Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री उपासना से ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति
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आत्मा में सन्निहित ब्रह्मवर्चस का जागरण करने के लिए गायत्री उपासना आवश्यक है। यों सभी के भीतर सत तत्व बीज रूप में विद्यमान है पर उसका जागरण जिन तपश्चर्याओं द्वारा संभव होता है, उनमें गायत्री उपासना ही प्रधान है। हर आस्तिक को अपने में ब्रह्म तेज उत्पन्न करना चाहिए। जिसमें जितना ब्रह्म-तत्व अवतरित होगा, वह उतने ही अंशों में ब्राह्मणत्व का अधिकारी होता जाएगा। जिसने आदर्शमय जीवन का व्रत लिया है, व्रतबंध, यज्ञोपवीत धारण किया है, वे सभी व्रतधारी ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य अपनी आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए गायत्री उपासना निरन्तर करते रहें, यही उचित है। जो इस कर्त्तव्य से च्युत होकर इधर-उधर भटकते हैं। जड़ को सींचना छोड़कर पत्ते धोते फिरते हैं, उन्हें अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में विलंब ही नहीं, असफलता का भी सामना करना पड़ता है।
साधना शास्त्रों में निष्ठावान भारतीय धर्मानुयायियों को- द्विजों को- एकमात्र गायत्री उपासना का ही निर्देश किया गया है। उसमें वे अपना ब्रह्मवर्चस आशाजनक मात्रा में बढ़ा सकते हैं और उस आधार पर विपन्नता एवं आपत्तियों से बचते हुए, सुख-शाँति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से बढ़ते रह सकते हैं। द्विजत्व का व्रत-बंध स्वीकार करते समय हर व्यक्ति को गायत्री मंत्र की दीक्षा लेनी पड़ती है, इसलिए उसे ही गुरुमंत्र कहा जाता रहा है। पीछे से अंधकार युग में चले सम्प्रदायवाद ने अनेक देवी-देवता, मन्त्र और उनके उपासना विधान गढ़ डाले और लोगों को निर्दिष्ट मार्ग से भटकाकर भ्रम-जंजालों में उलझा दिया। फलतः अनादि काल से प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी की निर्दिष्ट उपासना पद्धति हाथ से छूट गई और आधार रहित पतंग की तरह हम इधर-उधर टकराते हुए अधःपतित स्थिति में जा पहुँचे।
उस तथ्य को दूरदर्शी शास्त्रकारों ने समझा है और सचेत किया है कि वे निरर्थक भटकाने वाले भ्रम-जंजाल को समझें और भ्रान्तियों से निकलकर यदि उपासना करनी है तो समर्थ एवं सनातन उपासना पद्धति-गायत्री-मंत्र का आश्रय लें। सही मार्ग पर चलने से ही सही परिणाम निकल सकते हैं। अन्यान्य देवताओं का आराधन कुछ क्षणिक प्रयोजन भले ही सिद्ध करे जीवन लक्ष्य को प्राप्त करा सकने में समर्थ नहीं हो सकता। देवी भागवत में इस तथ्य पर यों प्रकाश डाला गया है-
एषा निष्टा दुर्लभा मर्त्यबुद्धौ तस्माल्लोके
वाः शाम्वैष्णश्च भिन्नं भिन्नं मार्गमास्थाय वेदं
क्षामं कुर्वन्त्या स्तिक छद्मने मे ॥17॥
पक्षि द्वन्द्वं विद्यते स्वस्य देहो भोक्तारं सा ध्यान
माचष्ट एतत्। यावत् क्षीणा भोक्तता स्यात्ततस्तु ज्ञात्वा व्रूयाह ब्रह्मतां स्वस्य विद्वान ॥18॥
भस्मान्तं चेद्विश्व मेतत् समस्तं भस्मोद्भतं भस्म
संभासते च। तस्माद ब्रह्म प्राहुराद्यै र्वचोभिर्वेदा
स्तस्माद्भस्म लिंग द्विजानाम्। इति शंकरा चार्य्याभिप्रायः कृष्ण भिक्षुणा। वर्णितस्ते न गायत्री विभूत्या सहनन्दतु॥21॥
अर्थ-मानवों की बुद्धि में इस प्रकार की निष्ठा अत्यन्त दुर्लभ होती है। इसी कारण से लोक में शैव और वैष्णव आदि विभिन्न मतानुयायी लोग हो गये हैं। इस प्रकार से भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के मार्ग में समास्थित होकर आस्तिक बनने के छद्म से मेरे वेद-मार्ग को दुर्बल करते हैं। ॥17॥
किसी भी मत एवं सम्प्रदाय का पक्ष जब ग्रहण कर लिया जाता है तो अन्य लोगों के साथ एक प्रकार का द्वन्द्व छिड़ जाता है। अपने देह में वह वेद जननी भोक्ता के ध्यान को आकर्षित करती है कि जिस समय यह भोक्तता क्षीण हो जाती है, तभी फिर ज्ञान प्राप्त करके विद्वान पुरुष अपनी ब्रह्मता को कहे। गायत्री के अर्थ को सामान्यतया कोई भी नहीं जानता है, इसी कारण से द्विज भी जिसने गायत्री की दीक्षा से ही द्विजत्व का लाभ प्राप्त किया है, अन्य देव को कहा करते हैं। अर्थात् गायत्री को परमाराध्य सर्वोपरि विराजमान न मानकर अन्य देवों की उपासना किया करते हैं। यदि गायत्री के अर्थ का ज्ञान हो जाए तो फिर सब तरह के विवादों की शाँति हो जाया करती है। गायत्री मन्त्र का जो गायन करता है, उसका मोक्ष प्राप्त कर लेना तो फिर उसी के हाथ में रहा करता है।
यदि भस्मान्त हो तो वह समस्त विश्व ही भस्म से उद्भव प्राप्त करने वाला है और इसमें भस्म ही संभासित होती है। इसी से वेदों ने प्राथमिक वचनों से ब्रह्म को बतलाया है। इसीलिये द्विजों का चिन्ह ही भस्म होता है। स्वामिपाद भगवान श्री शंकराचार्य जी का अभिप्राय है, जिसको कृष्ण भिक्षु ने वर्णन किया है। इससे गायत्री की विभूति के साथ यह अभिवर्णित होंगे।
मन्त्रैः किं तैर्य प्रतीक्ष्येत देवी गायत्र्यम्बा
सम्प्रवेष्टुं द्विजेषु। देवैः कि तैरग्निना पुष्टिमद्भि
स्तस्मा द्भस्मोद्भषितैः सा निषेव्या। ॥8॥
दत्तं भस्म श्री त्रिपादावयैतंत्र्यंगेरग्नेः शेष रुपं स्वरूपम्। तस्माद्भस्म प्रौच्यते भासच्च भूतिर्गायत्र्यंवयेक्या त्रिपुण्ड्रम् ॥9॥
शैवोऽन्यो वा यां बिना किं द्विजः स्याच्छैवोऽन्यो वा दीक्षया वेदमातुः तस्माच्छैवो वैष्णवोऽन्येषु गण्यो गायत्र्याप्ता ब्रह्मता वेदमान्या ॥10॥
भेदापोहव्यावृति सा विभर्तिं ध्यानैर्भिन्नै र्ध्यान निष्ठैक वेद्याम्। तस्मान्मामान्यत्र संयान्ति सर्वाण्यस्या निष्ठा शाम्भवी वैष्णवी चा ॥11॥
अर्थ- उन मंत्रों से क्या लाभ है जिनके द्वारा द्विज गणों में माता गायत्री का सम्प्रवेश करने के लिए प्रतीक्षा की जावे। उन देवों के सेवन से भी क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, जो अग्नि के द्वारा पुष्टि वाले हों और उसी से भस्म के द्वारा विभूषित होकर उस गायत्री देवी का निवेषण किया जावे। ॥8॥
श्री त्रिपादाम्बा के द्वारा ही दी हुई भस्म है, जो तीन चरणों वाली अग्नि का शेष स्वरूप है। माता गायत्री के ऐक्य से ही उस आसमान से वह भस्म त्रिपुण्ड की विभूति कही जाती है। ॥9॥
चाहे कोई अन्य शैव हो किन्तु वह उस वेद माता के बिना क्या कभी द्विजत्व का लाभ कर सकता है अर्थात् शिव की उपासना से भी गायत्री के बिना द्विजत्व नहीं मिल सकता। चाहे कोई शैव हो या वैष्णव हो, दोनों देवों में से किसी भी एक की उपासना करने वाला क्यों न हो उसकी वेदमाता की दीक्षा से ही गणना की योग्यता होती है। वेदमान्य ब्रह्मता तो माता गायत्री के द्वारा ही प्राप्त होती है। ।।10।।
वही वेद जननी गायत्री भेदापोह को धारण किया करती है अर्थात् भेद को दूर करने वाली है। जो ध्यान निष्ठा की एक वेदी में भिन्न ध्यानों के द्वारा किया करती है। इसी से यहाँ पर समस्त नाम इसकी शाम्भवी अथवा वैष्णवी निष्ठा को प्राप्त किया करते हैं।
लोकस्थास्ते विष्णु रुद्रादि देवाः कैश्चित्कार्मः कैश्चिदेवाधिकारैः। गायत्र्यास्ता मूर्त्तयः सेवनीया गायत्र्यां ते सेविताः सम्भ्रमेण।
अर्थ- विष्णु और रुद्र आदि समस्त देवगण लोकों में रहने वाले हैं। उनमें कुछ कामनाओं की पूर्ति करने की शक्ति तथा कतिपय कुछ अधिकार रहते हैं। वे सभी गायत्री की ही मूर्तियाँ हैं, जो सेवन के योग्य हैं। गायत्री में वे सम्भ्रम से ही सोवित होती हैं।
ब्रह्मत्वं चेदाप्तुकामोऽस्युयास्व गायत्रीं
चेल्लोक कामेऽन्यदेवम् कामो ज्ञातः क्वीय पाद प्रवृत्या वादः को वा तृप्ति हीने प्रवृत्तिः।
बुद्धेः साक्षी बुद्धिगम्यो जयादौ गायत्र्यर्थः
सोऽनघो वेद साः तद ब्रह्मैव ब्रह्मतोपासकस्याप्येवं
मंत्रः कोऽस्ति तत्रे पुराणै। ॥13॥
जान्यश्वः किं जातिमाप्तुं सकामो गत्यभ्यासात्स्यष्टता मेति जातिः। ब्रह्मत्वाप्तौ कः प्रयासो द्विजा नां यद गायत्र्या व्यज्यते चाष्टमेऽब्दे। ॥14॥
ब्रह्मत्वस्य स्यापनार्थं प्रविष्टा गायत्रीयं तावतास्य द्विजत्वम्। कर्ण द्वारा ब्रह्म जन्म प्रदानायुक्तो वेदे ब्राह्मणो ब्रह्मनिष्ठः। ॥16॥
अर्थ-यदि किसी को ब्रह्मत्व की प्राप्ति करने की इच्छा है तो उसको वेदमाता गायत्री की ही उपासना करनी चाहिए। यदि किसी लोक विशेष के प्राप्त करने की इच्छ हो तो अन्य देवी की उपासना करो। अपने चरणों में प्रवृत्ति करने से ही हार्दिक कामना का ज्ञान हो जाता है। जो तृप्तिहीन होता है, उसी को प्रवृत्ति होती है। इसमें कोई भी वाद नहीं है।
यह बुद्धि की साक्षी है। गायत्री का अर्थ है, वह अघ रहित, अर्थ पूर्ण पवित्र और वेदों का साररूप है, इसके जप आदि के करने में ही यह बुद्धि में गम्यमान होता है। ब्रह्मत्व प्राप्ति की जो उपासना करने वाला है, उसके लिए यह साक्षात ब्रह्म ही है। गायत्री के समान तन्त्र और पुराण में अन्य कोई भी मंत्र नहीं है। गायत्री मंत्र ही सर्व शिरोमणि मन्त्र है। ॥13॥
जाति से जो अश्व है वह क्या कभी अपनी जाति की प्राप्ति करने की इच्छा वाला होता है? उसकी जाति की स्पष्टता तो उसकी गति के अभ्यास से ही तुरंत हो जाया करती है। इसी तरह ब्रह्मत्व की प्राप्ति के लिए द्विजों का क्या प्रयास होता है, अर्थात् कुछ भी नहीं क्योंकि वह तो आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार होने पर गायत्री माता के द्वारा स्वयं ही व्यज्यमान हो जाया करता है। ॥14॥
ब्रह्मत्व के स्थापन करने के लिए ही यह गायत्री प्रविष्ट होती है और तभी से द्विजत्व की इसके द्वारा प्राप्ति हुआ करती है। कानों के छिद्रों के द्वारा ब्रह्म जन्म का ज्ञान प्रदान किया जाता है अर्थात् गायत्री का उपदेश कानों में ही किया जाया करता है। जब दीक्षा-सम्पन्न होता है, तभी वह ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण होता है-ऐसा ही वेदों में कहा गया है। ॥16॥
तात्पर्य यह है कि जन्मजात ब्राह्मण कोई भी नहीं हो सकता है। यह तो मिथ्याभिमान ही होता है, क्योंकि ब्राह्मण का भले ही कोई पुत्र हो किन्तु वह ब्राह्मण एवं द्विज तब तक नहीं हो सकता है, जब तक उसे आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार होने पर गायत्री की दीक्षा नहीं होती है। गायत्री मंत्र ही ब्रह्मत्व प्रदान करने वाला होता है।
ब्रह्मवर्चस गायत्री उपासना से ही उपलब्ध होता है। इस उपासना से देव-तत्वों की मानव शरीर में निरंतर वृद्धि होती है और शक्तिशाली व्यक्ति देवत्व की अहिंसा, महत्ताओं को उसी जीवन में उपलब्ध कर लेता है। ‘कर्म देवी विशेषताएँ’ प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती हैं।
सर्व देवमयो विप्रो ब्रह्म-विष्णु शिवात्मकः
ब्रह्म तेजः समुद्भूतः सदा प्राकृतिको द्विजः।
ब्राह्मणै र्भुज्यते यत्र-तत्र भुङंक्ते हरि, स्वयम।
तत्र ब्रह्मा च रुद्राश्च खेचरा ऋषयो मुनिः।
पितरो देवताः सर्वे भुज्जन्ते नात्र संशयः।
सर्व देव मयो विप्रस्तस्मात्तं नाव मानय॥
ब्राह्मणं च जननीं वेद स्याग्निं श्रुतिं च गाम्।
नित्य मिच्छन्ति ते देवा यजितुं कर्म भूमिषु॥
अर्थ- ब्राह्मण सर्व देवमय और ब्रह्मा-विष्णु एवं शिव स्वरूप है। द्विजगण यद्यपि प्राकृतिक अर्थात् पंचभूतमय ही होते हैं तो भी गायत्री के ब्रह्म तेज से उनकी उन्नति होती है। जिस स्थान पर गायत्री के उपासक ब्राह्मण भोजन किया करते हैं, वहाँ साक्षात स्वयं श्रीहरि ही भोजन किया करते हैं और वहाँ पर ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-शेखर-ऋषि-मुनि पितर और देवता सभी भोजन करके संतृप्त होते हैं। इसमें संदेह नहीं है, ब्राह्मण जो सावित्री के परमोपासक हैं, ये सर्वदेवमय होते हैं, इसलिए उनका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। देवगण सदा वही कामना किया करते हैं कि इस कर्मभूमि में ब्राह्मण वेदमाता गायत्री अग्नि-श्रुति और गौ-इन सबकी नित्य पूजा होती रहनी चाहिए।
प्राचीनकाल में सभी प्रमुख देवता तथा ऋषि गायत्री उपासना के आधार पर अपनी शक्ति, सामर्थ्य प्राप्त करने बढ़ाने तथा अक्षुण्य रखने में समर्थ हुए हैं-
मनुश्चन्द्रः कुबरेश्च लोपामुद्रा च मन्मथः।
अगस्तिरग्निः सूर्यश्च इन्द्रः स्कन्दः शिवस्तथा।
क्रोध भट्टारको देव्या द्वादशामी उपासकाः॥
“(1) मनु (2) चन्द्र (3) कुबेर, (4) लोपामुद्रा, (5) मन्मथ (6) अगस्ति (7) अग्नि (8) सूर्य (9) इन्द्र (10) स्कन्द (11) शिव (12) क्रोध भट्टारक (दुर्वासा) - ये बारह भगवती के उपासक हैं।”
ऐसा ब्रह्म तेज सम्पन्न व्यक्ति शाप, वरदान देने की स्थिति में भी होता है। राजा परीक्षित को तक्षक द्वारा काटे जाने का मृत्यु-शाप बालक शृंगी ऋषि ने दिया था। यह ब्रह्म बल का ही चमत्कार था। शाप की तरह वरदान भी ऐसा ब्रह्मवादी ही दे सकता है और अपने ब्रह्मवर्चस में अगणित मनुष्यों का असीम हित साधन कर सकता है।
तक्षकेणापि दंष्टस्य प्रतीकारो हि तत्क्षणात्।
ब्रह्मशाप प्रसक्तस्य कलपान्ते स्यात्प्रतिक्रिया॥
नरकान्निष्कृति र्नास्ति तस्याभावान्न संशयः॥
एवं तद्वंशजाः सर्वे पीडयनतेऽहर्निशं प्रिये॥
नानाविध महोत्पातैयवस्यानसप्त पौरुषम्।
तस्मान् ब्राह्मणं देवि, नविमन्येत कदिंचित्॥
अर्थ-तक्षक के काटने पर भी तत्काल उसका प्रतीकार हो सकता है, किन्तु गायत्री-उपासक ब्राह्मण के शाप से ग्रसित का कल्पान्त में भी कोई प्रतीकार नहीं है। प्रलय के क्रिया नरक से छुटकारा नहीं है। ब्रह्म-शाप ग्रसित के सात पुरुषों तक अनेक उत्पातों से पीड़ित रहते हैं। अतएव कभी भी गायत्री-उपासक ब्राह्मण का अपमान न करना चाहिए।
अन्यान्य देवताओं की उपासना को साधना शास्त्र में निरर्थक ही नहीं, हानिकारक भी बताया गया है। और कहा गया है कि सनातन उपासना गायत्री ही है। जब देवता उसी की उपासना करके शक्ति प्राप्त करते हैं तो मूल का तिरस्कार कर पत्तों पर भटकने की भूल क्यों की जाय? ऐसी भूल करने वालों की भर्त्सना भी की गई है।
न विष्णुपासना नित्य वेदोक्ता कुत्रचित्।
न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च॥
गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता।
यथा बिना त्वधःपातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा।
तावता कृतकृत्यव्यं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात्॥
कुर्य्यादन्यन्न वा कुर्यांदिति प्राह मनुः स्वयम्।
विहाय तां तु गायत्री-विष्णु पास्तिपरायणः॥
शिवोपास्तिपरो विप्रो नरकं याति सर्वथा॥
-देवी भागवत, द्वादश स्कन्ध, अध्याय 8
अर्थात्- वेद में कहीं भी विष्णु-उपासना का नियमित रूप से विधान नहीं किया है, न विष्णु-दीक्षा ही नियमित है, वैसे ही शिव की भी। गायत्री उपासना तो सब वेदों ने नियमित रूप से प्रतिपादित की है। जिसके बिना ब्राह्मण का भी सर्वथा अधःपतन हो जाता है। उतने से (गायत्री-उपासना मात्र) से ही कृतकृत्यता हो जाती है, क्योंकि द्विज को और किसी की अपेक्षा नहीं रहती। गायत्री-उपासना मात्र से निष्णात द्विज सचमुच मोक्ष प्राप्त कर सकता है, चाहे वह और कुछ करे या न करे ऐसा स्वयं मनु जी ने कहा है। उस गायत्री को छोड़कर विष्णु-उपासना में तत्पर अथवा शिवोपासक ब्राह्मण सर्वथा नरक को प्राप्त करता है।
उचित यही है कि प्रत्येक भारतीय अध्यात्म पर आस्था रखने वाला अनादि उपासना केन्द्र-बिन्दु गायत्री महामंत्र पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करे और उसी से लौकिक एवं पारलौकिक सुख-शाँति का पथ प्रशस्त करे।