Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म तत्व की अखंडता
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कबीर दास से किसी ने पूर्णता की परिभाषा पूछी कबीर बोले− “लाली मेरे लाल की, जिसे देखूँ तित लाल। लाली देखन में गई, मैं भी हो गई लाल॥”
संत कवि तुलसीदास ने भी सियाराम मय सारे संसार को कहा है। हम स्वयं ब्रह्म के एक अंश हैं और पूर्ण हैं।
अग्नि का स्वरूप प्रकाश है। उसके ऊपर राख की परत जम जाने पर, उसका असली स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ता। वह मात्र राख की ढेरी मालूम पड़ता है। लेकिन जैसे ही ऊपर का आवरण हटता है, वैसे ही प्रकाश पुञ्ज दिखाई पड़ते लगता है।
मनुष्य के ऊपर भी अहंकार, काम, क्रोध, मद, मत्सर का आवरण चढ़ा हुआ है। इस आवरण के कारण उसका असली स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता। मनुष्य देवस्वरूप है, आनन्द−स्वरूप है अजर और अमर है। गीता में भी भगवान ने आत्मा को अविनाशी कहा है।
पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर अपनी शक्तियों का अनन्त स्त्रोत हमेशा बहाते रहते हैं। अपूर्णता की स्थिति में पड़े हुए मानवों के लिए उनका वरदान और प्यार सदैव मिलता रहता है। पूर्ण ब्रह्म अपने पूर्ण मानव का सेचन करते रहते हैं।
सेचन−क्रिया द्वारा मनुष्य अपने पूर्ण पिता से अनुदान प्राप्त कर पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है। उसकी परिणति पूर्ण में लीन हो जाने में है।
मनुष्य पूर्ण है और पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। सारा ब्रह्मांड अणु के रूप में घूम रहा है। ब्रह्म का छोटा स्वरूप अणु सर्वत्र नजर आ रहा है। अणुओं के सम्मेलन से पदार्थ का स्वरूप बनता है। मानव शरीर भी अणुओं से निर्मित है। ब्रह्म अणुरूप में हैं और हमारा शरीर अणुओं का समूह है, इसलिये हम स्वयं प्रभुमय हो गये।
अध्यात्म हमें उसी महानता की ओर चलने का संकेत करता है। जब हमारे रोम−रोम में, नस−नस में, आँख−कान, मन और मस्तिष्क में तथा विचारों में ब्रह्म−सत्ता दिखाई देने लगे, तभी हम अध्यात्मवादी बन सकते हैं। निरहंकार होकर अपने कर्तव्यों का पालन करने से हममें अपार शक्तियाँ प्रकट हो जायेंगी।
पूर्णता की प्राप्ति अपने सहज−धर्म के पालन करने में हैं। मनुष्य−जन्म धारण करने के पहले ही स्व−धर्म की स्थापना हो गई रहती है। जन्म से पूर्व माता−पिता तथा समाज हमारे लिये तैयार रहता है। अतः माता−पिता ओर समाज के प्रति हमारा स्वधर्म पहले से तैयार है। इसके प्रति किया गया कर्त्तव्य हमें ब्रह्म के निकट पहुँचा देता है।
अनन्त ब्रह्म से निकले हुए मानव ने अपने को सीमाबद्ध कर लिया है, इसी से उस अनन्त सुख को प्राप्त नहीं करता। नदी का जल जब तक समुद्र में मिल जाने के लिए उतावला रहता है, तब तक उसमें गति और तेज रहता है। लेकिन जब वह झील या तालाब का रूप धारण कर लेता है तो उसकी गति रुक जाती है और उसमें सड़न पैदा हो जाती है। मनुष्य ने अपने को सीमित बन्धनों में बाँध लिया है जाति, देश, सम्प्रदाय के घेरे में घिरा मनुष्य पूर्ण ब्रह्म को पा नहीं सका। इन हीन−विचारों के कारण उसे अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं।
शरीर को प्रधानता न देकर इसमें बैठी हुई आत्मा को पहचानना आवश्यक है। आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। परमात्मा का अंश होने से आत्मा भी उसी तरह शक्ति वान, तेजवान और सत्यवान हैं, जैसा परमात्मा है। इसलिये आत्मा की अमरता को हम सहज जान सकते हैं। माया−मोह− अज्ञान के कारण हम अपने को पहचान नहीं पाते। अतः पूर्णता की प्राप्ति से पूर्व आत्मबोध एवं आत्म−तत्त्व की अखण्डता को समझना आवश्यक है।