Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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अन्तर्ग्रही आदान−प्रदान की तैयारी
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अब तक जाने जा सके ब्रह्मांड का विस्तार 10 अरब प्रकाश वर्ष माना जाता है और उसे उतना ही, पुराना कहा जाता है। अपनी पृथ्वी जैसी स्थिति के ग्रह इस समस्त ब्रह्मांड में 100,000 अरब माने जाते हैं। इनमें से एक हजार पीछे एक ऐसा जरूर होगा जिनमें जीवन विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ मौजूद हों। उनमें से भी एक हजार पीछे एक ग्रह जरूर ऐसा होगा जिसमें मनुष्य जैसे समुन्नत प्राणियों का अस्तित्व हो। यदि यह कल्पना सही है तो कहा जा सकता है कि ब्रह्मांड में 10 करोड़ ग्रह ऐसे होने चाहिए जिनमें बुद्धिमान प्राणी निवास करते हों। पृथ्वी पर जिस प्रकार के अणु परमाणु पाये जाते हैं उन्हीं से मिलते जुलते अन्य ग्रहों में भी हैं। शीत ताप जहाँ भी मध्यवर्ती होगा वहाँ निश्चय ही प्राणियों की उत्पत्ति होने लगेंगे और क्रमशः अधिकाधिक विकसित होते चले जायेंगे।
आर्थर क्लार्क की “टू थाउजेन्ड वन ए स्पेस आँडिसी”− एच.सी. वेल्स की “दी वार आफ दी वर्ल्डस” क्लिफर्ड सिमैक की “ इमिग्रैन्ट”− फ्रेड होयल की “फिफ्रप्लैनेट”− एडगर राइसवरी की “ग्रीन मैंन फ्राममार्स” जैसी पस्तकों में प्रस्तुत प्रतिपादन से यह सहज ही विश्वास होता है कि अनंत ब्रह्मांड में अनेकों में समुन्नत जीवन का अस्तित्व अवश्य होगा। जियूलवर्ग एडगर एलन, जेम्स ओव्रिएन्स, कार्ल सागन आइजेक आसियोव आदि विद्वानों ने कल्पना और तर्कों के आधार पर ही अन्तर्ग्रही जीवन के सन्दर्भ में अनुमान लगाया है इन मनीषियों ने ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये हैं तो भी जो सम्भावनायें और तथ्य प्रस्तुत किये हैं उपेक्षणीय नहीं हैं।
डॉ. फ्रेड होयल ने एक पुस्तक लिखी है “ऑफ मेन एन्ड गैलेक्सीज” उसमें उन्होंने बताया है कि अपनी आकाश गंगा में अन्तर्ग्रही सन्देशों के आदान प्रदान की कोई एक लाख रेडियो सञ्चार धारायें बहती हैं जिनसे कुछ महत्वपूर्ण ग्रह परस्पर कई तरह के आदान−प्रदान करते हैं। इस संचार व्यवस्था में धरती निवासी भी एक दिन भागीदार होकर रहेंगे।
रूस के नक्षत्र विज्ञानी एन.एस. ब्लारदेशेव ने बताया है कि “क्वासर सी.टी.एन. 102” में पृथ्वी पर जो रेडियो संकेत निरन्तर आ रहे हैं वे निश्चित रूप से किसी बुद्धिमान जाति के द्वारा प्रेषित हैं। उनमें पूर्ण नियमितता के साथ “धड़कन” भी। 100 दिनों के अन्तर से 10 वर्षों के अन्तर ठीक एक ही प्रक्रिया का बार−बार दुहराया जाना यह बताता है कि इस क्रमबद्धता के पीछे कोई सोद्देश्य प्रयास काम कर रहे हैं।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की मुलाई रेडियो एस्ट्रोनोमी आवजरवेटरी के अधिकारी मार्टिन रायल ने कि सी ग्रह के नियमित रूप से धरती पर आने वाले रेडियो सन्देश सुने हैं। यह निश्चित समय पर क्रमबद्ध शृंखला के साथ आते हैं। श्री रायल का कथन है कि वे “पर्ल्स” तारक से आते हैं और बताते हैं कि कोई विकसित सभ्यता के बुद्धिमान प्राणी पृथ्वी वालों के साथ संपर्क साधने में प्रयत्नशील हैं।
आर्मेनिया (रूस) की ब्यूरोकान एस्ट्रोफिजीकल आवजरवेटरी के दर्जनों मूर्धन्य खगोल विज्ञानी सन् 1971 से इस प्रयास में जुटे हैं कि अन्तर्ग्रही सन्देशों का आदान−प्रदान किसी प्रकार सम्भव हो सके। इसी प्रकार अमेरिका के ग्रीन बैंक नेशनल रेडियो आवजरवेटरी द्वारा भी ऐसे ही प्रयास चल रहे हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के डॉ. लियोडमोज का यह विश्वास है कि हम भले ही लम्बी अन्तर्ग्रही यात्रायें न कर सकें पर समुन्नत सभ्यताओं वाले ग्रहों के साथ रेडियो संपर्क अवश्य स्थापित कर सकेंगे।
जो सूचनायें अन्य ग्रहों से हमारे उपकरणों ने प्रस्तुत की हैं उनके आधार पर मोटा निष्कर्ष यह निकाला गया है कि अपने सौर मण्डल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं जीवन की सम्भावना नहीं है। पर यह निष्क्रिय सही ही हो इसकी कोई गारन्टी नहीं। मौसम की खोज खबर लेने वाले उपग्रह अक्सर आकाश में उड़ते रहते हैं। उन्होंने पृथ्वी के जो चित्र भेजे हैं उनके आधार पर कई वैज्ञानिकों ने ठीक वैसे ही निष्कर्ष निकाले हैं और अन्तरिक्षवेत्ताओं को चुनौती दी है कि इन चित्रों का वैसा ही निष्कर्ष उन्हीं के आधारों पर निकालें जैसा कि अन्य ग्रहों के सम्बन्ध में निकाला गया है। इससे यही सिद्ध होगा कि पृथ्वी पर कोई जीवन नहीं है। वहाँ जीवित प्राणियों के रहने की कोई सम्भावना नहीं है। यह चुनौती प्रस्तुत करने वालों में कार्नेल विश्वविद्यालय के खगोलवेत्ता प्रो. कार्ल सागन अग्रणी हैं वे चुनौती देते हैं। कि इन उपग्रह प्रेषित चित्रों के आधार पर कोई यह साबित करे कि धरती पर भी जीवन हो सकता है। जिस तरह जीवन रहते हुए भी धरती के प्रस्तुत उपकरणों ने यही निर्जीवता दर्शाई है उसी तरह उनकी खोज खबर को इतना प्रमाणिक नहीं माना जा सकता कि सौर मण्डल में अन्यत्र कहीं जीवन की सम्भावना का स्पष्टतया खण्डन किया जा सके।
मंगल पर जो परिस्थितियाँ हैं उनमें धरती से भेजे हुए जीवन भी जी सकते हैं इस तथ्य का प्रतिपादन कैलीफोर्निया की एक्सरिसर्च लैबोरेटरी के डा. सीरल पोन्नमपेरुया तथा डॉ. हैरल्ड क्लीन ने किया है। उन्होंने “रिव्यू आफ बायोलॉजी” के अक्टूबर 1970 के अंक में एक तर्कपूर्ण लेख छपाया है जिसमें यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी पर उन जटिल परिस्थितियों में जीवन−यापन करने वाले प्राणी मौजूद हैं जैसे कि मंगल ग्रह पर हैं। पृथ्वी पर 160 से लेकर 2050 तक तापमान में जीवित रहने वाले प्राणी मौजूद हैं जब कि मंगल ग्रह पर वह न्यूनतम 850 और अधिकतम 1120 ही आँका गया है। उबलते पानी और तीव्र ऐसिडो में भी प्राणी पाये गये हैं। मंगल पर अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन, वायुमण्डलीय घनत्व तथा आक्सीजन के अभाव को देखते हुए जीवन के अस्तित्व से इनकार किया गया है पर इन तीनों ही परिस्थितियों में जीवन के फलने−फूलने की पूरी−पूरी गुँजाइश है। इस प्रतिपादन के पक्ष में सबसे मजबूत दलील यह है कि पृथ्वी पर अब से 4.6 अरब वर्ष पहले जीवन आरम्भ हुआ, उस समय तक यह अग्नि पिण्ड थोड़ा ही ठण्डा हो पाया था। उस समय सिर्फ अमोनिया, मीथस हाइड्रोजन और भाप के सघन बादल ही आकाश में छाये हुए थे। सूर्य की पराबैगनी किरणों की वर्षा से और ज्वालामुखी विस्फोटों की गर्मी से सर्वत्र बिखरे अणु टूट−टूट कर विभिन्न रूपों में परिणत हुए। उन्हीं से अमीनों अम्ल एवं कार्बनिक पदार्थ बने जिनसे जीवन का प्रादुर्भाव सम्भव हो सका। इन्हीं तत्वों का संयोजन डी.एन.ए. के रूप में सामने आया। प्रोटीन की रचना हुई और जीवित कोशिकाओं की हलचल उत्पन्न हुई। उसी का क्रमिक विकास विभिन्न जीव−जन्तुओं के रूप में सामने आया। यह पृथ्वी पर जीवन उद्भव का इतिहास अन्य ग्रहों पर भी दुहराया जा सकता है। शिकागो विश्वविद्यालय के जीव विज्ञानी स्टेनले विलर− फलोरिया विश्वविद्यालय के सिडनी फोक्स, ह्यू स्टन विश्वविद्यालय के जुआर जोरो इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि अन्य ग्रहों में इन दिनों जो परिस्थितियाँ हैं उनमें भी जीवन विकास की सम्भावना है भले ही पृथ्वी निवासियों से भिन्न प्रकार का ही क्यों न हो।
संसार के विभिन्न भागों में अन्तरिक्ष से टूटे हुए उल्का पिण्डों के जो अवशेष पाये गये हैं उनमें कार्बोनेशियस काड्राइट जैसे अमीनो अम्ल मिले हैं साथ ही प्राणियों के फासिलपिंजर भी उनमें देखे गये हैं। सन् 1970 में आस्ट्रेलिया में गिरी उल्का से 17 प्रकार के अमीनो अम्ल पाये गये थे। मैसाचुसेट्स इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के एक प्रतिवेदन में शनि के तथा बृहस्पति के उपग्रहों में जीवन होने की सम्भावना की गई है।
जीवन के स्वरूप और आधार के बारे में हम पृथ्वी निवासियों की जो मान्यताएं हैं वे अपने लोक की स्थिति का अन्वेषण करके बनाई गई हैं। आवश्यक नहीं है कि अन्य लोगों में भी यही आधार काम करे या जीवन का सही स्वरूप हो। जिस तापमान में अपने यहाँ जीवन विकास होता है आवश्यक नहीं कि अन्य ग्रहों की स्थिति में भी उतना ही तापमान आवश्यक हो। अतिशीत और अतिउष्णता के मध्य भी जीवन की स्थिति अपनी पृथ्वी पर असम्भव मानी जाती है किन्तु अन्य तारकों में ऐसे जीव भी हो सकते हैं जो हमारी दृष्टि में असह्य वातावरण में भी भली प्रकार फल−फूल रहे हों।
अब धरती के विज्ञानी भी मानने लगे हैं कि अन्य परिस्थितियों में भी जीवन का विकास एवं परिपोषण हो सकता है। पृथ्वी पर कार्बन, ऑक्सीजन, कार्बन डाई आक्साइड और पानी की उपस्थित में ही जीवन पलता है सो ठीक है पर अब यह भी स्वीकार कर लिया गया है कि “सिल्किन” भी कुछ अन्य यौगिकों के साथ मिल कर जीवन का आधार हो सकता है। पानी की तरह द्रव अमोनिया, द्रव मीथेन हाइड्रोजन सल्फाइड भी काम दे सकते हैं। आक्सीजन की जरूरत गन्धक भी पूरी कर सकता है।
हम कई ग्रहों के बारे में यह जानते हैं कि वहाँ बहुत ठंडक अथवा गर्मी होनी चाहिये पर यह अनुभव सही नहीं है। पृथ्वी के इर्द−गिर्द हवा और धूप की मजबूत छतरी तनी हुई है वह पृथ्वी पर आने वाली सूर्य किरणों को रोक कर उपयुक्त गर्मी बनाये हुए है। इस छतरी की एक परत में अतिशीत की और एक परत में अति ताप की स्थिति है। यदि अन्य किसी ग्रह के निवासी पृथ्वी का पता लगता रहे हों और उनके हाथ इन दो परतों में से जो भी लगेगी उसी के आधार पर यह मान बैठेंगे कि इस लोक का तापमान इसी स्तर का है, जबकि वस्तु स्थिति इससे सर्वथा भिन्न प्रकार की होगी। धरती पर तापमान जीवन के उपयुक्त सह्य है। ठीक इसी प्रकार अन्य ग्रहों में वहाँ के निवासियों के लिए उपयुक्त तापमान किसी गैसीय छतरी में ढका छिपा हो सकता है। वहाँ की स्थिति के बारे में हमें बहुत ही कम जानकारी है ऐसी दशा में किसी उचित निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है। इन परिस्थितियों में हम यह कल्पना कर बैठें कि अन्य ग्रहों में जीवन नहीं होगा, सर्वथा अनुचित है। सौर मण्डल भर की हमें थोड़ी जानकारी है। यदि इस छोटे क्षेत्र में जीवन नहीं भी हो तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि पृथ्वी ही एक मा सजीव है और अन्यत्र सर्वत्र निर्जीवता और निस्तब्धता का साम्राज्य है। कभी यह कहा जाता था कि अंतर्ग्रही उड़ान की गति अधिक से अधिक प्रकाश की गति हो सकती है। ब्रह्मांड विस्तार को ध्यान में रखते हुए इस मन्द गति से अन्य ग्रहों की खोज खबर ला सकना अति कठिन है। उतनी लम्बी उड़ान के लिए ईंधन में चलने से वे यान अत्यन्त भारी हो जायेंगे। फिर उतने लम्बे समय तक मनुष्य जीवित नहीं रह सकेंगे। उतने दिन तक खाने−पीने की सामग्री लेकर चलना भी सम्भव नहीं।
उस सभी कठिनाइयों का हल अब मिलता जाता है। लम्बी मंजिल पार करने के लिये अपने यानों को थोड़ी ही दूर उड़ाना पड़ेगा उसके बाद अभीष्ट ग्रह की आकर्षण शक्ति में जब प्रवेश पा लिया जायगा तो अपने यान को उड़ने की जरूरत न पड़ेगी। मंजिल स्वयं ही खिंचती हुई अपने पास चली आयेगी अर्थात् वे ग्रह स्वयं ही हमें खींचने लगेंगे। अपने यान के इंजन बन्द कर दिये जायेंगे किन्तु यात्रा क्रम मजे में चलता रहेगा। ऐसी दशा में अधिक ईंधन लेकर चलने की जरूरत न पड़ेगी। शीत निद्रा में सुला कर यात्री को दीर्घजीवी बनाया जा सकेगा और अन्न−जल तथा वायु की जितनी मात्रा यान में भरी जायगी उसी को बार−बार शुद्ध करके प्रयुक्त होने योग्य बनाया जाता रहेगा और उतनी ही सामग्री से मुद्दतों तक गुजर−बसर होती रहेगी। अतएव निकट भविष्य में उन सभी कठिनाइयों को सरल बना लिया जायगा जो इन दिनों अतीव कठिन और निराशाजनक प्रतीत होती हैं।
ब्रह्मांड शोध कार्य के उपयुक्त एक अति महत्वपूर्ण विज्ञान हाथ में आया है− रिलोटिविस्टक वेलेसिटी अर्थात् आपेक्षित तीव्र गति। इस प्रकार पर पाँच हजार वर्षों की यात्रा दस वर्ष में ही की जा सकेगी। इस विज्ञान का विवेचन करते हुए विज्ञानी डोनाल्ड ने उसे गुरुत्वाकर्षण का उल्लंघन कहा है। उड़न तश्तरियों का दूरवर्ती ग्रह नक्षत्रों से धरती पर आना−जाना इसी आधार पर सम्भव है।
पृथ्वी द्रुत गति से अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य की परिक्रमा करती हुई बिना पंख के उड़ती है इस गति के फल स्वरूप उसमें गुरुत्वाकर्षण पैदा होता है। धरती की चीजों को यह गुरुत्वाकर्षण ही बाँधे रहता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम सब भी घूम रहे हैं। यदि गुरुत्वाकर्षण न होता तो यह गति हमें उछाल कर ब्रह्मांड में ऐसा फेंक देती कि फिर कभी पता ठिकाना ही न मिल सके।
यदि किसी वस्तु का अपना गुरुत्वाकर्षण हो और उसका वेग पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को निरस्त कर सके तो फिर वह अनन्त ब्रह्मांड में कहीं भी सरलतापूर्वक आ जा सकता है। पृथ्वी से जो राकेट अन्तरिक्ष में फेंके जाते हैं। उनमें भारी मात्रा में ईंधन खर्च करने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि गुरुत्वाकर्षण के दबाव से संघर्ष करते हुए वे ऊपर उठ सकें। यदि किसी यान में अपना गुरुत्वाकर्षण हो तो फिर उसकी गति अन्तरिक्षीय स्तर की होगी। तब दिल्ली से अमेरिका पहुँचने के लिए केवल पाँच मिनट पर्याप्त होंगे। अभी तो हर यान को अन्तरिक्ष में अपनी ही शक्ति से कि सी दिशा में आगे बढ़ना ही पड़ता है वह ठहर नहीं सकता। यदि ठहर जाय तो कोई न कोई ग्रह नक्षत्र उसे अपनी आकर्षण शक्ति से पकड़कर घसीट लेगा। ठहरना उसी यान के लिए सम्भव हो सकता है जिसमें अपना गुरुत्वाकर्षण हो। यदि ऐसा कोई यान हो तो उसे पृथ्वी की पकड़ से बाहर निकलने के लिए तो थोड़ा जोर लगाना पड़ेगा। पीछे स्वतन्त्र होकर जब वह कहीं ठहरेगा तो वहाँ कि सी ग्रह की आकर्षण शक्ति उसे अपनी ओर अपनी शक्ति से बुलाने लगेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि उस यान को वहाँ तक चलना पड़ेगा, जहाँ ठहरने पर वह इच्छित ग्रह की ओर सीधा जाने लगे। बस वहाँ से वह मंजिल की ओर चलेगा। यह कहने की अपेक्षा यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मंजिल उसकी ओर चलेगी। बस यात्रा तुर्त−फुर्त पूरी होगी। यह सफलता मिलने पर चन्द्रमा पर पहुँचने के लिए ‘साढ़े तीन घण्टे, शुक्र के लिए 36 घण्टे’ मंगल के लिए 48 घण्टे और बृहस्पति तक पहुँचने के लिए 6 दिन पर्याप्त होंगे। यह है विलोम गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, उसी का विकास करने में रिलेटिविस्टिक वैलोसिटी की गहरी शोध की जा रही है ऐलेग्जेण्डर सेवेरस्की और वर्क हार्ड हीम इस शोध के अग्रणी माने जाते हैं। विभिन्न देशों की अनुसन्धान शालाएं इस दिशा में अनेकानेक प्रयोग परीक्षण करने में संलग्न हैं।
लम्बे वर्षों में पूरी हो सकने वाली यात्रा के लिए यह तरीका ढूँढ़ निकाला गया है कि अन्तरिक्ष यान के रवाना होते ही “हाइवर नेशन” प्रक्रिया द्वारा यात्री को शीतल करके गहरी निद्रा में सुला दिया जाय और जब लक्ष्य स्थान निकट आवे तब स्वसंचालित प्रक्रिया उसे गर्मी पहुँचाकर जगा दे। ऐसा करने से उस यात्री पर समय का प्रभाव न पड़ेगा। वह जिस आयु का सोया था उसी आयु का शरीर लेकर जगेगा। लौटने पर भी इसी पद्धति को अपनाया जायेगा फलतः सैंकड़ों वर्षों की लम्बी अन्तरिक्षीय यात्रा कर लेने पर भी वह न तो बूढ़ा होगा और न मरेगा उसकी जवानी यथावत् बनी रहेगी।
मनुष्य द्वारा विसर्जित मल को कोई, फफूँदी अथवा खाने योग्य सब्जी के रूप में बदलना अब सरल हो गया है। त्यागे हुए मूत्र को शुद्ध करके पेय बना लिया गया है। छोड़ी हुई श्वाँस से विषैली वायु को प्राण वायु के रूप में पुनः बदल देने की विधि प्राप्त हो गई है। ऐसी दशा में अन्तरिक्षीय उड़ानों में अन्न, जल एवं वायु की व्यवस्था करने का भी झंझट टल गया है। ऐसी अन्तर्ग्रही भाषा तैयार करने की दिशा में काफी प्रगति हो चुकी है जिसके आधार पर रेडियो संचार द्वारा अपनी परिस्थितियाँ तथा जानकारियों की सूचना अन्य ग्रह निवासियों को चित्र बनाकर दिखाई बताई जा सकें।
ब्रह्मांडीय भाषा का स्वरूप, इस प्रश्न पर विचार करने के लिए विशेषज्ञों के दो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं। इनका कहना है कि गणित सिद्धांतों के आधार पर ऐसी भाषा बन सकती है। गणित की आवश्यकता कि सी भी लोक के निवासियों को पड़ेगी ही और उसका क्रम वही 1,2,3,4,5 वाला सर्वत्र होगा। वृत्त की परिधि और उसके व्यास का अनुपात एक स्थिर संख्या होती है। इसी आधार पर ऐसी भाषा बन सकती है जिसे अन्य लोक के बुद्धिमान प्राणी समझ सकें। सन् 1961 में ड्रेक और औलिवर नामक− वैज्ञानिकों ने ऐसी भाषा की एक रूप रेखा भी तैयार की थी, यह रेडियो तरंगों पर आधारित है। हाइड्रोजन अणु से निकलने वाले विवरण को इकाई माना गया है। न तरंगों की लम्बाई पर 1261 रेडियो धड़कने भेजी जायेंगी। इस आधार पर किसी भी लोक वासियों के लिये चित्रों के आदान−प्रदान का सिलसिला चलेगा। पृथ्वी पर भी भाषा का विकास इसी चित्र प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। अभी भी जहाँ भाषा का आधार न मिले वहाँ चित्र बनाकर कही पृथ्वी वासी विचारों का आदान−प्रदान करते हैं। ब्रह्मांडीय भाषा का सिलसिला भी इसी माध्यम से आरम्भ होगा।
अन्य लोगों के साथ रेडियो संपर्क बनाने के लिये 21 से.मी. हाइड्रोजन बैण्ड उपयुक्त समझा गया है। स्काटिश वैज्ञानिकों ने सूर्य के इर्द−गिर्द एक अन्तरिक्षयान घूमते देखा है। ऐसे एप्साइलौन वाटिस तारे के निवासियों द्वारा अपने सौर मण्डल की खोज खबर लेने के लिए भेजा हुआ माना गया है। वैज्ञानिक इस प्रयत्न में हैं कि उससे संपर्क बनाकर अंतर्ग्रही आदान−प्रदान की एक नई कड़ी जोड़ी जाय।
इस सम्भावनाओं और प्रयत्नों के देखते हुए यह आशा की जा सकती है कि निकट भविष्य में ब्रह्मांड में अवस्थित बुद्धिमान प्राणी परस्पर संपर्क स्थापित करेंगे और परस्पर आदान−प्रदान की व्यवस्था बनायेंगे। सम्भवतः वे अपने अनुभवों के आधार पर एक दूसरे को यह बतायें कि संकीर्ण स्वार्थपरता में नहीं− सबके विशाल विस्तार में ही बुद्धिमान प्राणियों की हित साधना सम्भव है।