Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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गर्भस्थ शिशु का इच्छानुवर्ती निर्माण
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महाभारत में एक कथा आती है कि “एक बार कुपित होकर अश्वत्थामा न द्रौपदी के गर्भस्थ शिशु (परीक्षित) पर आग्नेयास्त्र प्रयोग किया। परीक्षित मां के उदर में ही असह्य पीड़ा से जलने लगने लगा। माँ ने भी उसे जाना। उन्होंने सम्पूर्ण समर्पण भाव से परमात्मा का स्मरण किया तब उस बच्चे की रक्षा हो पाई।”
गर्भस्थ शिशु को कोई अस्त्र तब तक नहीं छेद सकता जब तक माँ का शरीर न छिदे। दरअसल आग्नेयास्त्र मन्त्र शक्ति थी, जो संकल्प-शक्ति के द्वारा चलाई गई थी। बाहरी व्यक्ति द्वारा दूर से संकल्प-प्रहार से यदि गर्भस्थ बच्चा जल और मर सकता है, और फिर परमेश्वर के प्रति अटल विश्वास और रक्षा की भावना से उस बच्चे को बचाया जा सकता है तो उसके शरीर और मनोभूमि में भी इच्छानुवर्ती परिवर्तन लाया जा सकता है।
सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि “वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थीं फिर उसी प्रकार निरन्तर चिन्तन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और व्यवहार-बर्ताव अपनाती थीं, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में ढल जाता था, जिसमें वह चाहती थीं। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि उनके पहले सभी बच्चे ज्ञानी, सन्त और ब्रह्मनिष्ठ होते गये। अजात-शत्रु की प्रार्थना पर उन्होंने अन्तिम गर्भस्थ बच्चे को राज-नेता के अनुरूप ढाला। उसी ने पिता का राज्य-सिंहासन सम्भाला और कुशल राजनीतिज्ञ हुआ।
आयुर्वेद के विशेष ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में भी आया है- ‘‘पूर्व पश्ये ऋतुस्नाना या दशं नर मंगला। तादृष्य जनयेत्पुत्र भर्त्तारं दर्शये तत।” अर्थात्- ऋतु स्नान के पश्चात स्त्री जिस प्रथम पुरुष को देखती है, बच्चे का रूप-रंग और मुखाकृति उसी जैसा होता है, इसलिये वह सर्वप्रथम अपने पति का दर्शन करे।
यह सभी तथ्य भावना विज्ञान से सम्बन्धित हैं, इसलिये प्रत्यक्ष न दिखाई देने पर उनकी सत्यता में कोई सन्देह नहीं है। यह बात अब पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिक, डाक्टर और दूसरे प्रबुद्ध व्यक्ति भी मानने लगे हैं। डा. फाउलर ने इस सम्बन्ध में काफी खोज की है, गर्भावस्था में भी गर्भिणी के हाव-भाव का बच्चे के शरीर और मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इस सम्बन्ध में उनके कई प्रमाण हैं।
प्रत्यक्षदर्शी घटना का वर्णन करते हुए फाउलर लिखते हैं- ‘‘एक स्त्री अपने बच्चे को नींद लाने वाली गोली देकर किसी आवश्यक कार्य से बाहर चली गई। लौटने पर वह बच्चा मरा पाया। स्त्री को इससे बहुत दुःख हुआ और वह शोक-मग्न रहने लगी। उसी अवस्था में उसने दूसरी बार गर्भ धारण किया। पहले बच्चे के प्रति उसका शोक ज्यों का त्यों बना रहा, इसलिये दूसरा लड़का रोगी हुआ। दूसरे वर्ष ही उसकी मस्तिष्क रोग से मृत्यु हो गई। अब वह और दुःखी रहने लगी। इस अवस्था में तीसरा पुत्र हुआ, वह हठी, सुस्त और कमजोर हुआ। दाँत निकालते समय उसकी भी मृत्यु हो गई। चौथा पुत्र भी ऐसे ही गया। किन्तु पांचवीं बार उसकी परिस्थितियों में सुखद परिवर्तन आये, जिससे उस स्त्री की मानसिक प्रसन्नता बढ़ी। वह पहले की तरह हँसने-खेलने लगी। इस बार जो बच्चा हुआ वह पूर्ण स्वस्थ, निरोग और कुशाग्र बुद्धि का हुआ।
डा. फाउलर का मत है कि क्रोध, आश्चर्य, घृणा, अहंकार, गम्भीरता आदि के अवसर पर माता की नासिका, मुख और आकृति में जैसे परिवर्तन उठाव गिराव होते हैं, वैसे ही बच्चे की नाक, मुँह, माथे आदि अवयवों की शक्ल भी बनती है। गर्भाधान के बाद स्त्री प्रसन्न नहीं रहती, शोक या चिन्ता-ग्रस्त रहती है तो बालक के मस्तिष्क में पानी की मात्रा बढ़ जाती है। यदि 4 वर्ष के बच्चे के सिर का व्यास बीस इंच से अधिक हो तो मानना चाहिये कि वह जल-संचय का शिकार हुआ है। उसकी माँ गर्भावस्था में दुःखी रही है।
भय, विक्षेप, अशुभ चिंतन, उत्तेजना से जिस तरह अंगों में भद्दापन, बेडौल और खराब मुखाकृति बनती है, उसी तरह शुभ-संकल्प और प्रसन्नतापूर्ण विचारों से बच्चा स्वस्थ, सुँदर और चरित्रवान् बनता है। इसीलिये कहा जाता है- गर्भावस्था में माँ को सत्य भाषण, उत्साह, प्रेम, दया, सुशीलता, सौजन्यता, धर्माचरण और ईश-भक्ति का अनुगमन करना चाहिये। यह बच्चे होनहार और प्रतापी होते हैं, जबकि क्रोध, ईर्ष्या, भय, उद्विग्नता आदि अधम वृत्तियों के बच्चे भी अधम, उत्पाती और स्वेच्छाचारी होते हैं। गलत खान-पान भी उसमें सम्मिलित हैं।
इसके अतिरिक्त जो महत्वपूर्ण बातें गर्भस्थ शिशु को को प्रभावित करती हैं, उनमें से वातावरण मुख्य है। ध्रुव ऋषि-आश्रम में जन्मे थे। उनकी माँ सुनीति बड़ी नेक स्वभाव और ईश्वर भक्त थीं। ध्रुव के महान तेजस्वी होने में वातावरण भी मुख्य सहायक था, जबकि उत्तानपाद दूसरे बेटे में वैसी तेजस्विता न उभर सकी।
एक पाश्चात्य डा. ने वातावरण के प्रभाव का अध्ययन इस प्रकार किया- ‘‘एक बार एक कमरे का फर्श और दीवार सबको नील-पोत कर नीला कर दिया। उस कमरे में श्वेत रंग का खरगोश का एक जोड़ा रखा गया। कुछ समय बाद खरगोश के दो बच्चे हुए, दोनों के बालों में नीले रंग की झलक थी। इससे पता चलता है कि बच्चे के मस्तिष्क में ही नहीं, वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव स्थूल अंगों पर भी पड़ता है। गर्भवती का निवास ऐसे स्थान पर होना चाहिये, जहाँ चारुता हो, मोहकता और आकर्षण हो। हरे बगीचों, केले, फलों आदि से घिरे स्थान, देव-स्थान और विशेष रूप से सजे-सजाये, साफ-सुथरा स्थान गर्भस्थ बच्चों पर सुन्दर प्रभाव डालते हैं।
स्पेन के किसी अंग्रेज परिवार में एक बार एक स्त्री गर्भवती हुई। गर्भवती जिस कमरे में रहती थी, उसमें अन्य चित्रों के साथ एक इथोपियन जाति के बहादुर का चित्र लगा हुआ था। वह चित्र उस स्त्री को अति प्रिय था। कमरे में वह उस चित्र को बहुत भावनापूर्वक देखा करती थी। दूसरे काम करते समय भी उसे उस चित्र का स्मरण बना रहता था। अन्त में जब उसे बालक जन्मा तो उसके माता-पिता अंग्रेज होते हुये भी लड़के की आकृति और वर्ण इथोपियनों जैसा ही था। उस चित्र की मुखाकृति से बिल्कुल मिलता-जुलता, उसी के अनुरूप था। घरों में भगवान के, महापुरुषों के चित्र लगाये भी इसीलिये जाते हैं कि उनकी आकृतियों से निकलने वाले सूक्ष्म भावना-प्रवाह का लाभ मिलता रहे।
वातावरण के साथ-साथ गर्भिणी के साथ व्यवहार, बर्ताव और बातचीत भी बहुत सौम्य, शिष्ट और उदार होना चाहिये। क्रोध, मारपीट, धमकाना, डाँटना, दबाकर रखना आदि कुटिलताओं का बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार इस प्रकार के आचरण बहुत ही दुःखदायी और स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने समुद्री-यात्रा के दौरान किसी बात से अप्रसन्न होकर, अपनी गर्भवती को जोर का धक्का मारा। गिरते-गिरते जहाज की जंजीर हाथ में पड़ गई। उससे वह गिरने से सम्भल गई किन्तु वह व्यक्ति बड़ा क्रूर निकला। उसने छुरे का वार किया, जिससे उस स्त्री की जंजीर पकड़े हुये हाथ की तीन उंगलियाँ कट गईं, वह स्त्री समुद्र में चली गई।
जहाज के चले जाने पर कुछ मल्लाहों ने उसकी रक्षा की। बाद में उस स्त्री की जो सन्तान हुई यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये कि उसकी तीन उंगलियाँ ही नहीं थीं। और वह बालक मानसिक दृष्टि से अपूर्ण, क्रोधी तथा शंकाशील स्वभाव का था।
धमाका पैदा करने वाला ऐसा कोई व्यवहार गर्भवती से नहीं करना चाहिये, जिससे मस्तिष्क में तीव्र आघात लगे। इससे बच्चे के शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
बच्चों के मानसिक निर्माण में मात-पिता की घनिष्टता, प्रगाढ़ प्रेम, परस्पर विश्राम का सबसे सुन्दर प्रभाव पड़ता है। सच बात तो यह है कि माता-पिता का संकल्प बच्चे को उसी प्रकार पकाता है, जिस प्रकार मादा कछुआ पानी में रहकर रेत में रखे अपने अंडों को पकाती है। दिव्य गुणों का बच्चे में आविर्भाव ही प्रेमपूर्ण भावनाओं से होता है, इसलिये गर्भावस्था में स्त्री-पुरुष को अधिकांश समय साथ-साथ बिताना चाहिये। पवित्र आचरण और प्रगाढ़ मैत्री रखनी चाहिये, ऐसे बच्चे शरीर से ही नहीं मिजाज से भी पूर्ण स्वस्थ होते हैं।
इस उदाहरण से यह बात और भी स्पष्ट होगी। एक अँग्रेज ने किसी ब्राजील की लड़की से विवाह किया। लड़की का रंग साँवला था पर उसमें मोहकता अधिक थी। पति-पत्नी में घनिष्ठ प्रेम था। पर उन्हें कोई संतान नहीं हुई।
कुछ समय पश्चात वह स्त्री मर गई। पति को बड़ा दुःख हुआ। कुछ दिन बाद उसने दूसरा विवाह अँग्रेज स्त्री से किया। वह गौरवर्ण की थी पर इस अँग्रेज को अपनी पूर्व पत्नी की याद बनी रहती थी इसलिये वह अपनी नई पत्नी को भी उसी भाव से देखा करता था। इस स्त्री से एक कन्या उत्पन्न हुई, जो ब्राजीलियन लड़की की तरह साँवली ही नहीं मुखाकृति से भी मिलती-जुलती थी। यह गर्भावस्था में पिता के मस्तिष्क में जमा हुआ पत्नी-प्रेम का संस्कार ही था, जिसके कारण बालिका ने उसका रंग और आकार ग्रहण किया।
इन समस्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि गर्भस्थ शिशुओं का इच्छानुवर्ती निर्माण सम्भव है। अपने रहन-सहन, स्वभाव और संकल्पों को स्वस्थ और सुन्दर बनाकर भावी बच्चों में भी स्वास्थ्य सौंदर्य सद्गुण, तेजस्विता और मनस्विता का विकार किया जा सकता है। यह बात माता-पिता दोनों को मालूम होनी चाहिये।