Magazine - Year 1976 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मघाती उच्छृंखलता नहीं ही अपनायें
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‘मनुष्य’ जाति का प्राणी है। प्रकृतितः वह शाकाहारी है। वनस्पति भोजी प्राणियों के दाँत चौड़े और आँतें लम्बी होती हैं, उन्हें आहार के पचाने में देर लगती है तथा सड़न का खतरा कम है, इसलिए लम्बी आँतों की आवश्यकता समझी गई और वैसा ही पेट बन गया। वनस्पति खाने के लिए-कुतरने चबाने के लिए जिस प्रकार के दाँत चाहिए वैसे चौड़े दाँत मनुष्य के हैं। माँसाहारियों की स्थिति भिन्न है। माँस चीरने-फाड़ने के लिए नुकीले दाँतों और पकड़ने कसने वाले होठों की आवश्यकता रहती है। माँस पेट में पहुँचने पर जल्दी सड़ता है-उसे जल्दी निकाल बाहर करना आवश्यक होता है, अस्तु हिंस्र प्राणियों की आंतें छोटी होती हैं। माँसाहारी और शाकाहारी प्राणियों की स्थिति में भिन्नता स्पष्ट है मनुष्य यदि अपनी शाकाहारी जाति छोड़कर माँसाहारी आदतें बदले तो प्रकृति उसके अवयवों को उसी आधार पर बदल देगी। तब हमारी आंतें छोटी हो जायेंगी और दाँत नुकीले। मल विसर्जन अब की अपेक्षा अधिक जल्दी-जल्दी करना पड़ेगा। इस परिवर्तन से वनस्पति पचाने वाले संस्थान से वंचित होना पड़ेगा यदि उभय पक्षी क्रम अपनाया गया तो दोनों में से एक भी स्तर स्थिर न रहेगा और स्थिति अधर में लटक जायगी वर्तमान नीति शाकाहार और माँसाहार को मिलाकर चलने की-प्रकृति के द्विपक्षीय वर्गीकरण में से एक को भी स्वीकार न करने से विचित्र बन जायगी। तब हमारा पेट न शाकाहार पचाने की स्थिति में रहेगा और न ठीक तरह से माँस ही हजम होगा। यदि परिवर्तन ही अभीष्ट हो तो शाकाहार छोड़कर माँसाहार को पूरी तरह अपना लिया जाय। चीते, भेड़िये, बाज, गिद्ध जैसे पशु पक्षी विशुद्ध माँसाहारी होने से अपनी शारीरिक स्थिति ठीक बनाये हुए हैं। बन्दर, गाय, घोड़े जैसे शाकाहारी प्राणी भी अपना अस्तित्व ठीक से बनाये रहेंगे। कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जो आरम्भ से ही शाक और माँस पचाने की प्रकृति लेकर आये हैं उनकी संरचना मध्यवर्ती है। पर मनुष्य पर यह मध्यवर्ती कानून लागू नहीं होता। चीता घास पर रहेगा या गाय माँस खायेगी तो उसे अपने वर्तमान स्तर को समाप्त ही करना पड़ेगा। मनुष्य की दुमुँही नीति उसके लिए अन्ततः घातक ही सिद्ध होगी।
शाकाहारी प्राणी प्रातः उठते और संध्या होते ही विश्राम करने लगते हैं। माँसाहारी दिन में पड़े सुस्ताते रहते हैं और रात्रि होते ही अपने आहार की तलाश में निकलते हैं। दोनों ही जाति वाले अपने काम करने और विश्राम करने की मर्यादा पालन करते हैं, फलतः वे अपनी शारीरिक स्थिति सही बनाये रहते हैं। मनुष्य ने दिन को रात तो उतना नहीं बनाया, पर रात्रि को दिन बनाने की दिशा में अति बरतना आरम्भ कर दिया है। बहुत रात्रि बीत जाने तक जागना, तरह तरह के आवश्यक अनावश्यक कामों में उलझे रहना, आर्थिक अथवा मनोरंजन की दृष्टि से लाभदायक हो सकता है, पर स्वास्थ्य सन्तुलन पर उसका घातक प्रभाव पड़ना निश्चित है।
प्रकृति ने प्राणियों को सुविधा साधनों के अजस्र अनुदान दिये हैं। पर साथ ही मर्यादा पालन और अनुशासन बरतने के लिए उन्हें बाध्य भी किया है। उच्छृंखलता बरत कर तत्काल तो कुछ पाया भी जा सकता है, पर अन्ततः वह बहुत ही घाटे का सौदा सिद्ध हो सकता है। मनुष्य बुद्धिमान तो है, पर प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाये रखने की सामर्थ्य उसमें नहीं है। परस्पर उच्छृंखलता बरतने की भी प्रतिक्रिया होती है फिर प्रकृति के अनुशासन को तोड़ना तो आग से खेलने की तरह है। रात्रि में देर तक जागने और तेज प्रकाश का आश्रय लेने पर हम नेत्रों की शक्ति ही नहीं गँवाते वरन् पूरे स्वास्थ्य सन्तुलन पर ही कुठाराघात करते हैं।
आहार-विहार की मर्यादाओं का पालन करने भर से हम आरोग्य और दीर्घजीवन का लाभ अति सरलतापूर्वक ले सकते हैं। विकृत आचरण अपनाकर उच्छृंखल बरतना यों सर्वत्र ही मूर्खतापूर्ण होता है, पर आहार-विहार के सम्बन्ध में अतिक्रमण की नीति अपनाना निश्चित रूप से आत्मघात का ही एक तरीका है।
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