्यात्मिक सविता- हमारे लिए असंख्य गुने सुख-साधन प्रस्तुत कर सकता है। परमात्मा की परम शक्ति गायत्री की- सविता की अविच्छिन्न क्षमता सावित्री की-उपासना करके हम वह लाभ ले सकते हैं, जिसके लिये यह मानव शरीर उपलब्ध हुआ है। वस्तुतः गायत्री उपासना-सावित्री साधना ही हमारा जीवन लक्ष्य हो सकता है, होना चाहिये।
ऐसा भ्रम किसी को नहीं करना चाहिये कि गायत्री से सावित्री कोई भिन्न हो सकती है। एक ही शक्ति के दो नाम हैं। जब वह शक्ति भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए प्रयुक्त की जाती है तब उसे सावित्री कहते हैं और जब वह आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए काम आती है, तब उसी को गायत्री कहने लगते हैं। मृत शरीर को जलाते समय जो अग्नि जलती है वह ‘लोहिता’ और भोजन बनाने की भट्टी में जलने वाली को ‘रोहिता’ कहते हैं। लोहिता और रोहिता यह दो नाम प्रयोग में आने वाले विभाजन के अनुरूप है। वस्तुतः अग्नि एक ही है। इसी प्रकार उस महाशक्ति को परा और अपरा सावित्री और गायत्री के नाम से पहचाना जाता है। सविता-तत्व के साथ संबद्ध होने के कारण उसे सावित्री कहा गया है। सावित्री का देवता होने के कारण उस परम-तत्व को सविता कहते हैं। यह गायत्री का ही स्वरूप है।
गायत्री में जिस वरेण्य, भर्ग, देव, सविता का स्मरण चिन्तन किया जाता है, वह परम तेजस्वी सर्व शक्तिमान्, सर्वेश्वर सविता, प्रसविता परमात्मा ही है। और उस परमात्मा की सर्वतोमुखी, सर्वोपरि शक्ति को चाहे गायत्री कहें अथवा सावित्री वस्तुतः एक ही महत्तत्व से उसका प्रयोजन है। सावित्री और गायत्री की एकता के कुछ प्रमाण देखिये-
‘यश्चैवं विद्वानेव वेदानांमातो सावित्री संपद मुषनिषद् मुपास्ते इति।’ (गोपथ ब्राह्मण)
‘इस प्रकार विद्वान वेद-माता को सावित्री के नाम से कहते हैं।’
ओंकार पूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्यया।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणों मुखम्॥
“ओंकारपूर्वक तीनों महाव्याहृतियों तथा त्रिपदा सावित्री मंत्र वेद का मुख कहा जाता है।”
एकाक्षरं परब्रह्म प्राणायामः परं तपः
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते॥
(मनु. 2/83)
“एक ओंकार ही परब्रह्म है, प्राणायाम मुख्य तप है, सावित्री से बढ़ कर कोई शक्ति नहीं है और मौन की अपेक्षा सत्य-भाषण की महिमा विशेष है।”
नमो नमस्ते गायत्री सावित्री त्वां नमाम्यहम्।
सरस्वति नमस्तुभ्यं तुरीये ब्रह्मरूपिणी॥
“हे गायत्री! हे सावित्री! मैं आपको प्रणाम करता हूँ और मेरा आपके चरणों में बार-बार अभिवादन समर्पित है। हे सरस्वती! आपके लिये मेरा नमस्कार अर्पित है। हे तुरीये! आप ब्रह्म के स्वरूप वाली हैं।”
नमस्ते देवि गायत्री सावित्री त्रिपदेक्षरे।
अजरे अमरे मातस् त्राहि माँ भवसागरात्॥
(वशिष्ठ संहितायं वांत्रिक स्तोत्र)
“हे तीन पदों वाली गायत्री, सावित्री देवी! हम तुझे नमस्कार करते हैं। हे अजर-अमर माता! मेरी भवसागर से रक्षा करो।”
सच्चिन्मपि परे देवि गायत्री ब्रह्मरूपिणी।
आज्ञामय त्वं सावित्री परिवारार्चनाय मे॥
“हे सच्चित्मयि! हे परे! हे देवि! हे ब्रह्म के स्वरूप वाली गायत्री देवि! हे सावित्री! अब आप मुझे सेवक को परिवारार्चन करने के लिये आज्ञा प्रदान करें।”
समस्त देवताचक्र मुनि पितृ गणावृते।
आरत्रिकं गृहाणेदं सावित्री मम सिद्धये॥
“हे समस्त देवों के समूह- मुनिगण और पितृगण आवृते! हे सावित्री! अब मेरी सिद्धि के लिये इस आरात्रिक (आरती) को ग्रहण कीजिये।”
नमस्ते देवि गायत्री सावित्री त्रिपरेऽक्षरे।
अजरे अमरे मातस्त्राहिं माँ भवसागरात्॥
“हे देवि! हे गायत्री! हे सावित्री! हे त्रिपदे! आप अक्षर हैं, आपको मेरा नमस्कार समर्पित किया जाता है। हे जरा से रहिते! हे अमरे! हे माता! आप मेरी इस संसार रूप सागर से रक्षा कीजिये।”
नमस्ते सूर्य संकाशे सूर्यसावित्रिकेऽमले।
ब्रह्मविद्ये महाविद्ये वेदमातानमोऽस्तुते॥
“हे सूर्य के समान रूपवाली! हे सूर्य सावित्री! हे अमले! आप ब्रह्मविद्या हैं, आप महाविद्या हैं तथा वेदों की माता हैं। आपके लिये यह मेरा प्रणाम समर्पित किया जाता है।’’
उपरोक्त प्रमाणों में गायत्री-सावित्री को एक ही माना गया है। इनमें थोड़ा अन्तर किया भी जाय तो वह इतना ही हो सकता है कि भौतिक प्रयोजनों में प्रयुक्त इस ब्रह्म शक्ति को सावित्री और अध्यात्म प्रयोजन में होने पर उसे गायत्री कहा जाय। सावित्री जप का लाभ ‘स्वर्ग’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का अभिवर्धन बताया गया है और गायत्री उपासना से मोक्ष लाभ अर्थात् वासना एवं तृष्णा के बन्धनों से छुटकारा मिलना प्रसिद्ध है।
कहा गया है कि-
सावित्री जप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः।
गायत्री जप्यानिरतो मोक्षोपायं च विन्दति॥
“सावित्री के जप करने वाले को स्वर्ग और गायत्री के जप करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।”
सावित्री का स्वरूप वर्णन करते हुये बताया गया है-
सावित्री त्रिपदा ज्ञेया षटकुक्षिः पंचशीर्षका।
अग्निवर्णमुखा शुक्ला पुण्डरीकदलेक्षणा॥
(सूत संहिता-गायत्री विवरण)
“सावित्री तीन पाद, षटकुक्षिः और पाँच मस्तक वाली है। वह अग्निवर्ण की मुख वाली, शुभ्र और कमल नेत्रों वाली है।”
दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में सावित्री का आधिपत्य होने के कारण उसे तीन पाद वाली कहा गया है। कहते हैं कि वामन भगवान् ने तीन चरणों में राजा बलि के तीनों लोक वाले राज्य को नाप लिया था। सावित्री के तीन पाद भी तीनों लोकों तक लम्बे हैं। अर्थात् उनके प्रभाव से तीनों लोकों में अपनी स्थिति सुख-शाँतिमय बनती है। तीन लोक में आकाश, पाताल और पृथ्वी को भी कहते हैं। पर यहाँ दैविक, दैहिक, भौतिक अर्थात् आध्यात्मिक, शारीरिक और संपत्ति-परक तीनों ही क्षेत्रों में सावित्री का प्रकाश पहुँचता है और उस महाशक्ति की उपासना से इन सभी क्षेत्रों में आनन्द उल्लास की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
षटकुक्षि का तात्पर्य षट्चक्र जागरण से है। शरीर में छिपे हुए छहों शक्ति संस्थान सावित्री उपासना से जागृत हो जाते हैं। किसी मिल में छः इंजन हों और वे ठण्डे पड़े रहें तब वो सारी मिल बन्द पड़ी रहेगी, पर यदि वे एक-एक करके सभी चालू हो जांय तो मिल अपनी पूरी रफ्तार से चलने लगेगी और देखते-देखते उत्पादन का ढेर जमा हो जायेगा। षट्-चक्र मानव-शक्ति में छिपे हुये अत्यन्त शक्तिशाली बायलर, इंजन, जनरेटर हैं। उनके सक्रिय होने पर मनुष्य साधारण जीव नहीं रह जाता वरन् उसकी गणना सिद्ध पुरुषों में होने लगती है। इस षट्-चक्र जागरण के विधि-विधान में सावित्री सान्निध्य को ही प्रधान आधार माना गया है, इसलिए उसे छः कुक्षि वाली- छः साधनाओं वाली-बताया गया है।
पाँच मस्तक, पाँच कोषों के नाम से प्रख्यात है। अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष यह पाँच आवरण जीव के ऊपर हैं। इनमें से प्रत्येक को एक रत्न भाण्डागार कहना चाहिये। प्रत्येक की शक्ति क्रमशः एक-से-एक की अधिक है। हममें से अधिकाँश व्यक्ति अन्नमय कोष, स्थूल शरीर की क्षमता का ही थोड़ा-सा सहारा लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाते रहते हैं।
सामान्य मनुष्यों की गति इतनी ही है। पर जो प्रबुद्ध व्यक्ति शेष चार कोषों को भी समर्थ, सक्रिय, सुविकसित बना लेते हैं उनकी क्षमता देवोपम होती चली जाती है। यंत्र-कोषों का परिष्कार सावित्री साधना से ही सम्भव होता है। उसे पंच-मुखी भी कहते हैं- चित्रों में सावित्री के पाँच मुख भी चित्रित किये जाते हैं। इस बहुमुखी अलंकार का तात्पर्य सावित्री की शक्ति से पाँच कोषों के जागरण की सम्भावना व्यक्त करना ही है।
उसे श्वेत अग्नि की आभा वाली कहा गया है। अर्थात् शुभ्र प्रकाश उसका स्वरूप है। इसी आधार पर उनका ध्यान किया जाता है, सावित्री शक्ति सूर्य जैसे प्रकाश एवं ताप से परिपूर्ण है। उसका ध्यान करने में प्रकाश के मध्य में उपस्थित आकृति की ही भावना करनी पड़ती है। सविता की अधिष्ठात्री होने के कारण वह स्वयं भी प्रकाश-पुञ्ज है। प्रकाश युक्त ही उसका ध्यान करना पड़ता है। साधक को वह अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती और उसे विशिष्ट ब्रह्मवर्चस, प्रचण्ड ओज एवं प्रखर तेजस्विता प्रदान करती है। इसीलिये उसे शुभ अग्नि-वर्ण वाली कहा गया है।
कमल नेत्र का तात्पर्य है बड़ी आँखें। कमल सब पुष्पों में बड़ा एवं सब से शोभायमान माना गया है। नेत्र देखने का काम करते हैं। कमल नेत्र का अलंकार दूर दृष्टि एवं दिव्य-दृष्टि का संकेत करता है। सावित्री की उपासना साधक को यही विशेषतायें प्रदान करती है। वह इसकी सम्भावना को देखता है, दूर की बात सोचता है, सुदूर भविष्य का निर्माण करता है। जो बातें छोटे आँख वालों को, ओछे लोगों को सूझ नहीं पड़ती वह उस कमल नेत्र वाली सावित्री के भक्तों को सूझती हैं और वे उपलब्ध दिव्य-दृष्टि के माध्यम से अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का भी कल्याण करते हैं।
सावित्री की महिमा वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने उसे तीन पाद वाली, छः कुक्षि वाली, पाँच मस्तक, शुभ्र अग्नि एवं कमल नेत्र वाली बताया है। वस्तुतः यह सभी विशेषण उस महाशक्ति में विद्यमान है। जो ठीक तरह अविच्छिन्न श्रद्धा और निर्धारित विधि-विधान के साथ उसकी उपासना में संलग्न होता है, उसे किसी भी दिशा में- किसी भी क्षेत्र में असफल एवं अभाव-ग्रस्त नहीं रहना पड़ता।
कहा जा चुका है कि सावित्री का देवता सविता है। इसलिये उसे अधिष्ठान देवता के साथ अविच्छिन्न रूप से सुसम्बद्ध माना गया है। सावित्री उपासना में सविता का आधार लेना ही पड़ता है। सूर्य जैसे प्रकाश के साथ सम्बद्ध करके ही गायत्री का ध्यान किया जा सकता है। गायत्री का चित्र अथवा विग्रह जहाँ कहीं भी होगा वहीं प्रकाश मंडल अवश्य चित्रित किया जायेगा। अन्य देवताओं का चित्रण प्रकाश-वलय से रहित भी हो सकता है पर गायत्री का नहीं। क्योंकि वह सविता की ही शक्ति है। शक्ति और शक्तिवान का समन्वय तो होना चाहिये। इसीलिये गायत्री को- सावित्री को- सूर्य प्रकाश के साथ सदा ही सम्मिलित किया जाता है।
गायत्रीं स्मरेद्घीमान् हृदि वा सूर्यमंडले।
कल्पोक्त लक्षणेनैव ध्यात्वाऽभ्यर्च ततो जयेत्॥
“बुद्धिमान पुरुष को हृदय में और सूर्य मंडल में गायत्री का स्मरण करना चाहिये और कल्पोक्त लक्षण से ही ध्यान तथा अभ्यर्चन करके उसके पश्चात् जप करना चाहिये।’’
आत्मा में अनन्त दिव्य तेज भरा पड़ा है वह गायत्री का ही भर्ग है। वह तेजस्विता से ही है, जठराग्नि बन कर शरीर का भोजन पचाती, उष्णता प्रदान करती और गतिशील सक्रियता प्रदान करती है। वही मस्तिष्क में बुद्धि, हृदय में भावना, व्यक्तित्व में प्रतिभा और जीवन में महानता बन कर विद्यमान रहती है। इसी प्रकाश से आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन का लाभ होता है। आँखों की पुतलियों में जिस प्रकार छोटा-सा प्रकाश बिन्दु हमें संसार का सुन्दर दृश्य देख सकने का अवसर देता है वैसे ही आत्मा में स्थित वह परम तेज हमें तत्त्वदर्शी बनाता है, अज्ञान से छुड़ा कर प्रकाश की ओर ले जाता है।
आत्मा का स्वरूप प्रकाशयुक्त माना गया है। ध्यान प्रयोजनों में आत्मा को सदा प्रकाश ज्योति मान कर चला जाता है। आत्म- साक्षात्कार ज्योति-पुञ्ज के रूप में ही होता है। आकृतियों वाले इष्टदेव तो हमारे कल्पना चित्र मात्र हैं जो ध्यान धारण में परिपक्वता लाने तक ही काम आते हैं। उससे ऊँची स्थिति में तो ब्रह्म-ज्योति ही एक मात्र अवलम्बन रह जाती है। यही आध्यात्मिक यज्ञाग्नि है इसी को आदित्य दिव्य-आभा- अखण्ड-ज्योति कहते हैं। यह आभा जिसे जितनी मात्रा में मिलती जाती है, वह परब्रह्म परमात्मा के साथ- सविता देवता के साथ एकाकार होता चला जाता है। संसार के समस्त जड़-चेतन में यही ज्योति प्रकाशमान है। इसी से देव शक्तियाँ और पंच-तत्व अपना कार्य कर सकने में समर्थ होता है। ग्रह-नक्षत्रों में यह प्रकाश जगमगा रहा है। हमारा कल्याण इस प्रकाश में ओत-प्रोत होने से ही होता है।
कहा भी है-
आदित्यार्न्तगतं यच्च ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमम्।
हृदये सर्वभूतानां जीवभते स तिष्ठति॥
हृद्व्योम्नि तपति ह्योप वाह्य सूर्यस्य चान्तरे।
अग्नौ वा धूमकेतौ च ज्योतिषश्चित्रकरञ्च यत्।
प्राणिनां हृदये जीव रूप तया य एवभर्गस्तिष्ठति स।
एव आकाशे आदित्यमध्ये पुरुषरूपया विद्यते॥
(याज्ञ. सं.)
“जिस ज्योति की प्रभा से सारे तामसिक भाव दूर हो जाते हैं, वह ज्योति ही श्रेष्ठ वस्तु है, उसे आदित्य के अंतर्गत समझना होगा। वही समस्त जीव-जगत के हृदय में चेतयिता (चेतन) बन कर निवास करती है। बाह्य सूर्य के भीतर जो ज्योति आकाश में प्रकाश पाती है, वही ज्योति जीवन के हृदयाकाश में भी प्रकाश पाती है। वह ज्योति अग्नि, धूमकेतु, नक्षत्र आदि से भी अधिक उज्ज्वल है। वही भर्ग-देवता प्राणियों के हृदय में जीव-रूप में अर्थात् चेतन रूप में विराजमान है। वही बाह्य जगत के अन्तःकरण में विराट् पुरुष के रूप में विराजमान होकर जगत को सचेतन करता है।”
अग्निश्च या मन्युश्च मन्युयतपश्चमन्युकृतेभ्यः।
पापेभ्योरक्षन्ताम्। यदह्रा पापम्कार्षम् शिरना॥
मनसा वाचा हस्ताभ्याम्।
षद्भ्यामुदरेण शिश्ना।
अहस्तदवलुम्पत। यत्किं च चुरितं मयि।
इदमहं माममृतयोनौ सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा॥
(तै.आ.10-32)
“अग्नि अर्थात् प्रकाशमय और अर्थात् ज्ञानमय परमात्मा और उनकी शक्तियाँ उन पापों से मेरी रक्षा करें जो कि क्रोधादि वृत्तियों के कारण उत्पन्न हुये हैं। जो पाप मैंने दिन में किया है, मन, वाणी या हाथों द्वारा किया है, पैरों, उदर और उपस्थेद्रिय द्वारा किया है, वह लुप्त हो गया। जो कुछ पाप मुझ में हैं, वह लुप्त हो जाय। यह मैं अपने आपको अमृत की योनि में- जो कि सत्य- ज्योति रूप परमात्मा है, उसमें आहुति रूप देता हूँ- स्वाहा बोल कर देता हूँ।”
वेदों में जिस अग्नि का सहस्रों मंत्रों में वर्णन एवं स्तवन किया गया है वह चूल्हे में जलने वाली अग्नि नहीं वरन् व्यष्टि और समष्टि को हर दिशा में प्रकाशित प्रभावित करने वाली दिव्य तेजस्विनी दिव्य-ज्योति है। यही यज्ञाग्नि है। इसी का वैश्वनर रूप में- आदित्य और सविता रूप से पूजन अर्चन किया जाता है। अग्नि और सूर्य में भी वही दिव्य तेजस्विता विद्यमान है। इसलिये उसे उनमें उपस्थित होते हुए भी भिन्न माना गया है। श्रुति कहती है-
योऽग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्नि।
शरीरं योऽग्निमन्तंरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याभ्यमृतः॥
“जो अग्नि में रह कर अग्नि से भिन्न है, अग्नि जिसको नहीं जानते, अग्नि जिसका शरीर है, जो अग्नि के भीतर रह कर अग्नि को नियंत्रित करता है, वही तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा है।”
सावित्री का देवता सविता वह नहीं जो सवेरे उगता और साँय को अस्त होता है। यह उसकी एक प्रतिमा मात्र है। सूर्य आवरण है और सविता उसकी आत्मा। जो सर्वत्र प्रकाश, जीव, जागृति, चेतना उत्पन्न करता है वह सविता है। यों दृश्य सूर्य में भी यह गुण हैं, पर आत्मा में इन विशेषताओं को प्रेरक एवं संस्थापक सविता परब्रह्म परमात्मा ही है। सावित्री उसी की अविच्छिन्न शक्ति है। इन दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक का कार्य दूसरे पर पूर्णतया निर्भर हैं। एक देवता है दूसरा देवी। एक प्राण दो शरीर की तरह दोनों को अविभाज्य ही समझना चाहिये।
सावित्री- गायत्री के माध्यम से ही सविता परब्रह्म तक हमारी पहुँच हो सकती है। माता के द्वारा ही पिता से सम्बन्ध और परिचय होता है। माता का माध्यम न हो तो पिता का परिचय, सम्बन्ध एवं अनुग्रह प्राप्त हो सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार गायत्री महाशक्ति का सहारा लिये बिना परब्रह्म के सृष्टि साम्राज्य में आत्मा को खुल खेलने, युवराज बनने और अनन्त ऐश्वर्य पर अधिकार करने का भी सौभाग्य नहीं मिल सकता।
उपनिषद् में इस तथ्य को और भी विस्तारपूर्वक- विवेचना एवं उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया गया है उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
कस्सविता का सावित्री?
अग्निरेव सविता पृथिवी सावित्री।
कस्सविता का सावित्री?
वरुण एव सविताऽऽपस्सावित्री॥
कस्सविता का सावित्री?
वायुरेव सविताऽऽकाशस्सावित्री।
कस्सविता का सावित्री?
यज्ञ एव सविता छंदांसि सावित्री॥
कस्सविता का सावित्री?
स्तनयित्नुरेव सविता विद्युत्सावित्री।
कस्सविता का सावित्री?
आदित्य एव सविता द्यौस्सावित्री॥
कस्सविता का सावित्री?
चन्द्र एव सविता नक्षत्राणि सावित्री।
कस्सविता का सावित्री?
पुरुष एव सविता स्त्री सावित्री॥
एवं ज्ञात्वा विद्वान् कृतकृत्यो भवति, सावित्र्या एवं सलोकतां जुषतीत्युपनिषद।
“सविता और सावित्री कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि अग्नि सविता है, पृथ्वी सावित्री है, वरुण सविता है और जल सावित्री है। वायु सविता है और आकाश सावित्री है। यज्ञ सविता है और ऋचा सावित्री है। मेघ सविता है और विद्युत सावित्री है। सूर्य सविता है और आकाश सावित्री है। चन्द्र सविता और नक्षत्र सावित्री हैं। मन सविता और वाणी सावित्री है। पुरुष सविता और स्त्री सावित्री है, इस सर्व व्यापक तेजोमय सावित्री को जो विद्वान् जानते हैं वे कृत-कृत्य हो जाते हैं। सावित्री से ही सालोक्य मोक्ष प्राप्त होता है।”
प्रश्नोत्तर के रूप में सविता और सावित्री का रूप उपरोक्त मंत्र में पूछा है और उसी में उदाहरण समेत समाधान भी किया गया है। सविता और सावित्री के जोड़े को उदाहरण समेत अन्य युग्मों के सदृश बताकर जिज्ञासु की शंका का समाधान किया गया है।
अग्नि, सविता है और पृथ्वी सावित्री है। वरुण सविता और जल सावित्री, वायु सविता और आकाश सावित्री, आदित्य सविता और आकाश सावित्री है।
पृथ्वी में यदि गर्मी न रहे तो वह ठण्डी पड़ जाय, उसकी उत्पादन शक्ति समाप्त हो जाय, जो कुछ भी सौंदर्य पृथ्वी पर दृष्टिगोचर होता है, उसका पता भी न चले।
जल दृश्य पदार्थ है, वरुण उसकी अधिष्ठात्री शक्ति- आत्मा है। वायु का निवास आकाश में है। आकाश न हो तो वायु कहाँ रह सकेगी? वायु न हो तो आकाश का उपयोग क्या रहेगा? इसी प्रकार आदित्य की निर्भरता द्युलोक पर है।
मंत्र बड़ा है, उसमें कितने ही युग्मों का उदाहरण देकर जिज्ञासु को यही तथ्य हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है कि जीवन का साध्य लक्ष्य- ब्रह्म है और उसका साधन-गायत्री। यदि किसी को ब्रह्म को वस्तुतः प्राप्त करना हो। ब्राह्मी स्थिति, ब्रह्म परायणता- ब्रह्म निर्वाण एवं ब्राह्मणत्व उपलब्ध करने की आकाँक्षा करता हो तो उसे ब्रह्म-तेज की- ब्रह्मवर्चस की- अधिष्ठात्री देवी- सावित्री गायत्री का अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए।