Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रगति पथ के आन्तरिक अवरोध
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संसार के प्रायः लोग उन्नति चाहते हैं और उसके लिए प्रयत्न भी करते रहते हैं। कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो उन्नति एवं विकास के अनिच्छुक हो, अन्यथा उन्नति एवं विकास ऐसे आकर्षण लक्ष्य हैं जो प्रत्येक को अपनी ओर उन्मुख कर ही लेते हैं। यह दूसरी बात है कि लोगों के उन्नति सम्बन्धी केन्द्र बिन्दु भिन्न-भिन्न हो। कोई आर्थिक उन्नति का इच्छुक हो सकता है तो कोई राजनीतिक उन्नति का। किसी को शारीरिक उन्नति के प्रति आकर्षण रह सकता है तो किसी को आत्मिक उन्नति के प्रति। कतिपय सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए लालायित हो सकते हैं तो अनेक धर्म लाभ की जिज्ञासा रख सकते है। तात्पर्य यह है कि सभी किसी न किसी प्रकार की उन्नति के लिए इच्छुक एवं क्रियाशील देखे जा सकते हैं।
संसार में उन्नति करने के अगणित क्षेत्र हो सकते हैं, उसी प्रकार उनके लिये प्रयत्नों के रूपों में भी तदनुकूलता के साथ विभिन्नता एवं विविधता हो सकती है। उदाहरण के लिए आर्थिक उन्नति प्राप्त करने का मार्ग साधारणतः सही हो सकता है कि मनुष्य किसी व्यवसाय, व्यापार अथवा उद्योग का आश्चर्य ले। ऐसे कार्य और इस प्रकार की कुशलताओं को काम में लाये जिससे उसकी आय में वृद्धि हो। व्यवसायिक क्षेत्र में उसको सामाजिक सद्भावना प्रचुर रूप से प्राप्त है। इस प्रकार का प्रयत्न करे कि अर्थागमन की अपेक्षा अर्थ निर्गमन की सम्भावना कम रहे। अपने सम्पूर्ण प्रयत्नों एवं प्रतीक्षा को आर्थिक योजनाओं के मार्ग में नियोजित करने से ही अर्थोन्नति का लक्ष्य पूरा हो सकता है।
राजनीतिक उन्नति के लिये व्यवहार चातुर्य, वाक-नैपुण्य तथा देश काल सम्बन्धी गतिविधियों के ज्ञान तथा उपयोग की कुशलता का होना आवश्यक है। वर्तमान समस्याओं के कारणों एवं निवारण का ज्ञान इस क्षेत्र की अनिवार्य शर्त है। प्रतिभा एवं प्रभाव की निष्णातता विकसित किये बिना राजनीति में आये बढ़ सकना सम्भव नहीं।
शारीरिक उन्नति का मूल भाव स्वास्थ्य एवं सबलता है। उसे प्राप्त करने के लिए व्यायाम, संयम भोजन को उस सीमा तक उचित एवं अनुकूल बनाना होगा, वहाँ तक उसकी क्षमता है। अधिक से अधिक पौष्टिक पदार्थ खाना और व्यायाम द्वारा उन्हें पूर्ण रूप से पचाना और उनके तत्त्वों को ह्रास से बचाना ही मोटे तौर पर शारीरिक उन्नति का विभाग है। संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि वह हर काम करना जिससे शरीर का पोषण एवं संचय हो और किसी भी उस काम को न करना जिससे शरीर का पोषण का अपव्यय हो।
आत्मिक उन्नति का मार्ग तपोमय मार्ग ही हो सकता है। इस तपोमय मार्ग से उस तपस्या का तात्पर्य नहीं है, जो ड़ड़ड़ड़ प्रान्तों में जाकर भूखे-नंगे रहकर समाधि लगाने अथवा पंचाग्नि तपने आदि के रूप में निभाई जाती है। इस तपोमय मार्ग का तात्पर्य अपनी आन्तरिक वृत्तियों तथा ब्रह्मा क्रियाओं को शिवत्व की ओर अग्रसर करना ही है। अपने अन्तःकरण से काम, क्रोध, लोभ, भय, मोहर आदि आत्म के शत्रुओं को निर्वासित करना और उनके स्थान पर त्याग, दया, उदारता, नम्रता तथा ज्ञान आदि की प्रतिष्ठा करना। यथा सम्भव धर्म के ड़ड़ड़ड़ दस लक्षणों का प्रतिपादन करना। सामान्यता ही नहीं संकटों तथा आपत्तियों में भी अपने धैर्य एवं उद्देश्य से विचलित न होना। भावाभाव में यथा सम्भव समभाव रहना। दया और अनुकूलता आदि गुणों का विकास करने के साथ साथ सत्य, अस्वार्थ एवं आत्मादर को प्रश्रय देना न्याय नैपुण्य तथा कर्तव्यशीलता को धारण करना परिश्रम, पुरुषार्थ तथा कर्म कर्त्तव्य को प्रवंचित न करना आदि ऐसे संयम एवं नियम हैं, इस प्रकार अनुसरण करना ही तपोमय मार्ग है। इस प्रकार का शुभ मार्ग अवलंबन करने से ही आत्मोन्नति की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।
उसी प्रकार सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए तदनुसार मार्ग का आश्रय लेना होगा। जैसे समाज के प्रत्येक सदस्य की अपना सहोदर समझकर व्यवहार करना। प्रतिक्षण सबसे सहयोग करने में तत्पर रहना। विनम्रता, उदारता तथा अनुकूलता का प्रमाण प्रस्तुत करना। सेवा, सद्भावना, प्रेम एवं परस्परता का मूल्य समझना तथा अपने और दूसरों के कर्त्तव्य व एकाधिकार के प्रति जागरूक तथा न्यायशील रहना, सामाजिक नियमों एवं मान्यताओं का मान करना, कोई ऐसा काम करने से बचना जिसका दूषित प्रभाव समाज के किसी अंग पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रतिकूल पड़े, समाज के सुन्दर, सभ्य, संस्कृत, स्वस्थ और सम्पन्न बनाने में यथाशक्ति योग प्रदान करना, प्रभाव के पिछड़े और गिरे बन्धुओं को आवश्यकतानुसार सहायता एवं सहयोग देकर बढ़ाने और उठाने के प्रयत्नों में भाग लेना आदि ऐसी भावनायें एवं क्रियाएँ है जिनका परिणाम सामाजिक सद्भावना एवं सम्मान के रूप में ही साक्षात होता है।
इस प्रकार अपनी अभीप्सित उन्नति के लिए तदनुकूल पद एवं प्रयत्नों को अपनाने से मनुष्य उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।
यह सब होते हुए भी एक बड़ा प्रश्न है कि लोग उन्नति की आकांक्षा करते है और उसके लिए प्रयत्न भी, तथापि अधिकतर देखा जाता है कि वे इस उद्देश्य में सदा सफल ही नहीं होते। प्रयत्न एवं परिश्रम करते हुए भी पिछड़ कर रह जाते हैं। ऐसा क्यों होता है अवश्य ही कुछ अवरोध ऐसे आड़े आते ही रहते होंगे, जो अग्रसर हो तो चरणों को यथा स्थान रोक रखते हैं। इस प्रश्न पर विचार करने से ‘अहं’ एवं ‘अज्ञान’ दो ऐसे अवरोध समझ में आते हैं, जो श्रृंखला बनकर चरणों की गति अवरुद्ध कर देते ह, मार्ग को कठिन बना देते हैं। सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि यह दोनों अवरोध साथ चलते हुए मनुष्य की दृष्टि से बचे हुए अपना काम करते रहते हैं।
अहं के अनेक स्वरूप हो सकते हैं। अहंकार, अभिमान गर्व, दम्भ, अविनय, असम्मान, पुरुषता, क्रूरता, कठोरता, शासन भावना आदि अहं के ही तो अनेक रूप हैं और इसके यह अनेक रूप अवसरानुकूल अथवा ड़ड़ड़ड़ अदा करके अवरोध का काम कर जाते है किन्तु बहुचतुर, बहरूपिया इस ढंग से साथ लगा और जड़ काटता रहता है कि पता ही नहीं चल पाता कि वह संतोषदायी मित्र जैसा लगने वाला उन्नति मार्ग का भयानक शत्रु है।
सबसे पहले तो यह ऊँची-ऊँची कल्पनाओं में बुलाकर आसमान के सब्जबाग दिखलाकर मनुष्य को आगे बढ़ने से ही रोके रहता है। मात्र आकांक्षा को ही कर्त्तव्य जैसा अनुभव कराता रहता है। उन्नति की आकांक्षा मात्र रखने पर ही अहंकारी व्यक्ति अपने को असमर्थ समझने लगता है। उसकी आकांक्षायें इतनी ज्वलित होती है कि उनमें मूर्तिमानता का ही संतोष प्राप्त करने लगता है। इस प्रकार जब बैठे बिठाये ही उन्नति का संतोष प्राप्त होने लगता है, तब स्वाभाविक ही है कि बढ़कर पुरुषार्थ करने की उसकी वृत्ति सोती ही पड़ी रहेगी।
अहंकार की एक चतुरता यह भी कि यह मनुष्य को स्थगनशील और दीर्घसूत्री बना देता है। अहं प्रधान व्यक्ति हमेशा यह हौंसला रखता है कि वह जब चाहेगा उठकर उन्नति के शिखर पर जा पहुँचेगा। जिस दिन से कार्य प्रारम्भ करेगा, बढ़ता ही चला जायेगा किन्तु बढ़ने के लिए न तो वह उठकर खड़ा ही होता है और न ऊपर चढ़ने के क्रियाशील एवं अहंकारी व्यक्ति को हर कार्य सुगम और प्रत्येक लक्ष्य सहज साध्य लगा करता है। इसलिये अपनी क्रियाओं को सदा स्थगित ही रखता है। ऐसी दशा में उसके जीवन के सारे अवसर निकल जाते हैं, सारी सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं। तब क्रिया और और अवसर के अभाव में उन्नति कहाँ? निदान अहंकारी व्यक्ति के हाथ शिवाय उस कोरे अहंकार के और कुछ ना आ पाता है।
अहंकार का एक दोष यह भी है वह मनुष्य को किसी भी अन्य उन्नत व्यक्ति को गणना में ही नहीं लाने देता। वह हमेशा किसी भी उन्नत व्यक्ति को देखकर यहीं कहता ओर सोचता रहता है कि -यह भी कोई उन्नति है। कुछ पैसा हो जाना अथवा विद्या प्राप्त कर लेना कोई बड़ी बात है? इतना तो हम जब चाहें उपलब्ध कर सकते हैं। ऐसी दशा में जब उन्नति विकास को कोई मूल्य ही उसकी दृष्टि में नहीं होता, वह हर उपलब्धि को हेय समझता है, तब स्वयं सारी वृत्तियों ओर विश्रृंखलताओं को समेट कर उन्नति मार्ग पर सतर्कतापूर्वक अभिघात करेगा ऐसी आशा किसी भी अभिमानी व्यक्ति से नहीं की जा सकती है।
बहुत से व्यक्ति आरम्भ में तो अहंकारी नहीं होते। कुछ उन्नति भी कर लेते हैं पर क्यों ही उनके हाथ में उन्नति के कुछ फूल आये नहीं कि वह तुरन्त ही गर्व का रूप रखकर आ पहुँचा और लगा व्यक्ति को भ्रमित करने, अभिमान की चपेट में आते ही मनुष्य की सीधे चाल टेड़ी हो जाती है। पैसा या प्रतिष्ठा मिलते ही वह दूसरों पर शासन करने के दोष से उन्माद हो जाता है उसका व्यवहार बदल जाता है, भावनायें वह नहीं रहती, विनम्रता का गुण चला जाता है और कठोरता, पुरुषता आदि के दुर्गुण आ दबाते हैं। निदान से सारी परिस्थितियाँ उलटी हो जाती हैं जो प्रारम्भ में उन्नति एवं विकास की सहायक बनी थी ऐसी दशा में आगे उन्नति होना तो दूर प्राप्त उन्नति भी अधिकार से निकल जाती है और मनुष्य फिर प्रारम्भ जैसा रिक्त हो जाता है। इस प्रकार वह उन्नति पथ बहुत बड़ा अवरोध सिद्ध होता है इससे दूर रहकर ही कोई व्यक्ति कर स्थिर रख सकता।
अज्ञान उन्नति पथ का अवरोध ही नहीं पतन की आधारशिला है। ‘अज्ञान’ अन्धकार का परिचायक है। कोई कितना भी शक्तिशाली क्षिप्र अथवा गतिगामी क्यों न हो अन्धकार की स्थिति में उसकी गति अवरुद्ध हो ही जायेगी उसके शक्तिशाली पाँव जहाँ के तहाँ ठिठककर रुक जायेंगे। आगे बढ़ने का उसका साहस तिरोहित हो जायेगा। अन्धकार की अवस्था में मार्ग लक्ष्य आदि कुछ भी नहीं दिखता। अविश्वास संशय और सन्देह अन्धकार की की अनिवार्य अनुभूतियाँ है, भ्रम एवं भूले अन्धकार के कारण ही उत्पन्न होती है। फिर भला इतनी उलझनों के साथ यदि कोई उन्नति की ओर अग्रसर होना चाहिये तो किस प्रकार सम्भव हो सकता है।
उन्नति की आकांक्षा रखता हुआ भी जो व्यक्ति अज्ञान से आक्रान्त है, वह अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकता है। प्रथम तो वह अज्ञान के कारण वह निर्णय ही न कर सकेगा कि उसने उन्नति के लिए जिस क्षेत्र अथवा दिशा का चयन किया है, वह उसके लिए उपयुक्त भी है या अथवा नहीं। अपनी क्षमताओं और आकांक्षा में सन्तुलन बना सकना अज्ञानी व्यक्ति के वश की बात नहीं होती। अज्ञानी व दूरदर्शी तो होता ही है। उसकी यह न्यूनता उसे इस योग्य नहीं होने देती कि वह दूर भविष्य के गर्भ में अन्तर्हित अपने लक्ष्य को स्पष्ट देख सके और यदि वह एक बार वह उसको देख समझ भी ले तो उसके अनुभव मार्ग चुनने और कार्य पद्धति का निर्माण उसके लिए सम्भव है? लक्ष्य प्राप्ति अनेक गतिविधियों के बीच उसकी ज्ञान हीनता कहीं न कहीं धोखा दे ही देगी।
उन्नति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्य कुशलता के साथ व्यवहार कुशलता भी तो अपेक्षित है। अब वो अज्ञानी है वह व्यवहार कुशल भी किस प्रकार हो सकता है। व्यवहार में विख्यात होने के लिए जिस मानव मनोविज्ञान की उसकी सूक्ष्म वृत्तियों के अध्ययन की आवश्यकता होती है, उसकी अज्ञानी व्यक्ति कहाँ से पूरी कर सकता है। अज्ञान की दिशायें एक विचित्रता यह भी होती है कि उल्टी बात सीधी और सीधी बात उल्टी लगा करती है। इसलिये अज्ञानी व्यक्ति अधिकतर विपरीत दिशाओं में ही क्रियाशील हुआ करते हैं। इससे उन्नति की सम्भावनायें तो दूर उल्टे पतन होना ही निश्चित होता है।
हम आप सभी तो उन्नति की आकांक्षा रखते हैं पर केवल आकांक्षा भर तो हम उन्नतिशील हो नहीं जायेंगे आकांक्षा के साथ क्रिया का समन्वय होना नितान्त आवश्यक है किन्तु सबसे पूर्व हमें अपनी अहं एवं अज्ञान की न्यूनताओं को दूर कर लेना चाहिये। अध्ययन, अनुभव, दर्शन एवं श्रवण द्वारा अपने अज्ञान को दूर कर उचित ज्ञान का विकास कर लेने पर ही उन्नति का मार्ग निश्चित और तद्नुकूल क्रिया-कलाप की योजना करें। उन्नति की ओर उन्मुख होने अथवा उन्नत व्यवस्था में आ जाने पर भी अहं और अज्ञान से सावधान रहने की आवश्यकता है, तभी किसी वाँछित क्षेत्र में उन्नति भी हो सकती है और स्थिर भी रह सकती है।