Magazine - Year 1970 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
कल्कि अवतार और उनकी युग-निर्माण प्रक्रिया
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
‘एक था राजा हिरण्यकश्यपु वह बड़ा दम्भी, अहंकारी और अनीश्वरवादी कहा जाता था। उसके राज्य में सर्वत्र हिंसा, लूटपाट, भ्रष्टाचार, सैनिक-सत्ता अन्य अत्याचार का ही जोर था। यज्ञ, जप, तप, स्वाध्याय, सत्संग, परलोक, कर्मफल आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी सारी आस्थाओं का अन्त हो चुका था तब।” “उसका पुत्र प्रहलाद, जन्म से ही धार्मिक संस्कार लेकर आया, उसके जीवन की सरलता, निष्कपटता, धर्मपरायणता भी हिरण्यकश्यपु को सह्य नहीं हुई सो उसने न केवल धार्मिक प्रजा को वरन् प्रहलाद को भी प्राणघातक यातनायें दीं। कुटिलता के इस कुहासे में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश नष्ट हो जाने को ही था कि एक प्रखर सूर्य की भाँति नृसिंह अवतार हुआ और उन्होंने हिरण्यकश्यपु के सारे कपट जाल को कुछ ही दिनों में नष्ट करके रख दिया। प्रहलाद की रक्षा के साथ-साथ धर्म, अध्यात्म, सामाजिक अनुशासन और व्यवस्था की प्रतिष्ठापना करनी थी, सो परमात्मा ने एक अवतार नृसिंह के रूप में लिया।” “एक बार फिर वैसी ही विद्रूप स्थिति पृथ्वी के राजाओं ने कर दी थी। राजनीति की जो दुर्दशा अब है, ठीक वैसी ही परिस्थितियाँ तब भी थी जब भगवान परशुराम ने जन्म लिया और सत्ताधारियों के रूप में पनप रहे धर्माडम्बर, पाप और अत्याचार को उन्होंने घूम-घूम कर अपने कराल फरसे की धार से काट गिराया।” तदनन्तर भगवान राम का जन्म हुआ। दम्भी, पाखण्डी और आसुरी वृत्तियों के प्रतीक रावण को परास्त कर सर्वत्र धर्म-संस्थापन की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया की पूर्ति उन्होंने की, सम्पूर्ण रामायण उसी का अर्थ-इतिहास है।” “ऐसी ही एक आवश्यकता द्वापर युग में तब प्रतीत हुई थी जबकि एक बार फिर दुर्भावनाओं का जाल कुछ ऐसा बिछा कि भाई ही भाई का गला काटने को तत्पर हो गया। एक ओर छल, कपट, पाप, अत्याचार की 18 अक्षौहिणी जनराशि और दूसरी ओर सत्य, शील, धर्मपरायण कुल पाँच पाँडव। तब उनकी रक्षार्थ भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। उन्होंने न केवल कौरवों का विनाश कर दिया वरन् पाप-वृत्ति में डूबे अपने ही यादव कुल में मुशल-पर्व रच दिया था।” “भगवान किसी व्यक्ति के लिए-वृत्ति के लिये जन्म लिया करता है। महाभाग शौनको! भगवान् ने स्वयं कहा था- यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थान धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहं॥
हे अर्जुन! जब-जब पृथ्वी पर धर्म का नाश और अत्याचार की बाढ़ आती है, तब-तब मैं मानवीय रूप में अवतरित होकर सृष्टि में व्यवस्था स्थापित करता हूँ, अधर्म का अन्त करके धर्म-संस्कृति सदाचरण की स्वर्गीय वृत्तियों का अवतरण और जनमानस में आच्छादन करता हूँ।” इतनी कथा सुनने के उपरान्त ज्ञान की अन्यतम जिज्ञासा वाले शौनक मुनियों ने महर्षि लोमहर्षण के पुत्र श्री सूतजी से प्रश्न किया-भगवान! द्वापर तक की कथा हो चुकी, अब आप कृपया यह बताइये कि कलियुग में भगवान का जन्म किस रूप में होगा, उस समय ऐसा कौन सा दुष्ट और अत्याचारी राजा होगा जिसे मारने के लिये लिये भगवान अवतरित होंगे। वह सब कथा भी हमें विस्तारपूर्वक सुनाइये, जिससे हमारा कल्याण हो।” शौनकों के प्रश्न करने पर श्री सूतजी बोले- “मुनीश्वरों! ब्रह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन पातक को उत्पन्न किया। उसका नाम रखा गया, अधर्म। अधर्म जब युवक हुआ तक उसका मिथ्या से विवाह कर दिया गया। अधर्म व मिथ्या के संयोग से महाक्रोधी पुत्र दम्भ का जन्म हुआ, उनके माया नाम की एक कन्या भी उत्पन्न हुई। फिर दम्भ और माया के संयोग से लोभ नामक पुत्र और निकृति नामक कन्या हुई। लोभ और निकृति ने क्रोध को जन्म दिया। क्रोध की संयोगिनी हिंसा हुई। इन दोनों के संयोग से काली देह वाले महा भयंकर कलि का जन्म हुआ। काकोदर, कराल, चंचल, भयानक, दुर्गन्धयुक्त शरीर, द्यूत, मद्य, स्वर्ग और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहिन दुरुस्ति हुई। इन दोनों ने परस्पर विवाह कर लिया जिससे भयानक नामक पुत्र और मृत्यु नामक कन्या हुई। भयानक और मृत्यु के निरथ और यातना नाम पुत्र-पुत्री उत्पन्न हुए। इन दोनों के संयोग से हजारों अधर्मी पुत्र पैदा हुए जो आधि, व्याधि, बुढ़ापा, दुःख, शोक आदि में रहकर यज्ञ, स्वाध्याय, दान, उपासना, आदि का नाश करने लगे।” -(कल्कि-पुराण 1-22 श्लोक तक) सारी पृथ्वी में आई अधर्म व दुःखों की बाढ़ और उसकी बौछारें स्वर्ग लोक तक पहुँचती देखकर देवगण बड़े चिन्तित हुए। वे पृथ्वी को आगे करके प्रजापति ब्रह्मा के पास गये ओर बोले-भगवान कलियुग के अधर्मों के कारण पृथ्वी बुरी तरह भयभीत हो रही है। वहाँ सीधे सज्जन व भावनाशील लोगों को बुरी तरह कष्ट मिल रहा है। अब कुछ ऐसा कीजिए कि पृथ्वी सर्वनाश से बच जाये। तब प्रजापति विधाता पृथ्वी और देवताओं को लेकर विष्णुलोक गये और भगवान श्रीहरि से देवताओं की सारी विनती कह सुनाई तब भगवान ने प्रसन्न होकर पृथ्वी पर आने और अवतार लेने का अवतार लेने का वचन दिया। - (कल्कि पुराण 2/1/7) ऊपर की पंक्तियों में चल रहा आख्यान वस्तुतः कोई नामधारी राजा के वंश का वर्णन न होकर कलियुग के आविर्भाव का भाव-चित्रण मात्र है। उसे इतनी कुशलता से और सूक्ष्म बुद्धि से उपस्थित किया गया है कि वर्तमान युग की व्याख्या में किसी को सन्देह न रह जाये। यह कलियुग है सही, पर न तो आजकल भी किसी के क्रोध हिंसा, यातना, दम्भ, लोभ, निकृति आदि नाम होते हैं और न ही अभी सामाजिक परम्पराएँ इतनी विकृत हुई कि सगे भाई-बहनों में सम्बन्ध होने लगें। आख्यान पूरा-का-पूरा भाववाचक है और दुर्गुणों की क्रमिक वंशावली का कलात्मक प्रतीक है। यह एक प्रकट तथ्य है कि मनुष्य कोई पाप करता है तो उसे तुरन्त छिपाने की आवश्यकता पड़ती है, तब वह झूठ बोलता है। पाप और झूठ के संयोग से ही दम्भ बनता है। मायाचार उसका दूसरा रूप है। यदि दम्भ व माया जहाँ मिलते हैं वही लोभ की उत्पत्ति होती है। इस तरह यह वंशावली बढ़ते-बढ़ते हजारों प्रकार की पाप-वासनाओं, बुराइयों, विकृतियों के रूप में फैल जाने का नाम ही युग की विकृति या कलियुग है। कलियुग का नाम लेते ही एक ऐसे युग का बोध होता है जिसमें पाप, अधर्म, अत्याचार, हिंसा, सर्वनाश की विभीषिकाएं, यातनाएं रोग, वृद्धावस्था, दैन्य, दारिद्रय का सर्वत्र बाहुल्य हो उठे। यह सब परिस्थितियोंवश हुआ इसके लिये किसी एक व्यक्ति को दोष नहीं दिया जा सकता। ब्रह्माजी का एक नाम विधि भी हैं। उसका अर्थ है कि काल-क्रम में इस तरह की परिस्थितियों का आविर्भाव भी होता ही रहता है। ज्ञान-सम्पादन, यज्ञ आदि परमार्थी वृत्तियाँ नष्ट हो जाने के कारण सारी पृथ्वी के लोग दुःख पाने लगते हैं तब कुछ विचारशील लोग पीछे लौटते हैं और सृष्टि-प्रक्रिया पर ध्यान देकर देखते हैं कि यदि धरती पर कभी सुख-समृद्धि रही है तो वे परिस्थितियाँ कौन-सी थीं। उनसे निष्कर्ष निकल सकना सम्भव नहीं होता तो वे किन्हीं समर्थ व्यक्तियों की संरक्षता में एकत्रित होकर उन परिस्थितियों की छानबीन करते हैं और फिर उनको अवतरित करने की दिशा में कार्यरत भी होते हैं। अवतार का काम इन भावनाशील आत्माओं को जोड़ना और उनके द्वारा एक नये युग के निर्माण की सशक्त विचार-प्रक्रिया को क्रिया-पद्धति में ढालना होता है। कल्कि अवतार की भाव-भूमिका पर प्रकाश डालते हुए श्री सूतजी अगले श्लोकों में लिखते हैं कि- देवता धरती को आगे करके ब्रह्माजी के पास गये और उनके समक्ष धरती से अपने दुःखों का वर्णन करवाया। ब्रह्माजी देवताओं को लेकर विष्णुलोक गये। भगवान विष्णु ने पृथ्वी की विरद सुनी और आश्वासन दिया कि हम तुम्हारे कष्ट दूर करने के लिये अवतार लेने आ रहे हैं। फिर देवताओं से कहा-तुम लोग मेरी सहायतार्थ जाकर पृथ्वी में स्थान-स्थान पर जन्म लो। उपयुक्त आख्यान से भी यही बात स्पष्ट है। पृथ्वी स्थूल पदार्थों का जड़ पिंड हैं, वह न तो अपनी कक्षा को छोड़कर किसी लोक में जा सकती है और न किसी से कुछ निवेदन कर सकती है। सम्पूर्ण कथानक का आशय यही है कि जब पृथ्वी अज्ञान, अधर्म और पाप-वासनाओं के अन्धकार में बुरी तरह घिर गई तो प्रजापति अर्थात् विधि-व्यवस्था ने एक अति सार्वभौमिक मानवीय सामर्थ्यों से सम्पन्न सत्ता को प्रकट किया। वह सत्ता जन्मी अकेले पर उसको साथ देने वाले भावनाशील देवपुरुषों की पंक्तियाँ-की-पंक्तियाँ उठ खड़ी हुई और देखते-ही-देखते अधर्म का विनाश करने वाली प्रक्रिया प्रचण्ड रूप से सुदर्शन चक्र की भाँति सारे संसार में घूमने लगी। इस तमाम घटना-चक्र के संचालन का श्रेय किसी भी व्यक्ति को मिले, यह अलग बात है पर सम्पूर्ण अवतारों की कथाएँ और श्री सूतजी द्वारा वर्णित कल्कि अवतार का कथानक इसी बात का संकेत करता है कि अब पाप और अधर्म, द्वेष और दुष्प्रवृत्तियाँ जन-जन में मन-मन में घुस गई हैं, उनको काटने के लिए एक तीक्ष्ण विचार-प्रणाली और संघ शक्ति के रूप में ही कल्कि का अवतरण होना चाहिए। जो लोग इस पुनीत उद्देश्य में सहायक होंगे वही देवताओं के अंशावतार व भगवान कल्कि के साथी, सहयोगी, शिष्य, भक्त, देवात्माएँ होंगी। युग निर्माण योजना का जन्म ऐसी ही भावनाशील आत्माओं का गठबन्धन और कर्तृत्व है। कुछ ही दिन में इन्हीं देवात्माओं के कर्त्तव्य-कन्धों पर विराजमान कल्कि के दर्शन करने को मिल जायें तो उसे अतिशयोक्ति न माना जाये। कल्कि पुराण इस बात का प्रत्यक्ष साक्षी है कि युग-निर्माण योजना विशुद्ध रूप से ईश्वरीय प्रेरणा उन्हीं की इच्छा की पूर्ति है। हम जो कर रहे हैं उसमें उन्हीं की प्रेरणा एवं इच्छा प्रमुख रूप से काम कर रही प्रतीत होती है। कल्कि पुराण में प्रतिपादित विश्व-व्यवस्था के दो प्रमुख आधार (1) उपासना और (2) यज्ञ, यही दो आधार युग-निर्माण योजना के भी हैं। उपासना के दो भाग हैं- (1) धर्म या अध्यात्म अर्थात् अपने आपको तत्त्व-दर्शन (धार्मिक विज्ञान) के द्वारा सृष्टि के मूल, परमात्मा, जगत-नियन्ता या विश्व-व्यवस्था के साथ जोड़ना, (2) संस्कृति अर्थात् मानवीय जीवन के अज्ञान और आसक्ति को कम करते हुए प्रक्षालित करते हुए स्वर्ग और मुक्ति की और अग्रसर होना। प्रथम में जप, तप, योग आदि आते हैं, दूसरे में स्वाध्याय, सत्संग संस्कार, सामाजिक सभ्यता और शिष्टाचार की वह सब बातें आती है जो अपनी प्रसन्नता के लिये हम औरों से चाहते हैं। यज्ञ भी उसी प्रकार स्थूल व सूक्ष्म दो भागों में बँटा है (1) स्थूल यज्ञ आकाश जो पृथ्वी को परिमण्डलाकार घेरे हुए है उसकी शुद्धि विषैले तत्वों को मारने के लिये अग्निकुण्ड में शुद्ध वस्तुओं का हवन, (2) सूक्ष्म यज्ञ या ज्ञान यज्ञ जिसे व्यक्तिगत एवं समाज की दूषित चिन्तन प्रणाली को विचार मन्थन की अग्नि में जलाकर उसमें सद्विचारों और सत्कर्मों की निरन्तर आहुतियाँ जिससे विचार और कर्म में सत्प्रवृत्तियों का समावेश हो जाये। कल्कि पुराण के अनुसार भगवान कल्कि की कार्यप्रणाली ऐसी ही है। सूतजी बोले- हे शौनकों! जब कल्कि भगवान कुछ बड़े हुए तब उनके पिता विष्णुयश शर्मा ने कहा- तात ते ब्रह्मसंस्कारं यज्ञसूत्र मनुत्तमम्। सावित्रीं वाचयिष्यामि ततो वेदान्पठिष्यसि॥ -कल्कि पुराण 2/35
वत्स! अब तुम्हारा ब्रह्म संस्कार उपनयन और सावित्री का श्रवण कराऊँगा फिर तुम वेदाध्ययन करना। इस पर कल्कि पूछते हैं- को वेदः का च सावित्री केन सूत्रेण संस्कृताः। ब्राह्मणा विदिता लोके तत्वत्वं वद तात माम्॥ -कल्कि पुराण 2/36
“हे तात्! यह वेद क्या है? सावित्री क्या है? किस सूत्र से संस्कारित पुरुष ब्राह्मण कहलाता है?” इतना पूछने पर विष्णु शर्मा ने इसी अध्याय के 37 से 40 श्लोकों में बताया- वेद भगवान विष्णु की वाणी और सावित्री ही प्रतिष्ठा अथवा वेदमाता है। त्रिगुण-सूत्र को त्रिवृत्ताकार करके धारण करने पर मनुष्य पवित्र ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण ही ब्रह्मवर्चस के अधिकारी होते हैं, उन्हें दस संस्कार, दस यज्ञ शुद्ध करते हैं तब वे यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, स्वाध्याय, संयम और भक्ति करते हुए ब्रह्मा-विभूति करते हैं। तत्पश्चात् वे कल्कि का उपनयन संस्कार कराकर गायत्री उपासना की शिक्षा देते हैं। कल्कि भगवान् इसी गायत्री तत्व और संस्कारों द्वारा जनमानस को संशोधित करते और उन्हें यथार्थ में ईश्वर-बोध कराने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसलिये यह कहा जा सकता है कि गायत्री-उपासना और समाज में ब्राह्मणत्व के सच्चे आविर्भाव के लिए जो लोग प्रयत्न व परिश्रम करेंगे वह कल्कि की इच्छा की पूर्ति वाले उनके सहायक गण वह देवात्मायें ही होती हैं, जो एक निश्चित संकल्प लेकर अवतार के साथ जुड़ी हुई जन्म लेती हैं। कोई भी नई प्रतिष्ठा संघर्ष में जन्म लेती है। नन्हा-सा अंकुर भी पृथ्वी की छाती चीरता है तभी बाहर आ पाता है। पुत्र-प्रसव में नारी को कितना कष्ट उठाना पड़ता है, यह सब जानते हैं। समाज में फैली हुई अन्ध तमिस्रा को दूर करने वाले अतीत के महापुरुषों में से किसी का भी वृत्त उठाकर देख लिया जाये उन्हें संघर्ष और परिस्थितियों को, चुनौती को अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ा है, यह सिद्धाँत सभी युगों में एक समान रहा है। कल्कि की युग-निर्माण प्रक्रिया भी इसी तरह सम्पन्न होने को है। कल्कि पुराण के षष्टम अध्याय में 41 से 45 श्लोकों तक कथा आती है-अत्यन्त विस्तार वाला बौद्धों का निवास स्थान कीकटपुर था। बौद्ध लोग न देवताओं को मानते हैं, न पितरों और परलोक को। देहात्मवादी, कुलधर्म, जातिधर्म न मानने वाले धन, स्त्री और भोजनादि में अभेद अर्थात् कोई भेदभाव न करने वाले-खाने-पीने में ही जो जुटे रहते हैं, उन्होंने भगवान कल्कि का आगमन सुना तो वे अति क्रुद्ध होकर सम्पूर्ण दल-बल के साथ उन पर आक्रमण करने लगे। इस बौद्ध से बौद्ध धर्मानुयायियों का कोई सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः यह बौद्ध न तो कोई विशेष धर्म-सम्प्रदायक व्यक्ति है और न कीकटपुर नाम की उनकी कोई राजधानी है। बौद्ध का अर्थ आधुनिक सभ्यता से प्रभावित वह लोग हैं जो आज अपने को बुद्धिमान् मानते हुए थकते नहीं। उनमें आज अक्षरशः वह गुण देखे जा सकते हैं जो ऊपर बौद्धों के कहे गये हैं। आज विज्ञान इतना बढ़ गया है तथापि उपासना देवार्चन, यज्ञ, ध्यान, परलोक, पुनर्जन्म आदि को कोई नहीं मानता। खाना, पीना, प्रजनन और पैसा जुटाना यही लोगों के लक्ष्य रह गये हैं। शील, सच्चरित्रता नष्ट होते जा रहे हैं। इन बुद्धिवादियों को ठिकाने लगाने का एक महत्वपूर्ण कार्य युग-निर्माण प्रक्रिया का अंग है और वह धर्म के प्रबुद्ध स्वरूप के विस्तार द्वारा ही सम्भव है। लोहे को लोहा काटता है, विष को विष मारता है। विज्ञान की जिस मान्यता ने लोगों को कुमार्गगामी बनाया है वही दिशायें यदि आध्यात्म की ओर मोड़ दी जायें तो उससे आज के लोगों की इस देह को ही सबकुछ मानने वाली धारणा को उसी प्रकार काटा जा सकता है जैसे कल्कि बौद्धों की सेना को काटते हैं। कल्कि पुराण के 16 वें अध्याय में यज्ञानुष्ठानों की विस्तृत प्रक्रिया का वर्णन है। वे कृपाचार्य, परशुराम, वसिष्ठ, व्यास, धौम्य आदि ऋषियों के साथ राजसूय एवं वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे। यज्ञ धर्म, अर्थ, काम की सिद्धि देने वाले कहे गये हैं, पर यह अकेले राजसूय यज्ञों से सम्भव नहीं, वाजपेय अर्थात् ज्ञानयज्ञ और अश्वमेध अर्थात् बुराइयों को काटने का अभियान-यज्ञ भी साथ-साथ चलेगा। उसी से आकाश की शुद्धि के साथ जन-मानस का भी परिहार सम्भव है।