Magazine - Year 1969 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सर्वव्यापी आत्मा की सर्वज्ञता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
साधना खण्ड के अनेक उपनिषदों में सिद्धियों के अनेक चमत्कारिक वर्णन मिलते हैं। उनमें एक सिद्धि ‘ज्ञान सिद्धि’ है। ‘योग कुण्डल्युपनिपत्’ में आत्म-भेदन की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन करते हुए अन्त में कहा है-
पिन्डबहाडयोरैक्य सिग्सूत्रात्मनोरति।
स्वापाव्या कृतवोरैक्य’ स्वप्रकाशांच वात्मनोः॥
-अध्याय 1181
“इस तरह पिण्ड और ब्रह्माण्ड, लिंगदेह और सूत्र रूप से शरीरस्थ आत्मा में एकता हो जाती है और आत्मा अपने आपको प्रकाश या ज्ञान रूप में अनुभव करने लगता है।”
इस स्थिति में शरीर धारी आत्मा भी तीक्ष्ण बुद्धि, तीव्र स्मरण शक्ति, भूत और भविष्यत् में होने वाली घटनाओं का ज्ञाता दूरवर्ती और समीपवर्ती सभी वस्तुओं की वाह्य और अन्तरंग स्थिति को जानने वाला, पूर्वजन्मों के वृत्तान्त जानने वाला, सब प्राणियों के मनोगत भावों को जानने वाला शास्त्रों का ज्ञानी, वैरागी और निस्पृह प्रेमी हो जाता है।
आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों का इससे भी विस्तृत विश्लेषण शास्त्रकारों ने किया है पर अब जब उसे प्राप्त करने की साधनाओं से लोग विमुख होने लगे तो वह बातें भी मिथ्या प्रतीत होने लगीं। यह अज्ञान सारी मानव जाति के लिये दुर्भाग्य का विषय है।
साधनाओं की पृष्ठ-भूमि पर न उतरें, न सही पर संसार में होने वाली अनेक घटनाओं से वस्तुस्थिति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी घटनायें हर मनुष्य के जीवन में देखने-सुनने में आया करती है, उनसे आत्म-तत्व की विवशता की अनुभूति की जा सकती है और उसकी जागृति की चेष्टाएँ भी उभारी जा सकती हैं।
24 नवम्बर 1963 के धर्मयुग में एक घटना गीता कपूर ने दी है। वे लिखती है- “सन् 1951” में मेरे चाचा जी एकाएक बीमार हो गये। बीमारी गम्भीर रूप धारण करती चली गई। अमावस्या का दिन था, रात हो गई थी, सब लोग मंद-मंद दीपक के प्रकाश में रुग्ण चाचा जी के समीप बैठे थे। तभी ऐसा जान पड़ा कोई स्त्री गहन वासित वस्त्र धारण किये कमरे में प्रविष्ट हुई और फिर एक झटके से बाहर भाग गई। वह कोई प्रेत था या छाया पुरुष कुछ पता न चला। इसी बीच चाचा जी बोल- ”अब सब लोग विदा दीजिये।"। यह कहकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम की मुद्रा अभिव्यक्त की। यह दृश्य देखकर सब लोग रो पड़े। बड़े दादा भी पास ही थे, अश्रु बहाते हुए उन्होंने कहा- “कहाँ? जाओगे?” चाचा जी ने कहा-वहाँ जहाँ एक दिन सब को जाना पड़ता है, वहाँ जीवन का विराम है।” बड़े ताऊ ने पूर्ण ममत्व भरें स्वर में पूछा- “अकेले जाने में वहाँ डर न लगेगा?” चाचा जी ने उत्तर दिया- "अकेले नहीं एक साधु बाबा भी साथ आ रहे हैं।” यह कहकर उन्होंने आँखें मूंदी और इस नश्वर देह का त्याग कर दिया।”
साधू बाबा वासी रात उस समय समझ में नहीं आई। प्रातःकाल अर्थी उठाई गई, घाट पर पहुँचा ठीक उसी समय एक ओर अर्थी आई। पूछने पर पता चला कि वे एक साधू हैं और ठीक उसी समय बड़े चाचा जी की मृत्यु हुई इनकी भी मृत्यु हुई।
कई कोस दूर एक व्यक्ति की मृत्यु का ज्ञान इस तरह होना, जैसे वह बिल्कुल पास हो, आत्मा की सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता का प्रमाण नहीं तो और क्या है?
मुरादनगर से पाँच मील दूर मुरादनगर किसान नेशनल इंटर कालेज के 42 वर्षीय एक अध्यापक श्री सत्यदेव शर्मा ने अपने प्राण त्यागने से लगभग आठ घण्टे पूर्व अपनी मृत्यु की सूचना दे दी थी। श्री सत्यदेव शर्मा कुछ समय से रोग से पीड़ित थे। उन्होंने एक दिन अर्धरात्रि को अपनी बहन को बुलवाकर कहा- ”प्रातः आठ बजे यात्रा पर जाऊँगा, अतः गायत्री मन्त्र का यज्ञादि का कुछ आयोजन करवा दो। बहन समझ गई, प्रातः तीन बजे से ही गायत्री जप और हवन की व्यवस्था कर दी गई। मुहल्ले के सैकड़ों स्त्री-पुरुष भी पूजा-पाठ में सम्मिलित हो गये। श्री सत्यदेव जी ने स्वयं गायत्री मंत्र का पाठ किया और पूजन आदि शान्तिपूर्वक देखते हुए ठीक आठ बजे प्राण छोड़ दिये। वे बड़े साधु प्रकृति के कर्तव्य निष्ठ अध्यापक थे।
विज्ञान ने ऐसे-ऐसे यंत्र दिये हैं, जो प्राकृतिक परिवर्तनों का बड़ी सही जानकारी देते है। वर्षा, भूकम्प तूफान का बहुत पहले इन यंत्रों से पता लगा लिया जाता है। रैडारों द्वारा दूर के दृश्यों, जहाजों, सूर्य-चन्द्रमा और ग्रह-नक्षत्रों में होने वाली हलचलों एवं ग्रहण आदि का सही पता लगा लिया जाता है पर मृत्यु आदि सूक्ष्म वस्तुओं का पता लगाना, अभी विज्ञान के लिये कहाँ सम्भव हुआ। यह ज्ञान तो आत्मा का अपना विज्ञान है।
गुरुकुल काँगड़ी की बात है। 1917 में डॉ. शुकदेव जी ने एक नौकर रखा, वह जाति का चमार था नाम था बारू। उसके भोजन की व्यवस्था सबके साथ ही की गई’ ताकि मानव मात्र एक है’, का रचनात्मक शिक्षण लोगों को दिया जा सकें।
गुरुकुल के एक कर्मचारी बिहारी को यह बात सहन न हुई। उसने द्वेषवश भण्डार में खाना बन्द कर दिया। एक दिन दुर्भाग्य से स्प्रिट का ड्रम खोलते समय बारू उसमें बुरी तरह जल गया। बिहारी ने जो अब तक उससे द्वेष रखता था, अब अपना दृष्टिकोण बदल दिया। उसने जान लिया बारू की अमुक दिन मृत्यु हो जायेगी। इस अनायास की आत्म-प्रेरणा ने उसके हृदय का मल विक्षेप और अंधकार निकाल दिया। अब बिहारी को प्रत्येक जीव, प्रत्येक प्राणी में एक ही आत्मा के दर्शन हो रहे थे।
साथ ही उसे अपने कृत्य पर दुःख भी हुआ। प्रायश्चित के लिये उसने उसी दिन से अन्न ग्रहण करना बन्द कर दिया प्रतिदिन अपने घर से भोजन लेकर जाता और बारू को स्वयं खिलाता, आप ही उसकी सेवा करता।
वह दिन आया जिस दिन बारू की मृत्यु होनी थी। लोग हैरान थे कि उस दिन बिहारी क्यों नहीं आया। उस दिन वह अपने घर पर ही लेट गया। बारू का निधन हो गया। तब लोगों ने खबर ली तो पता चला कि ठीक उसी समय बिहारी भी प्राणान्त किये।
बिहारी ने कोई अपघात नहीं किया, उसे कुछ रोग नहीं था पर उसने ठीक उसी समय प्राण त्याग कैसे किया, यह अब तक रहस्य है। यह रहस्य तन्त्र का नहीं आत्मा का रहस्य ही हो सकता है।
27 मई 1964 को श्री टी. पी. झुनझुन वाला (घटना धर्मयुग 12 जुलाई 1964 में छपी) नाम के एक सज्जन महाबलेश्वर के पर्यटन पर थे। उस दिन उनका ‘प्राकृतिक सौंदर्य दर्शन’ का कार्यक्रम था उसका बच्चा अमित भी उनके साथ था। दोपहर के विश्राम के बाद जागते ही बच्चे ने एकाएक अपने पिताजी का बुलाते हुए कहा-पापा जी, पापा जी, चाचा नेहरू अब इस संसार में नहीं रहे।”
पर आत्मा के लिये न तो कुछ शुभ है और न अशुभ वह तो दृष्टा है, जो अन्तरंग में सच-सच देखा वही ही कहा था उसने। वह बच्चे का पार्थिव शरीर नहीं आत्मा थी, जिसने घटना का पूर्वाभास किया था। उस का उन लोगों को ही घर से निकले वैसे ही चल गया।
कहते है आत्मा से, सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त है।
गीता कहती है-
देही नित्यमबध्योय देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न स्व सोचितुमर्हसि॥
अध्याय 2।30,
हे अर्जुन यह आत्मा तो सबके शरीर में व्याप्त बार अवाप्य है, इसलिये सम्पूर्ण भूत प्राणियों ने निधन पर भी तुझे शोक नहीं होना चाहिये।
यदि आत्मा सर्वव्यापी है तो सर्वज्ञता की स्थिति भी एक-सी होनी चाहिये। यह भी सत्य, है, प्राणियों में वाणी और विचार व्यक्त करने की भाषाएँ अलग-अलग होती हैं पर परावाणी जो अन्तरंग में ही देखती और अन्तरंग में ही सुनती हे वह सबकी एक हैं। मुंडकोपनिषद् में महर्षि अंगिरा ने शौनक मुनि के पूछने पर परविद्या का तात्त्विक विश्लेषण विस्तार से किया है। उसमें उन्होंने बताया है कि आत्मायें परावाणी से ही सब कुछ ऐसे देखती-सुनती समझती है, जैसे इन स्थूल नेत्रों, कर्ण एवं बुद्धि से देखा-सुना और समझा जाता है।
अनेक पक्षियों, जीव-जन्तुओं द्वारा इस तरह का भविष्य ज्ञान उपरोक्त तथ्य की पुष्ट करता है। चींटियों, दीमकों को वर्षा का पूर्व ज्ञान हो जाता है। इस दिशा में मकड़ी का ज्ञान इससे भी बढ़कर है। कोई दुर्घटना होनी होती है तो कुत्तों को उसका पूर्वाभास मिल जाता हे। इस तरह की बातें आत्मा की सर्वज्ञता को और पुष्ट करती है।
सन् 1931 की एक घटना धर्मयुग के सुपरिचित लेखक श्री मदनगोपाल ने दी है, उसमें जीव और मनुष्य रूप दोनों में आत्मा की सर्वज्ञता का सिद्धान्त सत्य समर्थन होता है।
वहाँ उस वर्ष शेर साम्प्रदायिक दंगे हुये थे। लाखों करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुई, अग्निकाण्ड, मारकाट, छुरेबाजी के भयंकर दृश्य जबलपुर और उसके आस-पास के लोगों को अब भी नहीं भूलते। वहाँ यह बात भी लोग यहीं भूल सकते कि इस घटना से काफी समय पहले से ही नगर के कुत्ते बड़ी भयावनी आवाज में रोया करते थे। बिल्लियों भी संगति किया करतीं इस दिन उक्त सज्जन की इसी कारण रात भर नींद न आई थी। बेचारे झुँझलाये हुए थे, सवेरे का समय था, उसी समय एक भिखारी आया। उसने भिक्षा के लिये आवाज लगाई। श्री मदनगोपाल जी चिल्लाए, भाग जा अरे रात भर कुत्ते नहीं सोने देते और अब तू आ गया उन्हीं का सखा। भिखारी ने मुस्कराकर कहा-बाबू जी, आज क्या समझेंगे, बेचारे कुत्तों की भाषा। यह तो आप लोगों को सावधान कर रहे है कि कोई भयंकर घटना घटित होने वाली है, उससे सुरक्षा का कोई उपाय कीजिये।
साधु चला गया और दूसरे दिन से ही जो साम्प्रदायिक दंगे प्रारम्भ हुये कि सारा जबलपुर त्राहि-त्राहि कर उठा। लोग अब भी उक्त घटना की याद करते है और आश्चर्य करते है कि कुत्ते, बिल्लियों को भविष्य काल कैसे हो जाता है।
यहाँ लोग पूछेंगे उस आत्मा को कैसे पाया जाये। ‘वृहदारण्यक उपनिषद्’ में भी ऐसी ही प्रश्न किया गया है कि- “ विज्ञातारमरे केन विजानीयात्” अर्थात् जो ज्ञाता है (आत्मा) उसे किस प्रकार जाना जायेगा।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। सब लोग उपरोक्त गीत के चाचा जी, सत्यदेव जी शर्मा, अमित और जबलपुर के कुत्ते-बिल्लियों की तरह भूत-भविष्यत् का ज्ञान क्यों नहीं पा लेते। उत्तर है कि इन सबने प्रायः मृत्यु या प्रकृति की समीपता की स्थिति में जबकि आत्मा निश्छल और निर्विकार होती है, जब वह राग द्वेष, काम-क्रोध भय, मद-मोह से विमुख होती है, तब इस तरह की अनुभूति की। निस्पृह और पवित्र आत्मायें इस तरह की अनुभूतियाँ हर घड़ी प्राप्त कर सकती है।
ब्रह्मोपनिषद् साक्षी है-
तिलैपु तैलं रयनीव सर्विरायः स्रोत स्वरणीषु आम्बिः।
एवमात्मात्मनि डडडड।
अर्थात्- जिस प्रकार तिल में तेल, दही में दुग्ध, प्रवाह में पानी, लकड़ी में अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार आत्मा भी हमारे भीतर छिपी है, वह आत्मा तप और सत्य से प्रकट होती है।