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Magazine - Year 1976 - Version 2

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तत्परतायुक्त मनोयोग सफलता का मूल स्रोत

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किसके पास क्या वस्तु कितनी मात्रा में है, इसका कोई विशेष महत्व नहीं। महत्व इस बात का है कि जो उपलब्ध था उसका उपयोग किस प्रकार किया गया ? समझा जाता है कि यदि अभीष्ट वस्तुओं की पर्याप्त मात्रा होगी और प्रचुर साधन उपलब्ध होंगे तो अधिक सुखी रहने एवं अधिक उन्नति करने का अवसर मिलेगा। गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सही सिद्ध नहीं होती। जिनके पास प्रचुर अर्थ साधन मौजूद हैं, उनमें से भी अधिकाँश शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से पिछड़े हुए-चिन्तित, खिन्न, उद्विग्न दिखाई पड़ते हैं। इसके विपरीत कितने ही स्वल्प आजीविका वाले व्यक्ति शरीर और मन की दृष्टि से कहीं अधिक विकसित होते हैं। परिवार प्रगति के लिए भी वे आवश्यक साधन जुटाये रहते हैं। इसका एकमात्र कारण है कि उनके द्वारा उपलब्ध साधनों का सतर्कतापूर्वक सदुपयोग किया जाता है, उसका छोटा अंश भी वे बर्बाद नहीं करते।

हमारी सम्पत्ति का अधिकाँश भाग अनर्थ में या व्यर्थ में नष्ट होता रहता है। सार्थक व्यय तो बहुत थोड़ी मात्रा में हो पाता है। शरीर यात्रा के लिए उपयुक्त भोजन ही यदि तलाश किया जाय तो वह सस्ता पड़ेगा और सुलभ रहेगा। असह्य ऋतु प्रवाह से शरीर की रक्षा करने के लिए थोड़े से कपड़ों की जरूरत पड़ती है। इसमें बहुत खर्च नहीं पड़ना चाहिए। जीभ के चटोरेपन को पूरा करने के लिए अन्ट-सन्ट व्यंजन बनाने में ही बहुत-सा पैसा खर्च होता है और समय लगता है। तरह-तरह की डिजाइन के कीमती कपड़े ही खर्चीले पड़ते हैं। सस्ते दाम के और सीधी-सीधी सिलाई के कपड़ों से शरीर सभ्य सुरक्षा का प्रयोजन पूरा कर सकते हैं। पर देखा जाता है कि बहुत से लोग इन्हीं बातों पर इतना पैसा खर्च करते हैं जिसका आधा भाग सहज ही बचाया जा सकता है। उस बचत को पारिवारिक शिक्षा, ज्ञान सम्पादन, आरोग्य वृद्धि जैसे कार्यों में यदि व्यवस्थापूर्वक लगाया गया होता तो दुहरा लाभ होता। एक तो जीभ का चटोरापन पेट को खराब करके अनेक बीमारियों का जनन न करता और दूसरे भड़कीली फैशन बनाने का बचकानापन अन्य कार्यों में अपव्ययों की आदत न डालता। स्पष्ट है कि अनावश्यक सज-धज मनुष्य को ओछा, उथला एवं बाल-बुद्धि का सिद्ध करती है। उसमें उद्धत अहंकार के मोटे प्रदर्शन का भाव प्रकट होता है।

चटोरेपन और उद्धत प्रदर्शन के पीछे एक अत्यन्त भयावह पतनोन्मुखी विभीषिका झाँकती है-वह है अव्यवस्था। धन किस कार्य में कितना खर्च किया जाय और किस प्रकार सन्तुलित बजट बनाया जाय इस समस्या का समाधान करने में दूरदर्शी विवेकशीलता की आवश्यकता पड़ती है। इसके सन्तुलित, सुस्थिर एवं विवेचनात्मक दृष्टिकोण चाहिए। लिप्साओं में आतुर लोगों के पास इस स्तर का विवेक नहीं होता, अस्तु वे आवश्यक और अनावश्यक का, उपयोगी-अनुपयोगी का, भेद भूल जाते हैं और बाल-बुद्धि जिधर भी घसीट ले जाती है उधर ही हवा में उड़ने वाले पत्तों की तरह बहते चले जाते हैं।

पैसे से भी अधिक महत्वपूर्ण सम्पत्ति है-समय। खोया हुआ पैसा फिर पाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय फिर कभी लौटकर नहीं आता। जो क्षण एक बार गये वे सदा के लिए गये। धन मनुष्य कृत और समय ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति है। समय को यदि बर्बाद न किया जाय उसे योजनाबद्ध दिनचर्या के साथ पूरी तत्परता और सजगता के साथ खर्च किया जाय तो सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा कई गुना अधिक और कई गुना ऊँचे स्तर का काम किया जा सकता है। संसार के महापुरुषों एवं प्रगतिशील मनुष्यों की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि उन्होंने अपनी एक-एक मिनट को हीरे-मोतियों से तोला है और पूरी सतर्कता के साथ उनका उपयोग किया है। खाली बैठना या मन्द गति से काम करना मोटी दृष्टि से अति सामान्य दोष मालूम देता है, पर गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि यही सबसे बड़ा आत्मघाती दोष है। जिसमें यह आलस्य और प्रमाद के दुर्गुण जितनी मात्रा में घुस गये होंगे उसकी प्रगति उतने ही अंश में समाप्त हो गई समझनी चाहिए। ढीला-पोला मनुष्य वस्तुतः अपंग अथवा मृत कहने योग्य ही होता है। नोटों की गड्डी में आग लगाना बौर समय को निरर्थक कामों में नष्ट करना दो प्रकार के दृश्य हो सकते हैं, पर दोनों के आत्मघाती परिणाम एक जैसे हैं। मन्द गति से, अस्त-व्यस्त ढंग से, मनमौजी रीति से समय को नष्ट करना अपने उज्ज्वल भविष्य को अन्धकारमय बनाने का प्रत्यक्ष प्रयास है।

वस्तुओं का सही और पूरा उपयोग किया गया या नहीं। यह प्रश्न व्यवस्था वृद्धि के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। हर पदार्थ से पूरा-पूरा लाभ उठा लिया जाय, उसका तनिक भी उपयोग सम्भावना की उपेक्षा न की जाय तो हर पदार्थ दूना लाभ दे सकता है, अथवा आधे मूल्य में खरीदा हुआ सिद्ध हो सकता है। चूल्हे में जलने वाली लकड़ी अक्सर बाहर तक जलती रहती है और तवा गरम करने अथवा रोटी सेंकने में तनिक भी सहायता नहीं करती। कुशल गृह-लक्ष्मी को इस बर्बादी का ध्यान रहता है वे चूल्हे से बाहर तक बढ़ती आ रही आग को पानी डाल-डालकर बुझाती रहती हैं, इस प्रकार बहुत-सी लकड़ी बर्बाद होने से बच जाती है। असावधान महिलाएँ भोजन बनाने के बाद चूल्हा ऐसे ही पड़ा रहने देती है और जो लकड़ी शेष रह गई थी वह ऐसे ही जल जाती है। कुशल गृहिणी अधजले लकड़ी के टुकड़े बुझाकर एक ओर रख देती है और कोयलों को बीनकर ठण्डा कर लेती है। यह कोयले अँगीठी में काम आते हैं और अधजली लकड़ी दूसरी बार काम में आ जाती है। गरम चूल्हे पर पानी चढ़ाया जा सकता है और उसमें जरा-सा सोडा डालकर अधिक मैले कपड़े भिगोये, धोये जा सकते हैं। इस प्रकार चूल्हें की गर्मी का भी उपयोग हो सकता है। चूल्हे के पिछले भाग में सुराख करके उसमें जाने वाली गर्मी से दूसरी पतीली पकाई जा सकती है। जलाऊ लकड़ी गीली हो तो उसे धूप में रखकर सुखाया जा सकता है। इससे उसमें कीड़े होंगे तो वे भी निकल जायेंगे। लकड़ी का प्रसंग एक सामान्य-सा उदाहरण है। इस व्यवस्था बुद्धि को घर के हर पदार्थ के साथ जोड़ा जा सकता है। टूटे-फटे कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन, फर्नीचर आदि की मरम्मत में दिलचस्पी रखी जाय तो वे ही वस्तुएँ दूने समय तक उपयोग में आ सकती हैं। जबकि लापरवाह व्यक्ति जरा-सा पुरानापन या टूट-फूट देखकर उन वस्तुओं को ऐसे ही कूड़े की तरह फेंककर नष्ट कर देते हैं। आर्थिक दृष्टि से यह प्रत्यक्ष ही बहुत घाटा देते रहने वाली आदत है। एक-एक बूँद पानी रिसते रहने से घड़ा खाली हो जाता है। अनेक कामों में इस प्रकार की थोड़ी-थोड़ी बर्बादी होती रहे तो भी उन सबका मिला-जुला परिणाम बहुत भारी हो जाता है। देखने में तुच्छ प्रतीत होने वाली यह उपेक्षा की आदत अन्ततः बहुत हानिकारक सिद्ध होती है। यह अनावश्यक एवं अप्रत्यक्ष खर्च कई बार इतना बढ़ा-चढ़ा होता है कि घर की आधी कमाई प्रायः इसी सूराख में होकर बह जाती है। ऐसे परिवार सदा आर्थिक तंगी का-दरिद्रता का रोना रोते हुए मिलेंगे।

हर पदार्थ का सही और पूरा उपयोग करने की आदत मात्र से घर की आर्थिक स्थिति पर बहुत असर पड़ता है। जो लोग बहुत अमीर हैं उनके ऊपर असावधानी के कारण होने वाले अपव्यय का बहुत असर नहीं पड़ता, पर गरीब या मध्यवर्ती स्थिति के लोगों का तो कचूमर ही निकल जाता है। स्त्रियों को गृह-लक्ष्मी कहा गया है। यह शब्द उन्हीं के लिए सार्थक होता है जिनकी व्यवस्था बुद्धि सुविकसित है। जो समय, श्रम, मनोयोग एवं वस्तुओं का पूरा उपयोग करना जानती है, उनकी इस तत्परता का प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है। प्रत्यक्ष परामर्श देकर अथवा परोक्ष रूप से अनुकरण का आधार प्रस्तुत करके वे बच्चों को बड़ों को ऐसी ही आदत डाल सकती है। यह धन की समय की बर्बादी रोकना ही नहीं एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण के अभ्यास में उतारना है जिसके आधार पर मनुष्य बड़े-बड़े उत्तरदायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकता है। व्यवस्था बुद्धि को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रस्तुत करने वाली विभूति कह सकते हैं। जिसने इसे पा लिया समझना चाहिए कि उसे उज्ज्वल भविष्य का बहुत बड़ा आधार मिल गया।

समय का विभाजन, कार्य-पद्धति का निर्धारण, वस्तुओं का यथास्थान स्थापन व्यवस्था बुद्धि का सहज गुण है। जो साधन उपलब्ध हैं उनका अधिक से अधिक मात्रा में, अधिक से अधिक क्या उपयोग हो सकता है ? इसकी समूची कल्पना करते हुए एक सुव्यवस्थित क्रिया-कलाप बनाना जो जानता है वही व्यवस्थापक का गौरवपूर्ण पद पा सकता है। शासन सत्ता में गवर्नर का पद बहुत ऊँचा है। गवर्नर का अर्थ है-व्यवस्थापक जिसे व्यवस्था बनाना आता है समझना चाहिए कि इसे बहुत कुछ आता है। परिवार में कई व्यक्ति होते हैं उन सब में अपने-अपने ढंग की योग्यताएं, विशेषताएं, क्षमताएं होती हैं। उन्हें जंग न खा जाय अतः आवश्यक है हर व्यक्ति की योग्यताओं को सक्रिय रहने का अवसर मिलता रहे। अस्तु बाल-वृद्ध नर-नारी हर किसी को उनकी स्थिति और योग्यता के अनुरूप काम मिलता रहे-कोई अनावश्यक रूप से ठाली न बैठने पाये इसकी योजनाबद्ध व्यवस्था सोचनी और कार्यान्वित करनी चाहिए। इससे दुहरा लाभ है परिवार को उस श्रम के आधार पर अधिक प्रगतिशील होने का अवसर मिलेगा और कार्य संलग्न व्यक्तियों में श्रमशीलता का एक अत्यन्त उपयोगी गुण विकसित होगा।

कारखानों में कितने ही व्यक्ति काम करते हैं। उनके समय, श्रम एवं योग्यता को यथास्थान फिट करने की क्षमता जिस मैनेजर में होगी उसका कारखाना उतना ही सफल चलेगा। इसके विपरीत जो मनुष्यों की क्षमता को ठीक तरह नियोजित नहीं कर पाता वह लाभदायक उद्योग करते हुए भी घाटे में रहता है। ठेकेदार लोग जिन रेटों पर काम करते हुए भी नफे में रहते हैं, सरकारी कर्मचारी यदि उसी कार्य को सीधे स्वयं करावें तो घाटा होगा। कारण एक ही है ठेकेदार अपने मजदूरों को किस क्रम से कहाँ किस प्रकार, कितनी संख्या में लगाये यह ‘फेर बनाना’ जानता है।

जो बात धन, श्रम, समय के सम्बन्ध में लागू होती है वही बात काम के अनेक अंग-प्रत्यंगों को किस सिलसिले से किया जाय वह भी उतना ही महत्व रखती है। कुशल महिला रसोई का कार्य दो घण्टों में पूरा कर देती है किन्तु जिसे क्रम बनाना नहीं आता वह उसी काम में पाँच घण्टे नष्ट कर देती है। एक साथ कई काम चलते रह सकते हैं और उन पर पैनी निगाह रखते हुए सभी को अपने ढंग से सँभालते रहा जा सकता है इसके विपरीत मन्द गति महिला एक काम पूरा हो जाने पर दूसरा आरम्भ करती है और समय नष्ट होता चला जाता है। बाजार से सामान खरीदने जाना हो तो पहले से ही लिस्ट बनाकर किस बाजार से क्या-क्या लेना है? इसका सिलसिला बिठाया जा सकता है और एक ही दिन में पूरे सप्ताह की आवश्यक वस्तुएँ सिलसिले भार कम समय में खरीदी जा सकती हैं किन्तु यदि व्यवस्था बुद्धि नहीं है तो रोज एक-एक दो-दो चीजें याद आती जायेंगी और उन्हें खरीदने के लिए दौड़-धूप होती रहेगी। खरीदते समय भी यह ध्यान न रखा जाय कि बाजार में किस चीज को कहाँ से लिया जाना है तो फिर मकड़ी जिस तरह जाला बुनती है उसी तरह इधर से उधर भगदड़ होती रहेगी और ढेरों समय नष्ट होगा।

शतरंज के खेल में एक ही समय कई चालें सोचने और कई तरफ से अपनी गोटों के बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखा जाय तो ही बाजी जीती जा सकती है। अपने काम में कब क्या आवश्यकता पड़ेगी, कब क्या कठिनाई आयेगी, किस समय क्या साधन जुटाने होंगे और किनका सहयोग लेना पड़ेगा, किसे क्या समझाना और किसे कितना धमकाना चाहिए इसकी संतुलित योजना से जो अनुभव भरी व्यवहार बुद्धि के सहारे ठीक तरह समझना और समाधान निकलता है वह अल्प शिक्षित होते हुए भी अपने प्रयोजन में सफल रहता है। स्थूल बुद्धि, दीर्घ सूत्री और प्रमादी बहुमुखी चिन्तन की आदत नहीं डालते अस्तु उनकी प्रतिभा अविकसित पड़ी रहती है फलतः उन्हें पग-पग पर असफलताओं का कष्ट एवं उपहास सहना पड़ता है। व्यवस्था बुद्धि हर कोई विकसित कर सकता है यदि वह अपने कामों के सम्बन्ध में बारीकी से सोचने और उनके प्रत्येक पक्ष पर गहराई के साथ ध्यान देने का प्रयत्न करे। अनुभवी लोगों का मार्ग-दर्शन परामर्श एवं सान्निध्य भी इस सन्दर्भ में बहुत सहायक सिद्ध होता है।

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अपनों से अपनी बात

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