Magazine - Year 1979 - June 1979
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सृजन की ओर बढ़ें ध्वंस को रोकें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शक्ति की अपनी महत्ता एवं उपयोगिता है। किन्तु उसकी महत्ता तभी है जब उसका सदुपयोग किया जाय। सृजनात्मक प्रयोजनों में वह लग सके। ध्वंस के लिए नियोजित शक्ति तो विग्रह ही खड़ी करती है। अनेकानेक समस्याओं एवं बाधाओं को जन्म देती है।
शक्ति प्राप्त कर लेना ही बड़ी बात नहीं है बल्कि प्राप्त क्षमता का उपयोग किस दिशा में हो रहा है, महत्ता इस बात की है। जहाँ इसका सदुपयोग मानवी सुखशान्ति के अभिवर्धन में अपना योगदान दे सकता है वहीं इसका दुरुपयोग अनेकों समस्याएँ खड़ी कर सकता है।
इतिहास के पन्ने पलने पर पता लगता है कि अपने प्रयत्न, पुरुषार्थ से अनेकों ने शक्ति अर्जित की किन्तु समाज एवं राष्ट्र अथवा मानव मात्र को कुछ दे सकने में वे समर्थ हो सके जिन्होंने इसका सदुपयोग किया, सृजन के कार्या में लगाया, सदुपयोग के लिए नियोजित शक्ति की पूजा अर्चन की। भारतीय संस्कृति ने राम की, कृष्ण, बुद्ध, दुर्गा की उपासना पर बल दिया। शक्ति तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप को भी प्राप्त थी किन्तु अत्याचार, हिंसा, अनैतिकता को बढ़ावा देने में प्रयुक्त उनकी सामर्थ्य का तिरस्कार किया गया। उनके पुतले जलाये गये। हिटलर, नेपोलियन, सिकन्दर, मुसोलिनी, की सामर्थ्य कितनी बढ़ी-चढ़ी था, उसे हर कोई जानता है। किन्तु उन्होंने विश्व में कितना कहर ढाया, इसे भी सभी जानते हैं। उनके कुकृत्यों की गवाही इतिहास के पन्ने सदा देते रहेंगे। जहाँ इनके कुकृत्यों ने समाज के पतन की ओर घसीटा वहीं महापुरुषों के योगदान से समाज पुष्पित, पल्लवित हुआ। सुख-शान्ति की वृद्धि हुई। मानव समाज का मस्तक उनके श्रेष्ठता के प्रति झुक जाता है। प्रकाश स्रोत के समान उनके त्याग बलिदान सदा प्रेरणा देते रहेंगे।
शरीर बल, बुद्धि बल से कम महत्व धन का भी नहीं हैं सृजनात्मक दिशा में इसका प्रयोग सुख-शान्ति की अभिवृद्धि में अपना योगदान दे सकता है। पिछले दिनों मनुष्य ने सम्पत्ति का जितना सदुपयोग किया उससे कहीं अधिक दुरुपयोग किया। सृजन की अपेक्षा ध्वंस कार्यों में अधिक लगाया गया। फलस्वरूप साधनों का उपयोग सुख-शान्ति के विकास में किया जा सकता था, उसका एक बड़ा भाग ध्वंस में प्रयुक्त किया जा रहा है। कुछ दिनों पूर्व ‘रूमानिया’ के विशेषज्ञों की खोज का विवरण दिया गया कि विध्वंसक यन्त्रों में सम्पत्ति का कितना बड़ा भाग नियोजित हो रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार “विश्व में औसतन एक मिनट में दस लाख डालर (80 लाख रुपये) हथियारों के निर्माण में खर्च किये जाते हैं। इस धन से पाँच हजार टन गेहूँ या चार हजार टन दूध प्राप्त किया जा सकता है। इससे लाखों व्यक्तियों को रोटी तथा करोड़ों बच्चे जो दूध के अभाव में कुपोषण के शिकार हो रहे हैं, उन को पोषक मिल सकता है।”
इस प्रकार मात्र एक मिनट, शस्त्रास्त्रों का निमार्ण रोक दिया जाय तो उसकी बचत से एक सौ परिवारों की आजीविका की व्यवस्था की जा सकती है। छोटे-छोटे तीन सौ मकान बनाये जा सकते हैं जिनमें गरीबों के लिए निवास की व्यवस्था हो सकती है। एक सामान्य रायफल बनाने में 2500 रुपये खर्च होते है, इससे एक आधुनिक हल तैयार हो सकता है। एवं मशीनगन पर 12000 रुपये की लागत आती है जिससे एक ट्रैक्टर बनाया जा सकता है। हजारों एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाने में 72 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। इस धन से आधुनिक चिकित्सा यन्त्रों से सुसज्जित 16 अस्पताल खोले जा सकते हैं। रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन का लाखों व्यक्ति लाभ इससे प्राप्त कर सकते हैं। बारह अरब रुपये में एक पनडुब्बी बनती है। इससे शिक्षा प्रदान करने के लिए 10 हजार विद्यालय चल सकते है।
एक मिनट में 80 लाख रुपये पूरे विश्व में संहारक यन्त्रों के लिए नष्ट किए जाते हैं। एक दिन में 115200 लाख रुपये, तथा एक माह में 3456000 लाख रुपये का अपव्यय विनाशकारी यन्त्रों के लिए किया जाता है। एक वर्ष का हिसाब जोड़ा जाय तो यह संख्या 4147-2000 लाख रुपये तक जा पहुँचती है। यह संख्या चौंकाने के लिए पर्याप्त है। इस पूँजी से कितनी योजनाएं बन सकती है। लाखों छोटे-छोटे उद्योग खड़े किये जा सकते हैं। अरबों व्यक्तियों का रोजी-रोटी मिल सकती है। अभाव, दुःख क्लेश का साम्राज्य सारे विश्व में छाया हुआ है, उसके निवारण में इस पूँजी को लगाया जा सकें तो कुछ ही वर्षों में सारे संसार से अभाव को समाप्त किया जा सकता है।
यह खर्चा तो अभी उन संहारक यंत्रों पर किया जाता है जो युद्ध के लिए प्रत्यक्ष रूप से प्रयुक्त होते हैं परोक्ष मारक यंत्रों में मादक द्रव्य, शराब, सिगरेट भी कम घातक नहीं। इनके उत्पादन में बहुत बड़ी पूँजी लगी हुई है। भारत में तम्बाकू उद्योग में लगभग 41 अरब 6 करोड़ 40 लाख की पूँजी लगी है। अनुमान किया गया है कि भारत में लगभग 10 करोड़ व्यक्ति सिगरेट बीड़ी पीते हैं। इस प्रकार प्रति वर्ष करीब 720 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय क्षति उठानी पड़ती है। शराब उद्योग में तो और अधिक पूँजी लगी है। यदि प्रति वर्ष होने वाली शराब की “क्षति को बीड़ी सिगरेट से होने वाले क्षति के बराबर ही माना जाय तो यह पूँजी 1440 करोड़ तक जा पहुँचती है।”
प्रगतिशील कहे जाने वाले राष्ट्रों की स्थिति तो और भी भयंकर है। अमेरिका में करोड़ों डालर तो मात्र मादक द्रव्यों के प्रचार के लिए विज्ञापन में खर्च किये जाते हैं। खरबों डालर नशीली वस्तुओं के उद्योग में लगे है। अन्यान्य देशों में भी मारक नशीली वस्तुओं के उत्पादन में राष्ट्रीय संपत्ति का एक बड़ा भाग लगा है। इतनी बड़ी धन शक्ति एवं जन शक्ति का दुरुपयोग मनुष्य अपने ही विनाश के लिए कर रहा है उसे देखते हुए मनुष्य की विचारशीलता पर शक उत्पन्न होता है।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ध्वंस के प्रति मानवी उत्साह उसे विनाश के कगार पर घसीटता ले जा रहा है। बढ़ते हुए यह कदम बताते हैं कि सृजन से मनुष्य कितना विमुख होता जा रहा है। धनशक्ति के इस बड़े भाग का यदि दुरुपयोग रोका जा सके तथा इसका उपयोग संसार में फैले दुःख क्लेश के निवारण में किया जा सके तो अच्छा होता।
संसार में 150 करोड़ से भी अधिक मनुष्य ऐसे हैं जिनकी आय 500 रु. वार्षिक से भी कम है। मात्र 40 रुपये मासिक पर निर्वाह करने वाली जनता में आधी ऐसी है जिसका औसत और भी गया गुजरा है। उन्हें भरपेट रोटी और तन ढकने को कपड़ा जीवन में कभी-कभी ही मिल पाता है। अधिकतर तो आधा पेट खा कर ही किसी प्रकार सोते है और फटे-चिथड़ों में अपनी लाज ढकते है।
दरिद्रता निवारण के लिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता? क्या इस दिशा में सहयोग देने में सचमुच ही लोक असमर्थ हैं। उक्त विशेषज्ञों का कहना है कि प्रगति और वर्चस्व का दावा करने वाले दो बड़े राष्ट्र रूस और अमेरिका मिल-जुलकर ही यदि कुछ काम करें तो बहुत कुछ हो सकता है। इन दोनों राष्ट्रों में जितनी धन शक्ति एवं जन शक्ति युद्ध कार्या में लगी है उसे यदि पीड़ित मानवता को ऊंचा उठाने में लगा दिया जाय तो उन पौने दो करोड़ व्यक्तियों की आमदनी कुछ माह के अन्दर ही ठीक दूनी हो सकती है। 500 रुपये वार्षिक के स्थान पर 1000 रु. वार्षिक प्राप्त करने लगेंगे। दरिद्र स्थिति से ऊपर उठकर सामान्य जीवनयापन की आवश्यक सुविधाओं को प्राप्त कर सकते हैं -
इस धन का सदुपयोग यदि दूसरे वर्ष मकान निमार्ण में किया जाय तो लगभग 20 करोड़ मनुष्यों के रहने के लिए नये मकान प्राप्त हे सकता हैं जो आज वन्य पशुओं के समान जीवनयापन कर रहे है। प्रथम वर्ष मकान द्वितीय वर्ष गृह-उद्योग तृतीय में शिक्षा, चौथे में स्वास्थ्य, पाँचवें में बिजली, बाँध यातायात संचार की योजनाएँ बनायी जाय तो पहले पंचवर्षीय योजना में ही पौने दो अरब अर्थात् लगभग आधी दुनिया के व्यक्तियों का भाग्य पलट सकता है इतना तो रूप और अमेरिका जैसे राष्ट्र अकेले कर सकते हैं। फिर यदि संसार के अन्य देश इस दिशा में कदम बढ़ाने लगे तो फिर समझना चाहिए कि पिछड़ी हुई दुनिया का अन्त ही हो जायेगा। पीड़ा पतन का दृश्य कहीं नहीं दिखाई देगा।
ध्वंस की प्रतिक्रिया एवं परिणामों से हर कोई परिचित है। यह जानते हुए भी सृष्टि का मुकुटमणि कहलाने वाला मनुष्य ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों की ओर निरंतर बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक राष्ट्र में घातक शस्त्रों के निर्माण की होड़ सी चल पड़ी है। प्रगति का माप-दण्ड तथा कथित विचारशील व्यक्तियों द्वारा इस आधार पर लगाया जा रहा है कि कौन राष्ट्र कितना विनाशक यन्त्र क निर्माण कर सकता है अथवा कर चुका है। बुद्धि का दम्भ बनने वाला मनुष्य प्रगतिशील होने का दावा यदि इस आधार पर करता है कि हमने अधिक विनाशक यन्त्रों का निर्माण कर लिया अथवा कर रहे है तो यह कहना होगा कि आज विकसित कहे जाने वाले मनुष्य की अपेक्षा पाषाण युग की आदिम जातियाँ अधिक प्रगतिशील थी। जीव-जन्तु जो अधिक हिंसक हैं वे भी अधिक प्रगतिशील कह जायेंगे।
माप दण्ड का आधार यदि यही रहा तो सारी परिभाषाएँ उलट जायेंगी। संस्कृति-सभ्यता का मानवी आधार विश्रृंखलित हो जायेगा। सोचने का क्रम यदि यही रहा तो फिर पुरानी मान्यतायें भी बदल जायेंगी। राम के स्थान पर रावण की पूजा होगी। कृष्ण की जगह कंस की आराधना होगी। हिटलर नैपोलियन ही मानव के आदर्श होंगे। इस विभीषिका की कल्पना मात्र से हृदय काँप उठता है।
आवश्यकता इस बात की है कि सृजन का महत्व समझा जाय। ध्वंस के लिए प्रयुक्त हो रही विपुल संपत्ति को रोका जाय। संसार में फैली हुई दरिद्रता, रोग-क्लेश के लिए उसका प्रयोग किया जाय। मनुष्य की विचारशीलता एवं श्रेष्ठता इसमें ही निहित है।