Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य क्या था और क्या बनेगा?
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मनुष्य क्या था? और क्या बन गया? क्या बनने जा रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए चिरकाल से ऊहापोह चल रही है। आदि मानव मनु थे उनकी सन्तानें मानव कहलाई। स्वर्ग से आदम और हब्बा जमीन पर धकेल दिये गये और उन्होंने यहाँ आकर जो सन्तानें उत्पन्न की वे मनुष्य बन गई। ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पन्न की और उसी समय सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजा। इन पौराणिक आख्यायिकाओं से अब बुद्धि का समाधान नहीं होता। विज्ञान इस संदर्भ में तर्क और प्रमाणों को आधार मानकर खोजे करता रहा और आगे भी इस प्रयास में संलग्न है।
आदि मानव कहाँ और कब पैदा हुआ− उसके सम्बन्ध में यह माना जाता है कि वह अब से दस लाख वर्ष पूर्व इस स्थिति में विकसित हो गया था कि उसे ‘मनुष्य’ नाम दिया जा सके। मिश्र, भारत, दक्षिण और मध्य अफ्रीका, चीन, जापान आदि देशों में जो खोपड़ियों तथा मानव प्रयोग के जो उपकरण मिले हैं उनसे प्रतीत होता है कि उन क्षेत्रों में मनुष्य का अस्तित्व मौजूद था। एक जगह उत्पन्न होकर उसकी पीढ़ियाँ दूर−दूर फैली या विभिन्न स्थानों में अपने−अपने क्रम से मनुष्य का विकास हुआ। इस प्रश्न के उत्तर में जो बातें कहीं गई हैं उनमें यही अधिक युक्ति संगत है कि वातावरण और परिस्थितियों ने धरती के विभिन्न भागों में जीवों के विकास को प्रोत्साहन दिया है, इसी क्रम से मनुष्य भी विभिन्न स्थानों में अपना स्वतन्त्र विकास करता रहता है, अपने पूर्वजों की तुलना में उसे अपेक्षाकृत अधिक उन्नति करते रहने का अवसर मिलता रहा है।
आदि मानव को “होमीनिड” नाम दिया गया है। यह अर्ध वानर और अर्ध मानव था। लगभग वन मानुष स्तर का। पूर्ण मानव− होमोसेपियंस और विकसित मानव− होमोडूरैक्स− क्रमशः बनते चले आये हैं। परिस्थितियों के अनुसार नस्लें सुधरती गई हैं। यह नस्लें भारत, चीन, अफ्रीका और योरोप के कुछ स्थानों पर विकसित हुई। डॉ. लेविस लीके ने अफ्रीका के ओल्डुवाई नामक 30 मील लम्बी और 300 फुट गहरी गुफा की खोज करके जो अवशेष पाये उससे न केवल मनुष्य की वरन् प्रागैतिहासिक काल के अन्य प्राणियों के इतिहास की प्रामाणिक शृंखला मिलती जुलती है।
चार्ल्स डार्विन ने अब से एक सौ वर्ष पहले यह कहा था कि आदि मानव अफ्रीका में जन्मा था। उनकी इस मान्यता का कारण उस क्षेत्र में मिले प्रागैतिहासिक काल की खोपड़ियाँ थी। पर अब अन्यत्र भी उसी प्रकार के प्रमाण मिल रहे हैं। डॉ. लुई लीके ने अन्यत्र भी वैसे अवशेष पाये हैं। मनुष्य का अति पूर्वज एन्प्रोपायड एप और उसका पीछे का विकसित वंशज ‘आस्टेलोपिथैसाइन’ माना जाता है यह दोनों कपि मानव थे। इसी वंश का क्रमिक विकास होता गया और उसकी न के वल आकृति वरन् प्रकृति भी बदलती और विकसित होती चली गई। समयानुसार वह काल आया जिसे पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार प्लीस्टोसीन अथवा मानव युग कहते हैं। यह दस लाख वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ।
सबसे पुराना नर कंकाल जिसे नृतत्व विज्ञानियों ने ‘जिंजान थ्रोपस’ नाम दिया है। यह प्रमाणित करता है कि मनुष्य का अस्तित्व अब से 13 लाख वर्ष पूर्व ही मौजूद था।
पश्चिम जर्मनी में नियडर नदी के किनारे राइनलेण्ड क्षेत्र की एक गुफा में जो खोपड़ियाँ मिली हैं उनमें एक मनुष्य की भी है। हक्सले ने इसे भी आदि मानव की ठहराया है।
डच पुरातत्त्ववेत्ता ड्यूबोइस ने मध्य सुमात्रा में जो नर कंकाल प्राप्त किये थे वे भी आदि मानव के शारीरिक ढाँचे की बहुत कुछ जानकारी देते हैं। हालैंड के भू−गर्भ वेत्ता जीग्टर हार को जो खोपड़ियाँ मिलीं उनमें इस विकास शृंखला की पुष्टि होती है।
जावा में मिली अस्थियाँ, फ्राँस की ला शापेल ओ साँ की गुफा में मिले कंकाल, सहारा क्षेत्र में इवैन्सकार्पिन्स को मिली हड्डियां, इजराइल की तिवेरियास झील के निकट खुदाई में मिले अवशेष, टाँग (जोहन्सवर्ग) को डॉ. दार्स को मिली सामग्री, चीन को चाडकाडतिन गुफा में डॉ. ब्लैक को मिली अस्थियाँ, योरोप के विभिन्न स्थानों से मार्स्टन द्वारा संग्रह किये गये पुरातन प्रमाण यह बताते हैं कि मनुष्य अपने पूर्वजों की अपेक्षा क्रमिक विकास के पथ पर अग्रसर होता आया है। राकफेलर फाउंडेशन की सहायता से फ्राज वाइडन राइस ने मनुष्य विकास के पुरातन कालीन इतिहास सम्बन्धी जो व्यापक खोजें की हैं उनका विवरण डेन्टीशन ऑफ साइनाथ्रोपस− दि स्कूल आफ साइनान्थ्रोपस नामक तीन ग्रन्थों में प्रकाशित किया है इसमें उन्होंने मानवी विकास क्रम पर अधिक प्रामाणिक प्रकाश डाला है।
पुराने प्राणी शरीर की दृष्टि से विशालकाय थे और मस्तिष्क की दृष्टि से मंद बुद्धि। बुद्धि का उपयोग अधिक काम आया तो वह बढ़ती गई, शरीर से कम श्रम लिया गया तो वह छोटा होता गया। प्रकृति का सिद्धान्त है कि जिस तत्व की उपयोगिता समझी जायगी− आवश्यकता अनुभव की जायगी और उपयोग में लाई जायेगी वह बढ़ेगी, मजबूत होगी और उसकी उपेक्षा की जायेगी, वह निरर्थक पड़ी−पड़ी घटती चली जायगी। मानवी काया का भी यही हुआ। साधन बढ़ने से उसका विकास क्रम यहाँ आ पहुँचा जहाँ आज हम हैं। पुराना मनुष्य कैसा था इसकी एक झाँकी हिमालय पर पाये जाने वाले हिम मानव के रूप में अभी भी यदा−कदा सामने आती रहती है। हिम मानव का अस्तित्व अब संदिग्ध नहीं है उसके प्रमाण एक के बाद एक मिलते ही चले जाते हैं।
एवरेस्ट चोटी पर सफल चढ़ाई करने वाले एडमंडहेलरी के साथी शेरपा तेनसिंह के पिता का यह दावा था कि उन्होंने 16 हजार फीट की ऊँचाई पर चुरयो इलाके में बकरियाँ चराते समय हिम मानव को आँखों से और निकट से देखा है। उनके कथनानुसार इस प्राणी का सीमेन्ट जैसा रंग, लम्बी नाक, पंजे डेढ़ फुट, आंखें छोटी, बाल तीन से पाँच इंच तक के होते हैं। वह शाकाहारी भी हैं और माँसाहारी भी। लकड़ियाँ इकट्ठी करना और गड्ढों में पत्थर फेंकना उसका प्रधान मनोरंजन है। नेपाल, सिक्किम और भूटान के लोगों ने अपने−अपने क्षेत्रों में जिस तरह के हिम मानव देखे हैं उनकी आकृति में थोड़ा बहुत अन्तर पाया है तदनुसार उसकी चूटी, भीते और थेलमा जातियाँ बताई जाती हैं इसमें चूटी सबसे अधिक विशाल और बलवान होता है।
नेपाली इतिहासकार नरहरिनाथ ने अपने एक लेख में हिम मानव का आँखों देखा वर्णन छपाया था। उसके साथ ही उनने वे फोटो भी छपाये जो उन्होंने स्वयं खींचे थे। उनके कथनानुसार हिम मानव की ऊँचाई 11 फुट थी। छाती तीन फुट चौड़ी। वह मनुष्य से बहुत कुछ मिलता−जुलता है। शरीर पर बालों की अधिकता ही मानव और हिम मानव के बीच प्रधान अन्तर है। वह मनुष्य देखकर डरता नहीं वरन् उपेक्षापूर्वक दृष्टिपात करके अपने काम में लगा रहता है।
तिब्बती लामा छेभेद के मथ में एक अस्थिपंजर रखा हुआ है जिसकी विशेष पर्वों पर तान्त्रिक पूजा होती है। बताया जाता है कि यह किसी पवित्रात्मा हिम मानव का है जो उस लामा की समय−समय पर अदृश्य सहायता करता रहा। इस अस्थिपंजर की विशालता को देखते हुए उस क्षेत्र में हिम मानव के अस्तित्व की पुष्टि होती है।
विकास का क्रम अनवरत गति से अग्रगामी होता चला आया है। इसलिए हमारा मार्ग−दर्शन भूतकाल नहीं कर सकता। प्रगति के लिए हमें भविष्य की उज्ज्वल कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ेगा भले ही वे अभी मूर्तिमान होकर हमारे सामने न आ पाई हों।
पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार 35 करोड़ वर्ष पहले हमारे पूर्वज अमीबा और मछली जैसे छोटे जल−जन्तुओं के रूप में थे। 27 करोड़ वर्ष पहले वे धरती और पानी दोनों में रहने लायक बने। 20 करोड़ वर्ष पहले वे सरीसृप थे। 7 करोड़ वर्ष पहले वे स्तनपायी बने थे।
मनुष्य आकृति के प्राणी अब से 5 लाख वर्ष पूर्व बने। फिर भी वे आज के मनुष्य की आकृति एवं प्रकृति से बहुत भिन्न थे। वन मानुष जाति के बन्दरों में उन्हें रखा जा सकता है। ‘पेकिन’ जिसे आदि मानव कहा जाता है विचित्र आकृति का था। कनपटिया बहुत चौड़ी, भवों के नीचे की हड्डियाँ बेडौल उभरी हुई, ठोड़ी नदारद, उसका सही चित्र बनाया सके तो डरावना ओर घिनौना प्रतीत होगा। पुराने जमाने के ‘कायोट’ और आज के भेड़िये में असाधारण अन्तर था। यह अन्तर कई दृष्टियों से बढ़ा और घटा है। पुराने महागज और सरीसृप आज के हाथी और गिरगिट की तुलना में बहुत गुने बड़े थे। इसे विपरीत पुराने ज्ञानकौशल- उपकरण और साधनों में इस समय तक अत्यधिक विकास हुआ है। एक ओर घटोत्तरी दूसरी और बढ़ोतरी का अपना क्रम चलता रहा है। इन दोनों ही पहियों पर टिका प्रगति रथ इधर−उधर के झकझोरे खाता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा है।
‘प्रागैतिहासिक’ काल के ‘प्युमा’ और आज के विलाव में जितना अन्तर है। सम्भवतः आज से पाँच हजार वर्ष पश्चात के मनुष्य में उतना ही अन्तर होगा। बुद्धि और साधनों में जो असाधारण अभिवृद्धि हो रही है उसके माध्यम से प्रगति की दर अब कहीं अधिक तेज हो चली है। जो कार्य पिछले पाँच लाख वर्ष में हुआ है उतना ही रास्ता भविष्य में पाँच हजार वर्ष के भीतर नापा जा सकेगा। भावी 200 पीढ़ियों में हम उतना चल लेंगे जिसकी तुलना में पिछली 5 लाख वर्ष की प्रगति को तुच्छ ठहराया जा सके।
भविष्य में मनुष्य कैसा बनेगा? इसका उत्तर उसकी इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए ही दिया जा सकता है। यदि चिन्तन का प्रवाह वर्तमान स्तर का ही बना रहा और पहल जीवशास्त्रियों के हाथ रही तो नये सिरे से जीवकोषों का ढालना आरम्भ करेंगे और ऐसा मनुष्य पैदा करेंगे जो अन्तर्ग्रही परिस्थितियों में भी अपना निर्वाह कर सके। वर्तमान मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति को विज्ञान के आधार पर ऐसे मोड़ दिये जा सकते हैं जो भावी परिस्थितियों के साथ सुविधापूर्वक ताल−मेल बिठाये रह सके। उसका शरीर ही नहीं मन भी बदला जा सके, अब इतनी शक्ति विज्ञान के हाथों आ गई है और वह उसका उपयोग समस्त मानव जाति के साथ सत्ताधीशों की सहायता से बलपूर्वक भी कर सकता है। वर्तमान स्तर के मनुष्यों को हटाकर उस स्थान पर नई जाति का मनुष्य भी बनाया जा सकता है।
ब्रिटेल के जीव शास्त्री जेम्स डेनियले ने न्यूयार्क में बी.बी.सी. को दी गई एक भेंट में कहा− कृत्रिम जीव कोष बनाने की सफलता प्राप्त करने के उपरान्त अब निकट भविष्य में यह सम्भव हो जायगा कि मनुष्य के डिजाइन किये हुए प्राणी उत्पन्न किये जा सकें। उनकी आकृति एवं प्रकृति लगभग वैसी ही होगी जैसी कि निर्माणकर्ता चाहेंगे। ऐसे मनुष्यों में ढालना सम्भव हो जायेगा जो अन्य ग्रहों के वातावरण में जीवनयापन कर सकें। जेम्स डेनियले ने एक प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा कि अच्छा तो यह है कि हमारी खोजें नये प्राणी बनाने की दिशा में चलने की अपेक्षा वर्तमान प्राणियों या मनुष्यों की नस्ल सुधारने की ओर अधिक ध्यान दिया जाय।
वंश परम्परा में मात्र शरीर गत कोशिकाएं ही अपनी भौतिक विशेषताओं के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी खिसकती हैं अथवा स्वभाव भी साथ चलता है, इसका प्रयोग कुछ समय पूर्व अमेरिका के वेलर विश्वविद्यालय में हुआ है। डॉ. ज्योजर्स अंगर ने अपनी प्रयोगशाला में कुछ चूहे पाले। उन्हें अंधेरे में बिजली के तारों के झटके का खतरा उत्पन्न करके उन्हें डराया गया और प्रकाश में रहने की आदत डाली गई। चूहे झटकों के डर से अंधेरे में नहीं जाते थे और प्रकाश में रहते थे। यह आदत उन्हें तीन पीढ़ियों में पूरी तरह अभ्यस्त हो गई।
इन चूहों के मस्तिष्क से स्मृति रसायन निकालकर उन्होंने अन्य साधारण चूहों के शरीर में प्रवेश किया फलस्वरूप वे चूहे भी अँधेरे में जाने से डरने वाले और प्रकाश पसन्द करने वाले बन गये। मस्तिष्क से निकाले गये इस रसायन का नाम ‘स्कोटाफोविन’ रखा गया। चूहों के बाद यह प्रयोग अन्य छोटे जीवों पर किया गया तो पाया गया कि स्वभाव की विशेषताएं भी रासायनिक प्रक्रिया में फेर बदल करने से सम्भव हो सकती हैं। एक प्राणी के मस्तिष्कीय तत्व दूसरे के शरीर में प्रवेश कराये जा सकते हैं और उसकी प्रकृति में अभीष्ट परिवर्तन लाया जा सकता है। वंश परम्परा में भी यह सिद्धान्त बहुत हद तक काम करता है।
चूहों का प्रयोग मनुष्यों पर हो सकता है। उसकी इच्छाएं आदतें और चेष्टाएं उस प्रकार की बनाई जा सकती हैं जो वैज्ञानिकों ओर सत्ताधीशों को पसन्द हों। कहना न होगा कि अब राज सत्ता और विज्ञान की सम्मिलित शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई है कि उनकी संयुक्त शक्ति का सामना निरीह जन शक्ति अपनी बहुसंख्या के बावजूद कदाचित ही कर सके।
‘अमेरिकन रिपोर्टर’ पत्र के अनुसार व्रिसवेन के जीव विज्ञानियों ने कुत्ते की ऐसी जाति तैयार की है जो अपनी नस्ल में सबसे छोटी है। इन कुत्तों की ऊँचाई 7 सेन्टीमीटर− लम्बाई 25 सेन्टीमीटर और वजन सवा किलो है। से ओवरकोट की जेब में बिठाकर कहीं भी ले जाया जा सकता है इसलिए उसे पाकिट ऐडीशन अथवा मिनी कहा जाने लगा है।
अमेरिका में कुत्ते पालने के शौकीन बहुत हैं, पर वहाँ स्थान की कमी− उनके खाने आदि का खर्च− काम करने के लिए जाने के बाद सूने मकान में उसे रहने में कठिनाई आदि कठिनाइयों के कारण वह इच्छा उन्हें मन मसोस कर मारनी पड़ती है। अब इस मिनी कुत्ते से वह समस्या हल हो गई। उसे कम जगह में− कम खर्च में पाला जा सकेगा और कहीं भी साथ ले जाया जा सकेगा।
अन्न, वस्त्र और निवास की कमी का ध्यान रखते हुए मनुष्यों की भावी नस्ल छोटे कुत्ते की तरह ‘मिनी’ भी बनाई जा सकती है, जब बिजली आदि शक्तियाँ श्रम करने के लिए मौजूद हें तो फिर मानवी श्रम की क्यों और क्या आवश्यकता पड़नी चाहिए? यदि छोटे आकार के आदमी अधिक संख्या में धरती पर रह सकते हैं तो हिम मानवों जैसे दैत्यों को क्यों जगह घेरने और खुराक नष्ट करने दी जाय? यह तर्क भी समय संगत प्रतीत होता है।
समय ही बतायेगा कि प्रधानता भौतिकवाद की रहती है या अध्यात्मवाद की। इन दिनों दोनों पक्षों में रस्साकशी चल रही है। प्रबुद्ध अध्यात्म भी अब मनुष्य जाति को विनाश के सर्वभक्षी संकट में से निकालने के लिए अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए कटिबद्ध हो रहा है। भले ही उसकी विशालकाय प्रयोगशालाएं दृष्टिगोचर न हों पर निश्चेष्ट वह भी नहीं हैं। जबकि मानवी भाग्य एवं भविष्य का भला−बुरा निपटारा होने की घड़ी सामने है तो देव पक्ष की सत्ता भी निष्क्रिय नहीं बनी रह सकती है। मनुष्य के ईश्वर कृत सनातन रूप को अक्षुण्ण और परिष्कृत बनाये रखने के लिए अध्यात्म शक्तियाँ भी दृश्य या अदृश्य रूप से अपना काम कर रही हैं। अदृश्य जगत में बना हुआ देवासुर संग्राम अभी भी सूक्ष्मदर्शी आंखें देख सकती हैं।
यदि अध्यात्म शक्ति विजयी हुई तो मनुष्य ‘मिनी’ नहीं महान बनेगा। तीव्र परिवर्तनों की वर्तमान गति उसे महामानव− अति मानव भी बना सकती है। महर्षि अरविन्द निकट भविष्य में मनुष्य में ऐसे अवतरणों की सम्भावना देखते थे जो दिव्य शक्ति यों से सम्पन्न होगा जिसकी चेतना देव स्तर की होगी, जो इस धरती पर स्नेह और सौजन्य की अमृतधारा बहाने और स्वर्ग का वातावरण इसी अपने संसार में बना सकने में समर्थ होगा। यदि मानवी विवेक जग पड़ा, तो सम्भावना इसी प्रकार की अधिक है।