Magazine - Year 1974 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मनुष्य पूर्वजों के ढांचे में ढला खिलौना मात्र नहीं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आनुवांशिकी-विज्ञान के अंतर्गत पिछले दिनों यह सिद्ध किया जाता रहा है कि प्राणी अपने पूर्वजों की प्रतिकृति होते हैं। माता-पिता के डिम्ब-कीट और शुक्रकीट मिल-जुलकर भ्रूण-कलल में परिणत होते हैं और शरीर बनना आरम्भ हो जाता है। उस शरीर में जो मन चेतना रहती हैं, उसका स्तर भी पूर्वजों की मनः-स्थिति की भाँति ही उत्तराधिकार में मिलता है। शरीर की संरचना और मानसिक बनावट के लिए बहुत हद तक पूर्वजों के उन जीवाणुओं को ही ठहराया गया है, जो परंपरा के रूप में वंशधरों में उतरते चले जाते हैं।
इस प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अपने आग में कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वजों के ढाँचे में ढला हुआ एक खिलौना मात्र है। यदि सन्तान को सुयोग्य सुविकसित बनाना हो तो वह कार्य पीढ़ियों पहले आरम्भ किया जाना चाहिए। अन्यथा सांचे में ढले हुए इस खिलौने में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन न हो सकेगा।
अनुवांशिकी का यह प्रतिपादन जहाँ तक मानव-प्राणी का सम्बन्ध है, बहुत ही अपूर्ण और अवास्तविक है। पशु-पक्षियों में एक हद तक यह बात सही भी हो सकती, पर मनुष्य के लिए यह कहना अनुचित है कि वह पूर्वजों के साँचे में ढला हुआ एक उपकरण मात्र है। यह मानवी इच्छा-शक्ति, विवेक-बुद्धि, स्वतन्त्र-चेतना और आत्मनिर्भरता को झुठलाना है। समाज-शास्त्री, अर्थ-शास्त्री और मनोविज्ञान-वेत्ता वातावरण एवं परिस्थितियों के उत्थान पतन का कारण बताते रहे हैं। आत्म-वेत्ताओं ने एक स्वर से सदा यही कहा है—मनुष्य की अन्तःचेतना स्वनिर्मित है। वह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है। इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के आधार पर अपने मानसिक ढाँचे में कोई चाहे तो आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है।
आनुवांशिकी की मान्यताऐं एक हद तक ही सही ठहराई जा सकती हैं। चमड़ी का रंग, चेहरा, आकृति, अवयव आदि पूर्वजों की बनावट के अनुरूप हो सकते हैं। पर गुण, कर्म, स्वभाव भी पूर्वजों जैसे ही हों—यह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा हो रहा होता तो किसी कुल में सभी अच्छे और किसी कुल में सभी बुरे उत्पन्न होते। रुग्णता, स्वस्थता, बुद्धिमत्ता, मूर्खता, सज्जनता, दुष्टता, कुशलता, अस्तव्यस्तता भी परम्परागत होती तो प्रगतिशील वर्ग के परिवार के सभी सदस्य सुविकसित होते और पिछड़े लोगों का स्तर साथ के लिए गया-गुजरा ही बना रहता। तब उत्थान-पतन के लिए किये गये प्रयत्नों की भी कुछ सार्थकता न होती। वातावरण का भी कोई प्रभाव न पड़ता, पर ऐसी स्थिति है नहीं। पूर्वजों की स्थिति से सर्वथा भिन्न स्तर की सन्तानों के अगणित उदाहरण पग-पग पर सर्वत्र बिखरे हुए देखे जा सकते हैं। इससे मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना और इच्छा-शक्ति की प्रबलता का लक्ष्य ही स्पष्ट रूप से सामने आता है।
मद्यप मनुष्यों की सन्तान क्या स्वजन्मजात रूप से उस लत से ग्रसित होती है? इस खोज-बीन में पाया गया कि ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् उल्टा यह हुआ कि बच्चों ने बाप को मद्यपान के कारण अपनी बर्बादी करते देखा तो वे उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने न केवल मद्यमान से अपने को अछूता रखा, वरन् दूसरों को भी उसे अपनाने से रोका।
मनुष्यों में गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है। विकलांग और पैतृक रोगों से ग्रसित सन्तान उत्पन्न करने में आशाजनक सफलता मिली है। क्योंकि विषाक्त मारकता से भरे रसायन सदा अपना त्वरित परिणाम दिखाते हैं। यह गति विकासोन्मुख प्रयत्नों की नहीं होती। नीलाथोथा खाने से उल्टी तुरन्त हो सकती हैं, पर पाचन−शक्ति सुधार देने के प्रयोग उतने सफल नहीं होते। देव से असुर की शक्ति को अधिक मानने का यही आधार है। मनुष्यों में मन−चाही सन्तान उत्पन्न करने का प्रयोग सिर्फ इतनी मात्रा में कुछ अधिक सफल हुआ है कि रंग−रूप और गठन की दृष्टि से जनक−जननी का सादृश्य दृष्टिगोचर हो सके। काया की आन्तरिक दृढ़ता, बौद्धिक तीक्ष्णता एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उत्पन्न करने में वैज्ञानिक प्रयोगों का उत्साह−वर्धक परिणाम नहीं निकला है।
गुण सूत्रों को बदलने में इन दिनों विद्युत−ऊर्जा एवं रासायनिक हेर फेर के साधन जुटाये जा रहे हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी थोप−थाप स्थिर न रह सकेगी—उससे क्षणिक−चमत्कार भले ही देखा जा सके। शरीर के प्रत्येक अवयव को मस्तिष्क प्रभावित करता है और मस्तिष्क का सूत्र−संचालन इच्छा−शक्ति के हाथ में रहता है। अस्तु शारीरिक, मानसिक समस्त परिवर्तनों का तात्विक आधार इस इच्छा−शक्ति को ही मानना पड़ेगा। गुण−सूत्रों पर भी इसी ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है और इसी माध्यम से वह परिवर्तन किये जा सकते हैं, जो मन−चाही पीढ़ियाँ उत्पन्न करने के लिए वैज्ञानिकों को अभीष्ट हैं।
अभीष्ट स्तर की पीढ़ियाँ क्या रासायनिक हेर−फेर अथवा विद्युतीय प्रयोग उपकरणों द्वारा प्रयोगशालाओं में विनिर्मित हो सकती हैं? यह एक जटिल प्रश्न है। यदि ऐसा हो सका तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य इच्छा−शक्ति का धनी नहीं, वरन् रासायनिक पदार्थों की परावलम्बी प्रतिक्रिया मात्र है। यदि यह सिद्ध हो सका तो इसे मनोबल और आत्मबल की गरिमा समाप्त कर देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जायगा, पर ऐसा हो सकना सम्भव दिखाई नहीं पड़ता—भले ही उसके लिए ऐड़ी−चोटी प्रयत्न कितने ही किये जाते रहें।
शरीर के विभिन्न अंगों पर दबाव डाले जाते रहे हैं, पर प्राणी की मूल इच्छा न उस दबाव की आवश्यक नहीं समझा तो उस तरह के परिवर्तन नहीं ही हो सके। चीन में शताब्दियों तक स्त्रियों के पैर छोटे होना—सौंदर्य का चिन्ह माना गया, इसके लिए उन्हें कड़े जूते पहनाये जाते थे, उससे पैर छोटे बनाने में सफलता मिली। पर वंश−परम्परा की दृष्टि से वैसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नई लड़की के पैर पूरे अनुपात से ही होते थे।
प्राणियों के क्रमिक−विकास में इच्छा−शक्ति का ही प्रधान स्थान रहा है। मनुष्य तो मनोबल का धनी है, उसकी बात जानने भी दें और अन्य प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उनकी वंश−परम्परा में बहुमुखी परिवर्तन होता रहा है। इसका कारण सामयिक परिस्थितियों का चेतना पर पड़ने वाला दबाव ही प्रधान कारण रहा है। असुविधाओं को हटाने और सुविधाऐं बढ़ने की आन्तरिक आकाँक्षा ने प्राणियों की शारीरिक स्थिति और आकृति में ही नहीं प्रकृति में भी भारी हेर-फेर प्रस्तुत किया है। जीव−विज्ञानी इस तथ्य से भली−भाँति परिचित हैं।
यदि पूर्वजों के गुण लेकर ही सन्तानें उत्पन्न होने वाली बात को सही माना जाय तो जीवों की आकृति−प्रकृति में परिवर्तन कैसे सम्भव हुआ? उस स्थिति में तो पीढ़ियों का स्तर एक ही प्रकार का चलता रहना चाहिए था।
लेमार्क ने प्राणियों का स्तर बदलने में वातावरण को परिस्थितियों को श्रेय दिया है। वे कहते हैं—इच्छा−शक्ति इन्हीं दबावों के कारण उभरती, उतरती है। सुविधा−सम्पन्न परिस्थितियों के प्राणियों के ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता। अतएव उनका शरीर ही नहीं, बुद्धि−कौशल भी ठप्प पड़ता जाता है। अमीरी के वैभव में पले हुए लोग अक्सर छुईमुई बने रह जाते हैं और उनका चरखा बखेर देने के लिए एक छोटा−सा आघात ही पर्याप्त होता है।
लेमार्क ने नये किस्म के अनेक जीवधारियों की उत्पत्ति का लेखा−जोखा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बाहर से मौलिक जीव दीखने पर भी वस्तुतः किसी ऐसे पूर्व प्राणी के ही वंशज होते हैं, जिन्हें परिस्थितियों के दबाव से अपने परम्परागत ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ा।
जीवों के विकास−इतिहास के पन्ने−पन्ने पर यह प्रमाण भरे पड़े हैं कि प्राणियों के अंग प्रत्येक निष्क्रियता के आधार पर कुण्ठित हुए हैं और सक्रियता ने उन्हें विकसित किया है। प्रवृत्ति, प्रयोजन और चेष्टाओं का मूल इच्छा−शक्ति ही है। असल में यह इच्छाशक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, अवसाद उत्पन्न करती है। रासायनिक पदार्थों और गुण−सूत्रों की वंश−परम्परा विज्ञान में कायिक क्षमता को एक अंश तक प्रभावित करने वाला आधार भर माना जाना चाहिए। आधुनिक विज्ञान−वेत्ता मौलिक−भूल यह कर रहे हैं कि मानवी−सत्ता को उन्होंने रासायनिक प्रतिक्रिया मात्र समझा है और उसका विकास करने के लिए जनक−जननी को—उसके जनन−रसों को अत्यधिक महत्व दे रहे हैं। इस एकांगी आधार को लेकर मनचाही आकृति−प्रकृति की पीढ़ियाँ वे कदाचित ही पैदा कर सकें।
वैज्ञानिक बीजमन ने चूहों और चुहियों की लगातार बीस पीढ़ियों तक पूँछे वाले चूहे पैदा किये जा सकते हैं? उन्हें अपने प्रयोग में सर्वथा असफल होना पड़ा। बिना पूँछ के माँ−बाप भी पूँछ वाले बच्चे ही जनते चले गये। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मात्र शारीरिक हेरफेर से वंशानुक्रम नहीं बदला जा सकता। इसके लिए प्राणी की अपनी रुचि एवं इच्छा का समावेश होना नितान्त आवश्यक है।
हर्वर्ट स्पेन्सर ने अपनी खोजों में ऐसे कितने ही प्राणियों के, उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने शरीर के किसी अवयव को निष्क्रिय रखा तो वह क्षीण होता चला गया और लुप्त भी हो गया। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं, जिनमें ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’ वाले सिद्धान्त को सही सिद्ध करते हुए अपने शरीर में कई तरह के नये पुर्जे विकसित किये और पुरानों को आश्चर्यजनक स्तर तक परिष्कृत किया।
समुद्र−तल की गहराई में रहने वाली मछलियों को प्रकाश से वंचित रहना पड़ता है। अतएव उनके आँखों का चिन्ह रहते हुए भी उनमें रोशनी नहीं होती है। आँख वाले अन्धों में उनकी गणना की जा सकती है। अँधेरी गुफाओं में जन्मते और पलने वाले थलचरों का भी यही हाल होता है। उनकी आँखें ऐसी होती हैं, जो अन्धेरे में ही कुछ काम कर सकें। प्रकाश में तो वे बेतरह चौंधिया जाती हैं और निकम्मी साबित होती है।
समर्थ का चुनाव मात्र शारीरिक बलिष्ठता पर निर्भर नहीं हैं, वरन् सच पूछा जाय तो उनकी मनःस्थिति की ही परख इस कसौटी पर होती है। पशुवर्ग और सरीसृप वर्ग के विशालकाय प्राणी आदिम−काल में थे। उनकी शरीरगत क्षमता अद्भुत थी, फिर भी वे मन्द−बुद्धि, अदूरदर्शिता, आलस जैसी कमियों के कारण दुर्बल संज्ञा वाले ही सिद्ध हुए और अपना अस्तित्व खो बैठे। जब कि उसी समय के छोटी काया वाले प्राणी अपने मनोबल के कारण न केवल अपनी सत्ता सँभालते रहे, वरन् क्रमशः विकासोन्मुख भी होते चले गये।
जीवों के विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि उन्हें परिस्थितियों से जूझना पड़ा—अवरोध के सामने टिके रहने के लिए अपने शरीर में तथा स्वभाव में अन्तर करना पड़ा। यह परिवर्तन किसी रासायनिक हेरफेर के कारण नहीं, विशुद्ध रूप से इच्छा−शक्ति की प्रवाह−धारा बदल जाने से ही सम्भव हुआ है। जीवन−संग्राम में जूझने की पुरुषार्थ−परायणता का उपहार ही अल्प−प्राण जीवों को महाप्राण स्तर का बन सकने के रूप में मिला है। जिन्होंने विपत्ति से लड़ने की हिम्मत छोड़ दी और हताश होकर पैर पसार बैठे उन्हें प्रकृति ने कूड़े कचरे की तरह बुहार कर घूरे पर पटक दिया। किसान और माली भी तो अपने खेत−बाग में अनुपयोगी खर−पतवार की ऐसी ही उखाड़−पछाड़ करते रहते हैं। विकास की उपलब्धि पूर्णतया जीवन−संग्राम में विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप ही मिलती है और इस संघर्षशीलता का पूरा आधार साहसी एवं पुरुषार्थी मनोभूमि के साथ जुड़ता रहता है।
आनुवांशिकी−विज्ञान की अन्यान्य शोधें कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों, पर यह प्रतिपादन स्वीकार्य नहीं हो सकता कि प्राणियों का विशेषतया मनुष्यों का स्तर पूर्वजों के परम्परागत गुण सूत्रों पर निर्भर है। इच्छा−शक्ति की प्रचण्ड समर्थता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों की सम्भावना को मान्यता देने के उपरान्त ही वंशगत विशेषताओं की चर्चा की जाय—यही उचित है।