Magazine - Year 1970 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अति सूक्ष्म जीवाणुओं की महत्तम सत्ता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन की सूक्ष्मतम सत्ता बड़ी विलक्षण और रहस्यपूर्ण है, अब तक ऐसी सूक्ष्म जीवन की इकाई का पता नहीं लगाया जा सका, जो अंतिम (एब्सोल्यूट) और शाश्वत हो। किन्तु उसका पता लगाते-लगाते वैज्ञानिकों ने जिन सूक्ष्मताओं का पता लगा लिया है, वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं।
वैज्ञानिक विषाणु को निर्जीव कण मानते हैं, इसकी सक्रियता तो तभी देखने में आती है, जब वह किसी प्राणी के शरीर में कोशिका के संपर्क में आता है। जड़ हो अथवा चेतन यह वैज्ञानिक जानें पर इतना निश्चित है कि प्रकृति या परमेश्वर को समझने के लिए बाह्य उपकरण काम नहीं दे सकते। उनकी स्पष्ट और सही जानकारी तभी संभव है, जब हम उन्हें अपनी मानसिक चेतना-ज्ञान या अनुभूति की अत्यन्त सूक्ष्म इकाई में तोलें। अभी तो वैज्ञानिकों को सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों की सहायता मिल रही है पर संभव है आगे चलकर उन्हें भी ध्यान प्रणाली अपनानी पड़े। प्रकृति के सूक्ष्मतम सत्यों का पता वस्तुतः चेतना की सूक्ष्म अवस्था तक पहुँचकर ही चल सकता है।
जीवन की सूक्ष्मतम इकाई को अभी जीवाणु कहते हैं। जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि एक इंच की लाइन में उन्हें क्रमवार बैठाया जाये तो उनकी संख्या कोई 30000 बड़े आराम से बैठ जायेगी बाल की चौड़ाई में ‘काकस’ नाम के जीवाणु 75 की संख्या में मजे से बैठ सकते हैं, इतनी सूक्ष्म अवस्था में जीवन का होना भारतीय तत्व-दर्शन के- ‘अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा’ यह आत्म अणु से भी छोटी और विराट से भी विराट है, सिद्धाँत की ही पुष्टि करता है। आत्मा का अर्थ यहाँ भी जीव-चेतना के उस स्वरूप से है, जो अगणित (नानमैथेमेटिकल) सिद्धाँतों पर खाता-पिता, पहनता, उठता-चलता, बातें करता, बोलता, हंसता, चिल्लाता, प्रेम-करुणा, दया आदि की अभिव्यक्ति करता पाया जाता है। शरीर से चाहे वह मनुष्य हो या पशु-पक्षी। जिसमें जीव-चेतना के लक्षण हैं, सब आत्मा हैं। विचित्र रूपों में होते हुए भी विश्वात्मा एक ही है, यह अनुभूति हम चेतना की अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था तक पहुँचकर ही कर सकते हैं।
जीवात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए न्याय दर्शन में लिखा है।
इच्छाद्वेष प्रयत्न सुख दुख
ज्ञानान्यामात्मनो लिगाँनि।
-न्याय दर्शन 1/1/8
अर्थात् जिसमें भी इच्छा, द्वेष, सुख-दुख, ज्ञान और प्रयत्न आदि गुण हैं, वह सब जीवात्मा हैं।
जीवात्मा अपने ज्ञान और प्रयत्न के द्वारा कर्म करता है और यह कर्म ही उसे विभिन्न योनियों में भ्रमण कराते हैं। जब तक वह अपने शुद्ध तेजस् स्वरूप को जान नहीं लेता और उसी में लय नहीं हो जाता, तब वह जीव भाव में बना सांसारिक दुख-सुख भोगता रहता है, किन्तु जब वह ईश्वर उपासना, चैतन्य के विकास की साधना, ध्यान, जप, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन आदि के द्वारा मस्तिष्क में यह संकल्प सुदृढ़ कर लेता है कि साँसारिक आवश्यकतायें यथा इन्द्रियसुख, पद-यश, वित्त, पुत्र यह सब चेतना के ऊपर चढ़ी झिल्ली की खुजलाहट, क्रियाशीलता अथवा माँग उसकी निज की नहीं, तब उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। आसक्ति नष्ट होकर वह शुद्ध चैतन्य की प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है। तब वह बार-बार अनेक तरह के शरीर धारण करने की चिंता से भी मुक्त हो जाता है।
यह बात जीवाणु के परिचय से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। जीवाणु सबसे छोटे जीवों को कहते हैं, उनकी शारीरिक बनावट मनुष्य से बिल्कुल भिन्न होती है। एक नाभिक और उसके किनारे-किनारे प्रोटीन झिल्ली। प्रत्येक किस्म के जीवाणु की प्रोटीन झिल्ली में अपनी तरह के तत्व होते हैं, वह जीवाणु की प्रकृति और उसके स्वभाव पर निर्भर है। अर्थात् आत्मा के अच्छे बुरे गुण ही सब जगह साथ रहते हैं।
जीवाणु कितना खाते हैं, उसका कोई अनुमान भी नहीं कर सकता। पेटू और आलसी आदमी जिस प्रकार केवल खाने और बच्चे पैदा करने में निपुण होते हैं, ज्ञान, विद्या, विवेक, सफलता और नई-नई तरह की शोध करने की योग्यतायें उनमें विकसित नहीं हो पातीं, उसी तरह जीवाणु भी केवल खाते-पीते और बच्चे पैदा करते रहते हैं। जीवाणु एक घंटे में अपने भार से दो गुना अधिक खा डालता है। जब तक भोजन मिलता रहता है, वह खाता ही रहता है। गंधक, लोहा, अंडे, खून, सड़े-गले, पत्ते, लकड़ी और मरे हुए जानवर ही इनका आहार है, इस दृष्टि से जीवाणु बहुत कुछ मनुष्य का हित भी करते रहते हैं, जीवाणु न होते तो पृथ्वी पर गंदगी इतनी अधिक बढ़ जाती कि मनुष्य का जीवित रहना कठिन हो जाता।
कुछ जहरीले जीवाणु कार्बन मोनो ऑक्साइड पर जीवित रहते हैं। यह एक जहरीली गैस है और मनुष्य के लिए अहितकर है। भगवान शिव की तरह विष से मानव जाति की सुरक्षा का एक महान परोपकारी कार्य जीवाणु सम्पन्न करता है, जबकि मनुष्य अधिकाँश अपने ही निकृष्ट स्वार्थ-भोग में लगा रहता है।
पाश्चात्य वैज्ञानिक मनुष्य को अमीबा और बंदरों का क्रमिक विकास मानते हैं। उनसे जब अमैथुनी सृष्टि की बात कही जाती है, तब वे भारतीय तत्व-दर्शन पर आक्षेप करते हैं आश्चर्य है कि सृष्टि प्रक्रिया जीवाणुओं पर अमैथुनी होती है, इससे भी वे चेतना के सूक्ष्म दर्शन की अनुकृति नहीं कर पाते। जीवाणुओं की सन्तानोत्पत्ति जितनी विलक्षण है, उतनी ही आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली भी। खमीर पैदा करने वाला एक जीवाणु ले लें, आप देखेंगे कि नर और मादा दोनों का काम यह एक ही जीवाणु कर देता है और सिद्ध करता है कि आत्मा न तो पुरुष है, न स्त्री वह तो शुद्ध चेतना मात्र है, स्त्री के शरीर में आ जाने से स्त्री भाव पुरुष के शरीर में आ जाने पर पुरुष हो जाता है। यही चेतना भैंस के शरीर में भैंस, हाथी के शरीर में हाथी बन जाती है। शरीरों में अंतर है पर तत्वतः आत्मा एक ही प्रकार की चेतना है।
एक जीवाणु बढ़कर जब पूर्ण हो जाता है, तब उसी में से कोंपल फूटती है। नाभिक थोड़ी देर में बंट जाता है और एक नये जीवाणु का रूप लेता है। जन्म से थोड़ी देर बार ही वह भी जन्म दर बढ़ाना प्रारंभ कर देता है। इस प्रकार पिता और पुत्र दोनों बच्चे पैदा करते चले जाते हैं, 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 ओर 8 से 16 इस क्रम में बढ़ते हुए एक सप्ताह में खमीर का जीवाणु 168 पीढ़ी तैयार कर लेता है, उनमें से लाखों जीवाणु तो एक घंटे में ही पैदा हुए होते हैं। वह भी बच्चे पैदा करने लगते हैं, जबकि उनका बूढ़ा पितामह भी उन मूर्खों की तरह बच्चा पैदा करने में लगा होता है, जिन्हें यह पता नहीं होता कि बच्चे पैदा करना ही काफी नहीं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य आजीविका आदि का प्रबंध न हुआ तो बढ़ी हुई जनसंख्या संकट ही उत्पन्न कर सकती है। जीवाणुओं का अस्तित्व और उनका बेतहाशा प्रजनन भी मनुष्य जाति के लिए खतरनाक ही होता है।
मनुष्य तो भी समझदार है, क्योंकि वह औसतन 25 वर्ष में नई पीढ़ी को जन्म देता है, यह बात दूसरी है कि आजकल दूषित और गरिष्ठ आहार तथा कामुकता के कारण नवयुवक छोटी आयु में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं और इस तरह जनसंख्या की वृद्धि के साथ अपना और परिवार का स्वास्थ्य भी चौपट करते हैं, अन्यथा 25 वर्ष की आयु स्वाभाविक है। उसमें जनसंख्या और अन्य समस्याओं का संतुलन बना रहता है। यदि मनुष्य इतना विवेक नहीं रख सकता तो वह भी उन जीवाणुओं की ही तरह समझा जायेगा जो केवल 15 मिनट बाद एक नया बच्चा पैदा कर देते हैं।
अनुमान नहीं कर सकते हैं कि यह तो एक जीवाणु की एक दिन की पैदाइश है, यदि मनुष्य भी ऐसे ही जनसंख्या बढ़ाने की भूल करे तो पृथ्वी पर आहार, निवास और कृषि उत्पादन आदि की कैसी बुरी स्थिति हो। सौभाग्य है कि जीवाणु बहुत छोटे हैं, इसलिए उनके सर्वत्र भरे होने से भी हमारे सब काम चलते रहते हैं। पर यह निताँत संभव है कि हमारी प्रत्येक साँस के साथ लाखों जीवाणु भीतर शरीर में आते-जाते रहते हैं। प्रकृति की इस विलक्षणता से मनुष्य की रक्षा भगवान ही करता है। अन्यथा यदि विषैले जीवाणुओं को संख्या बढ़ जाती तो पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को उसी तरह नजरबंद रहना पड़ता, जिस तरह चन्द्रमा से कोई विषाणु न आ जाये, इस भय से चन्द्र-यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और कोलिन्स को चन्द्रमा से उतरते ही नजर बंद करके तब तक रखा गया, जब तक उन्हें अनेक प्रकार के रसायनों से धोकर बिल्कुल शुद्ध और साफ न कर लिया गया।
मनुष्य का यह सोचना व्यर्थ है कि अनेक प्रकार के देश और वर्णों में पाये जाने का सौभाग्य वचन उसे ही मिला है, यह तो सब प्रकृति और परमेश्वर का खेल है, जो जीवन की सूक्ष्म इकाई जीवाणुओं में भी है। इनकी लाखों किस्में हैं और हजारों तरह के आकार। आड़े-टेढ़े, कुबड़े, षट्कोण, लम्बवत् विलक्षण शिवजी की बारात। कोई फैले रहते हैं, कोई गुच्छों में समुदाय बनाकर, कोई विष पैदा करते हैं, कोई मनुष्य जाति के हित के काम भी। ‘काकस’, डिप्थीरिया, स्फरोचेट्स नामक जीवाणु जहाँ उपदंश, फफोले, मवाद पैदाकर देते हैं, वहाँ वे जीवाणु भी हैं जो दूध को दही में बदलकर और भी सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक बना देते हैं।
जो अच्छे प्रकार के जीवाणु होते हैं, उन्हें काम में लाया जाता है, अच्छे मनुष्यों की तरह सम्मान दिया जाता है, जबकि बुरे ओर विषैले जीवाणुओं को मारने के लिए संसार भर में इतनी दवायें बनी हैं, जितने खराब मनुष्यों के लिए दण्ड विधान। कहीं अपराधियों को जेल दी जाती है, कहीं काला पानी, कहीं उनका खाना बंद कर दिया जाता है, कहीं सामाजिक संपर्क। उसी तरह औषधियों के द्वारा खराब जीवाणुओं को भी नष्ट करके मारा जाता है। दण्ड का यह विधान कठोरतापूर्वक न चले तो उससे मानव-जाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाये, इसीलिए सत्पुरुष के लिए दया और करुणा जितनी आवश्यक है। बुरे व्यक्ति को दण्ड भी उतना ही आवश्यक है।
हमारे आस-पास के संपूर्ण प्राकृतिक जीवन में यह क्रियायें चलती रहती हैं पर हम जान नहीं पाते। मनुष्य की भौतिक आँखें बहुत छोटी हैं, इसलिए यह दृश्य केवल ज्ञान से ही देख या अनुभव कर सकते हैं पर यह एक सत्य भी है कि इन अनुभूतियों को योग और साधनाओं द्वारा स्पष्ट बनाया जाता है। मनुष्य अपने को शरीर मानने की भूल को छोड़ता हुआ चला जाये और शुद्ध आत्म-चेतना की अनुभूति तक पहुँच जाये तो वह चींटी ही नहीं, जीवाणु की उस सूक्ष्म सत्ता तक भी पहुँचकर सब कुछ यन्त्रवत देख सकता है, जिसका व्यास 1/30000 इंच तक होता है। वैज्ञानिक यन्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि आत्म-चेतना के लिए असंभव कुछ है नहीं।
जीवाणु आत्मा के अनेक रहस्यों की सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
-2/23
हे अर्जुन यह आत्मा बड़ी विलक्षण है, न तो इसे शस्त्र छेद सकते हैं और न ही अग्नि इसे जला सकती है, जल गीला नहीं कर सकता और न ही हवा उसे सुखा सकती है।
चेतना और प्रकृति के द्वैत सम्बन्ध और आत्मा के स्वरूप को जीवाणु के अस्तित्व और अध्ययन द्वारा बहुत स्पष्ट अर्थों में समझा जा सकता है, साथ ही मानवीय व्यवहार का बहुत सा मार्ग-दर्शन भी उससे प्राप्त किया जा सकता है।
जीवाणु के यह गुण, यह सूक्ष्मता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आत्म-चेतना प्रकृति के जड़ परमाणुओं से भिन्न अत्यन्त सूक्ष्म, अमर और सर्वशक्तिमान सत्ता है, उसे अत्यंत सूक्ष्मता की अनुभूति द्वारा ही जाना और पहचाना जा सकता है।
=कोटेशन======================================================
किसी ने कहा- ‘मनुष्य बड़ा, बहुत ही बड़ा हो सकता था लेकिन उसके दोष ही उसे देवत्व तक पहुँचने से लाचार कर देते हैं। सहज, प्रकृति सिद्ध अहं पर विजय प्राप्त कर सकना, सत्पुरुषार्थ के एक कण से भी संभव है। किंतु, पराक्रम और वैभव को उद्घाटित करने के बदले, लोग निन्दा और ईर्ष्या की कोठरी में छिद्रान्वेषण और दर्शन के सहारे अनायास जा पहुँचते हैं। और तब परिणाम होता है कि हम अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं।’
‘दूसरे के दोषों में जिसका दर्शन हमें होता है, वह दूसरे का न होकर हमारे मन का गरल ही तो है, जिसे हम दूसरों पर सर्वथा लादने के असफल प्रयत्न में, मुक्तिकामी की भाँति अपने को निष्कलंक प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं।’
श्रोता का चेहरा प्रफुल्लित हो उठा-कमलदल की तरह।
==========================================================
----***----