Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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सम्पन्नता ही नहीं−शालीनता भी बढ़ाई जाय
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विज्ञान की प्रगति इस युग की महत्वपूर्ण देन है। प्रकृति की शक्तियों का इन दिनों गहन अन्वेषण−अध्ययन किया गया है और उन्हें करतलगत करके मनुष्य की सेवा−सहायता के लिये नियोजित किया गया है। इन दिनों सुख−सुविधा प्रदान करने वाले अगणित ऐसे साधन चारों ओर बिखरे पड़े दीखते हैं, जिनकी अब से पाँच सौ वर्ष पूर्व कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। यदि पाँच सौ वर्ष पूर्व का कोई मनुष्य कहीं जीवित हो और आकर आज की परिस्थितियाँ देखे—पुराने जमाने से उसकी तुलना करे, तो आश्चर्य चकित हुये बिना न रहेगा। बिजली, रेल, मोटर, कार, रेडियो, जलयान, वायुयान, राकेट आदि की यान्त्रिकी प्रगति देख कर उसे ऐसा लगेगा मानो यह दैत्यों का युग है और उन्होंने ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ करतलगत कर रखी हैं। घन, वैभव, शिक्षा और कौशल की दिशा में विज्ञान की प्रगति ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
प्राचीनकाल में सुविधा−साधन निस्सन्देह अब की अपेक्षा बहुत कम थे, फिर भी लोग निरोग और दीर्घजीवी होते थे। हँसी−खुशी के दिन गुजारते थे। मिलजुल कर रहते थे और चैन की साँस लेते थे। किन्तु अब सम्पत्ति, शिक्षा और सुविधाओं का अत्यधिक बाहुल्य होने पर भी सर्वत्र मरघट जैसी नीरव नीरसता दीखती है। स्नेह, सद्भाव की गहराई दीख नहीं पड़ती उसके स्थान पर उथला आडम्बरी, शिष्टाचार भर रह गया है। भीतर से घोर निर्ममता और बाहर से मयूर स्वर का अभिनय अब एक मान्यता प्राप्त कला−कौशल बन गया है। किसी को किसी पर विश्वास नहीं, कोई किसी के लिये अपने को जोखिम में डालने के लिये तैयार नहीं। आदमी अपनी मौत मर रहा है और अपनी जिन्दगी जी रहा है। किसी को किसी के सहारे की आशा रही भी तो वह समय आने पर निराशाजनक ही सिद्ध होती है। आदमी भीतर और बाहर से खोखला होता जा रहा है, सिर्फ चमक−दमक के लिफाफे को देख कर रीझने और मन बहलाने का ओछा आधार हाथ रह गया है। अस्वस्थ शरीर और उद्विग्न मन लेकर लोग किसी तरह जिन्दगी की लाश ढो रहे हैं। कुंठाओं से भरे दिन जब काटे नहीं कटते तो लोग नशा पीकर या अश्लील उत्तेजना का आश्रय लेकर गम दूर करते हैं। चैन, विश्वास और सन्तोष की—स्नेह सद्भाव और सहयोग की जिन्दगी अब किसी बिरले भाग्यवान के ही हाथ लगती है। अन्यथा औसत मनुष्य के भीतर और बाहर ऐसी ही विकृतियाँ भरी दीखती हैं, जिनके कारण रोष एवं विक्षोभ की जलन में झुलसते रहने की मजबूरी के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।
साधनों के अभाव में अथवा अप्रत्याशित आपत्तियों के कारण कष्ट−ग्रस्त रहना पड़े यह बात समझ में आती है पर सुविधाओं का बाहुल्य रहने पर भी लोग इस प्रकार अशान्त उद्विग्न रहें, इसे आश्चर्य ही कहा जाना चाहिये इस विपन्न स्थिति का कारण तलाश करने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि विकास की घुड़दौड़ में पदार्थों की उपलब्धि ही सब कुछ बन गई है भावनाओं का विकास, परिष्कार एक प्रकार से भुला ही दिया गया है। गुण, कर्म, स्वभाव को—चरित्र और चिन्तन को परिष्कृत किया जाय, इस दिशा में एक प्रकार से आँख ही मूँद ली गई हैं। उपेक्षित क्षेत्र में पिछड़ापन ही बढ़ेगा समृद्धि बढ़ी सो ठीक है पर चिन्तन में उत्कृष्टता की समुचित मात्रा बनाये रखने का भी ध्यान रखा जान चाहिये था। दुर्भाग्य इस युग का यही रहा है, जन−जीवन और चिन्तन को दिशा देने वाले मनीषियों ने समृद्धि को ही सब कुछ बताने की भूल बरती। साम्यवादी दर्शन में समस्त समस्याओं की जड़ ‘अर्थ, को ही माना है और उसी के सुधार पर संसार में सुख−शान्ति और प्रगति की सम्भावना का प्रतिपादन किया है। अस्तु लोक−मंगल की इच्छुक समस्त शक्तियाँ अर्थ व्यवस्था पर अपने सारे प्रयासों को केन्द्रित किये हुये हैं। चरित्र एवं चिन्तन उपेक्षणीय समझा जाता रहा है, इस संदर्भ में उथली चर्चायें भर होती रही हैं कुछ ऐसा नहीं सोचा अथवा किया गया, जिसे ठोस अथवा गम्भीर कहा जा सके। परिणाम सामने है। जन−मानस सुविधा−साधनों की उपलब्धि को ही लक्ष्य स्वीकार और उस अत्युत्साह में चरित्र एवं चिन्तन के भावनात्मक आधारों को एक प्रकार से विस्मृत ही नहीं तिरष्कृत भी बना दिया गया। अब धर्म, अध्यात्म, चरित्र, कर्त्तव्य, लोक−मंगल जैसे प्रसंगों की चर्चा और चेष्टा करने वाले उपहासास्पद माने जाते हैं। प्रगतिशीलता का अर्थ चतुरता से भी आग बढ़ कर धूर्तता तक जा पहुँचा है। अब बुद्धिमान वह है जो दूसरों को उल्लू बना कर किसी भी प्रकार अपना मतलब सिद्ध करले। ऐसी परम्परा जब लोक−प्रकृति का अंग बन जाय तो व्यक्ति गत महानता और सामाजिक समस्वरता का टिकना किस आधार पर सम्भव हो सकता है? भावनात्मक उत्कृष्टता का तथ्य जब उपेक्षणीय बन जाय तो मनुष्य के सामने अन्तरंग और बहिरंग जीवन में विपन्नतायें भर ही जानी चाहिये और उसका फल अगणित शोक−सन्तापों के रूप में सामने आना ही चाहिये। आज की स्थिति का सही निरूपण विश्लेषण यही है।
हर किसी का व्यक्ति गत जीवन अब सौ वर्ष पुरानी स्थिति की तुलना में कहीं अधिक सुविधा−साधनों से भरा पूरा है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि उसमें रोष, असन्तोष भी कहीं अधिक बढ़ा−चढ़ा है। शरीर में रोग, मन में असन्तोष, परिवार में विक्षोभ, अर्थ व्यवस्था में दारिद्रय भरा पड़ा है और इर्द−गिर्द बिखरी हुई सामाजिक और शासकीय परिस्थिति के प्रति प्रत्येक को रोष है। इसका एक मात्र कारण मनुष्य के चरित्र और चिन्तन का स्तर गिरना और फलस्वरूप मानवी गतिविधियों में निकृष्टता का भर जाना ही है। सुविधा−साधनों की अभिवृद्धि के लाभ को मटियामेट कर देने वाली, इसी विभीषिका को यथा स्थान बना रहने दिया जाय तो फिर वैज्ञानिक आर्थिक एवं बौद्धिक प्रगति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। जो प्रगति अपने साथ विपत्तियों को भी बढ़ाती चले, उसे कैसे सराहा जा सकेगा। एकांगी प्रगति का यही फल हो सकता है जो सामने है। भौतिक प्रगति के अनुरूप ही आत्मिक प्रगति भी होनी चाहिये अन्यथा एकाँगी प्रगति के परिणामों में विघ्न−असन्तुलन ही पैदा होगा। एक हाथ छोटा एक बड़ा हो, एक पैर मोटा एक पतला हो, एक आँख अन्धी, दूसरी दीखती हो तो काया कुरूप ही लगेगी—इतना ही नहीं उसकी क्षमता भी घटेगी। छोटा बच्चा भी अपने नन्हे से किन्तु सन्तुलित अवयवों को लेकर किसी प्रकार काम चला लेता है पर वयस्क होने पर भी यदि एक पाँव बहुत छोटा, पतला और एक पाँव बहुत मोटा लम्बा हो तो वह एकांगी बढ़ोतरी विपत्ति ही उत्पन्न करेगी। अविकसित और अभाव−ग्रस्त वनवासी किसी प्रकार सन्तुष्ट और सन्तुलित जीवन जी लेते हैं किन्तु यदि चतुरता और सम्यकता के साथ आदर्शवादिता न बढ़े तो वह सम्पत्ति मनुष्य के लिये सुखद सिद्ध होने की अपेक्षा दुखद परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करेगी। आज धन भी बढ़ा है और विज्ञान भी। शिक्षा भी बढ़ी है और सुविधाओं का भी विस्तार हुआ है। इस गरिष्ठ आहार को पचाने लायक पेट का हाजमा भी तो बढ़ना चाहिये अन्यथा यह व्यंजन−पकवान उदर संकट ही उत्पन्न करेंगे। आज यही तो हो रहा है।
यह विपत्ति व्यक्ति गत जीवन में ही नहीं, सामूहिक परिस्थितियों पर भी छाई हुई है। विज्ञान और धन का लाभ यों जनता भी उठाती है पर उसका मूल स्वामित्व एक प्रकार से शासन सत्ताओं के ही हाथ में हैं। वैज्ञानिकों का शिक्षण, पोषण, शोध−प्रयोग से लेकर उपलब्धियों तक पर प्रायः सरकारी नियन्त्रण ही रहता है। वे उन्हीं आविष्कारों के लिए साधन, प्रोत्साहन प्रस्तुत करती हैं जो सत्तारूढ़ लोगों को प्रिय है। चरित्र संकट व्यक्ति गत जीवन तक ही सीमित नहीं रहा, वह हर क्षेत्र के मूर्धन्य लोगों के सिर पर भी सवार है। इससे राजनेता भी अछूते नहीं। विभिन्न देशों के सत्ताधीश जिस मनोवृत्ति के हैं, उसमें विनाश की ही बात को प्रमुखता मिलेगी। विश्व भर के शासक विज्ञान को घातक अस्त्रों के साधनों में जिस उत्साह से नियोजित किये हुये हैं, उतना उत्साह रचनात्मक कार्यों में नहीं है। विज्ञान का अति महत्वपूर्ण भाग विनाश−विन्यास को ही संजोने में लगा हुआ है। जितना धन घातक आयुधों के निर्माण में−आक्रमणकारी साधनों में लगा हुआ है, उतना सुख−शान्ति के रचनात्मक प्रयोग−परीक्षणों में कहाँ लगता है? प्रति रक्षा−साधनों पर, राकेटों पर, जितनी शक्ति लग रही है। उसकी चौथाई भी विश्वव्यापी अज्ञान एवं दारिद्रय के निवारण में लगी होती तो अब तक गरीबी, बीमारी और अशिक्षा पर तक विजय प्राप्त करली गई होती।
अणु−आयुध प्रक्षेपणास्त्र, मारक गैसें, स्वसंचालित अस्त्र, मृत्यु किरणें जैसे साधन इतनी बड़ी संख्या में एकत्रित हो गये हैं कि किसी उन्मादी द्वारा उठाया गया मूर्खता कदम देखते−देखते इस सुन्दर भूपिंड को जलती फुलझड़ी की तरह भस्मसात करके रख सकता है। बुद्धि, सत्ता, विज्ञान और धन का विनियोग जिस प्रकार विघातक प्रयोजनों में हो रहा है उसी प्रकार शासनाध्यक्षों का मन यदि मानव−कल्याण में निरत रहा होता, विघातक प्रवृत्तियों के स्थान पर रचनात्मक कदम उठाये गये होते तो मनुष्य जाति की न जाने कितनी समस्यायें हल तो गई होतीं और संसार में न जाने सुख−शांति की कितनी बढ़ी−चढ़ी परिस्थितियाँ बिखरी हुई दिखाई देतीं।
समष्टि क्षेत्र में भी उसी दुर्बुद्धि का साम्राज्य है, जिसका घटाटोप व्यक्ति गत जीवन पर चढ़ा हुआ है। साधन तो बेचारे निर्जीव हैं, उनका प्रयोग तो मनुष्य की चेतना ही करती है, यदि वही दुष्टता और दुर्बुद्धि ग्रसित हो तो विज्ञान, धन, बुद्धि, कौशल आदि जो कुछ भी, जितना कुछ भी सामने होगा, उसे अवाँछनीय दिशा में ही नियोजित किया जायगा। फलस्वरूप विपत्तियाँ और कठिनाइयाँ ही बढ़ेगी। जैसी कि आज बढ़ भी रही हैं। विज्ञान, धन अथवा ज्ञान के अभिवर्धन का विरोध नहीं किया जा सकता है। उस दिशा में अधिकाधिक प्रगति के साधन जुटाये ही जाने चाहियें, किन्तु साथ ही भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि साधन ही सब कुछ नहीं है। उसका भला−बुरा परिणाम तो प्रयोक्ताओं की मनः स्थिति पर निर्भर रहेगा। चाकू से कलम बनाई जा सकती है और उसी से किसी की जान भी ली जा सकती है। दोष चाकू का नहीं प्रयोक्ता का है। साधनों की अभिवृद्धि के साथ−साथ यदि प्रयोक्ताओं का स्तर ऊँचा न उठ सका तो बढ़ी हुई साधन सामग्री अपनी वृद्धि के अनुपात से ही विपत्ति भी खड़ी करेगी। लाठी लेकर आक्रमण करने वाला दस−बीस को घायल ही कर सकता है पर यदि उसके हाथ मशीनगन लग जाय तो देखते−देखते हजारों को धराशायी बना देगा। मूर्ख अपराधकर्त्ता लोगों की थोड़ी−सी हानि करेगा पर बुद्धिमान की दुर्बुद्धि तो असंख्यों को अपने जाल में फँसा कर पटक−पटक कर मारेगी।
इन दिनों एक भयंकर भूल यह हो रही है कि भौतिक सुख−साधनों की अभिवृद्धि पर हर किसी का ध्यान केन्द्रित है। इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि भौतिक प्रगति के साथ−साथ उनके उच्चस्तरीय प्रयोग की क्षमता विकसित करने वाली सदाशयता का भी विकास किया जाय। चरित्र और चिन्तन की उत्कृष्टता का अभिवर्धन इतना अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है कि उसे भौतिक प्रगति से भी पहले स्थान दिया जाना चाहिए। सद्भाव सम्पन्न लोग अभाव−ग्रस्त परिस्थितियों में भी सुखी रहने और सुखी रहने देने की व्यवस्था बनाये रह सकते हैं पर दुर्भाव सम्पन्न दुष्टता तो बढ़े−चढ़े साधनों को अपने और दूसरे के पतन में ही प्रयुक्त करके रहेगी, तब उस समृद्धि का परिणाम अभाव ग्रस्त स्थिति से भी महंगा पड़ेगा।
भौतिक साधनों की अभिवृद्धि के प्रयत्न में निरत उत्साह को सलाह मिलनी चाहिए कि प्रयासों को−आत्मिक प्रगति की दिशा में मोड़ा जाय और जब तक सन्तुलन न बन जाय तब तक मानवी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर ही ध्यान और प्रयत्न को केन्द्रित किया जाय। भौतिक विज्ञान की ही तरह आत्मिक विज्ञान को भी महत्व दिया जाय।