Magazine - Year 1979 - June 1979
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Language: HINDI
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मस्तिष्क की प्रसुप्त क्षमताएं और उनकी जागृति
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मानव मस्तिष्क एक जादुई पिटारा है। उसमें संग्रहित स्मृतियों की यदि लिपिबद्ध किया जाय और छाया जाय तो साधारण से साधारण मनुष्य के मन में इतनी स्मृतियाँ भरी पड़ी हैं कि उनसे अखण्ड-ज्योति के आकार की 32 अरब पृष्ठों मोटी के बराबर छपी हुई सामग्री निकल सकती है। यह तो तब है जबकि कहा जाता है साधारण व्यक्तियों में मस्तिष्कीय क्षमता का चार प्रतिशत से भी कम अंश काम में लाया जाता है।
यों मस्तिष्क देखने में एक छोटा-सा माँसपिण्ड लगता है जिसे हड्डियों के आवरण में बाँध कर प्रकृति ने मनुष्य के सिर पर रख दिया है। इसमें करीब एक अरब स्नायु कोष है, जिनकी प्रत्येक की अपनी दुनिया अपनी विशेषता और अपनी सम्भावनायें है। लेकिन इन स्नायु कोषों से थोड़े ही कोष सक्रिय रहते हैं, शेष का कोई उपयोग नहीं होता। इस प्रकार मनुष्य की अधिकाँश मस्तिष्कीय क्षमता प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ी रहती है। दैनिक जीवन की आवश्यकतायें पूरी करने में जितनी आवश्यकता पड़ती है, मस्तिष्क का उतना ही भाग सक्रिय रहता है। यदि शेष भाग को भी सक्रिय किया जाय- प्रशिक्षित कर उभारा जाय तो अब की तुलना में लाखों गुनी क्षमता विकसित की जा सकती है।
न्यूरोलॉजी (मस्तिष्क विज्ञान) के अनुसार सामान्य व्यक्ति अपनी मस्तिष्कीय क्षमताओं का केवल 4 प्रतिशत भाग ही प्रयुक्त करते हैं। जो व्यक्ति इसका जितना अधिक भाग प्रयुक्त करते हैं वे उतने ही बुद्धिमान बन जाते हैं। अर्थात् साधारणतया मनुष्यों में मस्तिष्क का 96 प्रतिशत भाग प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ा रहता है। उस प्रसुप्त मस्तिष्क में से जो जितना जागृत कर लेता है, वह उतना ही प्रतिभाशाली बन जाता है। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि अब तक संसार के बड़े से बड़े विचारक, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक अपने मस्तिष्क के प्रसुप्त अंश का अधिकतम दस प्रतिशत भाग ही जागृत कर सके हैं। शेष 90 सर 86 प्रतिशत भाग उनका भी प्रसुप्त ही पड़ा रहा। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मस्तिष्क कितना विलक्षण और अद्भुत यंत्र है-जो प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान किया है।
कितने ही बढ़िया कम्प्यूटर क्यों न बन चुके हों, परन्तु मनुष्य अभी तक ऐसा कम्प्यूटर बनाने में असमर्थ ही रहा है जैसा कि प्रकृति ने तैयार कर उसे उपहार रूप में दिया है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक काम करने, दक्षता बरतने वाले कम्प्यूटर भी तो आखिर मानवीय मस्तिष्क का ही कमाल है। अर्थात् मनुष्य प्रकृतिदत्त कम्प्यूटर द्वारा उसी की प्रतिकृति कम्प्यूटर बनाने में सफल हुआ परन्तु कम्प्यूटर स्वयं कम्प्यूटर बना लेगा ऐसा अभी तक सोचा भी नहीं गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि साधारण से साधारण व्यक्ति का मस्तिष्क भी संसार के सभी कम्प्यूटरों की तुलना में बेजोड़ हुआ। क्या हुआ वह अधिक सक्रिय, जागृत और सामर्थ्यवान न बन सका तो, लेकिन उसमें वह सम्भावना तो, विद्यमान है ही।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में मस्तिष्क का निर्माण कुछ रासायनिक पदार्थों द्वारा हुआ है। न्यूरोलॉजी के अनुसार मस्तिष्क के बाहरी धूसर पदार्थ (ग्रे मैटर) में तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या करीब 17 अरब है। अनुमस्तिष्क (सेरिबेलम) में 120 अरब और मेरुदण्ड में 1 करोड़ 35 लाख तंत्रिकायें अतिरिक्त हैं। इनके साथ ही ग्लाया स्तर की 1 खरब लघु कोशिकायें और है। इन सबका मिलन तंत्रिका बंध (न्यूरोग्लाया) कहलाता है। परन्तु इन रासायनिक पदार्थों के कारण ही मस्तिष्कीय चेतना उत्पन्न नहीं होतीं, यदि ऐसा होता तो स्वाभाविक है कि जिन प्राणियों का शरीर मनुष्य शरीर के अनुपात में बड़ा है और इस कारण उनका मस्तिष्क भी बड़ा है तो उनमें यह रासायनिक पदार्थ भी अधिक मात्रा में होने चाहिए।
मस्तिष्क यदि रासायनिक पदार्थों से निर्मित हुआ माँसपिण्ड ही है तो उसके भार और विस्तार के साथ मस्तिष्क की क्षमता भी घटती बढ़नी चाहिए थी। हाथी और व्हेल का मस्तिष्क विस्तार की दृष्टि से मनुष्य की अपेक्षा बहुत बड़ा है। फिर भी वे मस्तिष्कीय क्षमता के क्षेत्र में मनुष्य से बहुत पिछड़े रहते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार उन प्राणियों के मस्तिष्क की सूक्ष्म संरचना भी माननीय मस्तिष्क से बहुत पिछड़ी और अविकसित है।
न्यूरोसर्जरी के विशेषज्ञ डा. विल्डरपेन ने मस्तिष्क के भीतरी भाग में चारों ओर लिपटी हुई काले रंग की पट्टियों में मुद्दतों पुरानी स्मृतियाँ छिपी रहती हैं। इन पट्टियों का क्षेत्रफल 25 वर्ग इंच तथा मोटाई एक इंच का दसवाँ भाग है। कनपटियों के ठीक नीचे स्थित टेम्पोरल कारेटेक्स में स्मृति का संचार और नियमन होता है।
नित्यप्रति ढेरों घटनायें हमारी आँखों के सामने घटती हैं। उनमें से कुछ पर तो ध्यान जाता है और कुछ पर नहीं, जिन पर ध्यान जाता है उनमें से भी अधिकाँश विस्मृति के गर्त में खो जाती हैं। जो याद रहती है। लेकिन डा. विल्डरपेन के अनुसार ध्यान में आने वाली तथा न आने वाली, कुछ समय तक याद रहने वाली और थोड़ी देर बाद ही भूल जाने वाली सभी प्रकार की घटनायें टेम्पोरल कारटेक्स में अंकित रहती हैं। डा. विल्डर ने कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क के धर्मस्थलों का विद्युत धारा से स्पर्श करके निरर्थक घटनाओं का स्मरण कराने में सफलता प्राप्त की है।
जिन व्यक्तियों में स्मरण-शक्ति विलक्षण रूप से जायी जाती है उनमें भी यही पट्टियाँ चमत्कारी भूमिका निभाती हैं। कितने ही व्यक्तियों में यह स्मरण-शक्ति इतनी अधिक मात्रा में विकसित पायी जाती है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी एलिजा दो हजार पुस्तकें कंठाग्र रखने के लिए प्रसिद्ध था। कितनी ही बार उसकी हर तरह से परीक्षा ली गयी, पर वह सदा खरा उतरा। फ्राँस के राजनेता-लिआन गैम्वाटा को विक्टर ह्यूगो की रचनायें बहुत पसन्द थीं और उनमें से वह हजारों पृष्ठों के संदर्भ याद रखता था तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें दोहरा देता था। इनमें से एक शब्द भी आगे पीछे नहीं होता, यहाँ तक कि वह पृष्ठ संख्या तक सही-सही बता देता था।
प्राचीन भारतीय वांग्मय के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि हजारों वर्षों तक उसे लिपिबद्ध नहीं किया गया। चारों वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, निरुक्त, निधण्टु और उपनिषद् आदि सब गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार सीखे,सिखाये जाते रहे। शिष्य गुरुमुख से उन्हें सुनता और याद कर लेता। सुन कर याद करने के कारण ही वेद-उपनिषदों का नाम ‘श्रुति’ पड़ा। चारों वेद और उपनिषद् कोई छोटी पुस्तकें नहीं हैं। वेद के सब मंत्र ही करीब 5 हजार पृष्ठों में आते हैं। फिर उनकी व्याख्या व्याकरण ब्राह्मण आरण्यक सब सुन कर ही कंठस्थ किये जाते थे। यह स्मरण शक्ति का ही कमाल कहा जायगा।
स्मरण-शक्ति की विलक्षणता के उदाहरण आज भी यंत्र-तंत्र देखे जा सकते हैं। ग्रीक विद्वान रिचार्ड पोरसन को एक बार पढ़ी हुई कोई भी पुस्तक महीनों याद रहती थी। जो उनने आज पढ़ा हो उसे महीने भर तक कभी भी पूछा जा सकता था। शतरंज का जादूगर कहा जाने वाला अमेरिकी नागरिक हैरी नेलसन पिल्सवरी एक साथ बीस चालों को याद रख कर खिलाड़ियों का मार्गदर्शन करता था। यह सब काम वह पूरी मुस्तैदी और फुर्ती के साथ करता था।
मोली क्यूलर बायोलॉजी (अणुजैविकी) के आधार पर मस्तिष्क की अनोखी हलचलों का विश्लेषण करते हुए मस्तिष्क की अनोखी हलचलों का विश्लेषण करते हुए स्वीडन की गोटन वर्ग यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञान डा.होल्गर हाइडेन ने कहा है कि मस्तिष्क को दक्ष बनाने वाला शिक्षण और चिंतन कोशिकाओं में महत्वपूर्ण रासायनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ा देता है तथा वे कोशिकाएँ अधिक संवेदनशील बन कर बुद्धिमत्ता का क्षेत्र विस्तृत कर देती हैं।
डा. होल्गर हाइडेन के अनुसार मस्तिष्क का विकास मात्र उस शिक्षण पर निर्भर नहीं जो स्कूलों में या समीपवर्ती लोगों से मिलता है। वह विकास तो मात्र जानकारी बढ़ाने जैसा है। उनके अनुसार मस्तिष्कीय पोषण के लिए सुविकसित चेतना सम्पन्न व्यक्तियों, मनस्वी लोगों के सान्निध्य में रहना अत्यंत उपयोगी है। उनकी बढ़ी−चढ़ी प्राणशक्ति दुर्बल मस्तिष्क के अभाव की पूर्ति कर सकती है। बुद्धिमान और प्रतिभाशाली व्यक्तियों के सान्निध्य में रहकर जड़मति भी कुछ समय में सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान हो जाते हैं। इसका कारण यही है कि प्रतिभाशाली मनस्वी व्यक्तियों की मस्तिष्कीय विद्युत उन व्यक्तियों को भी उसी प्रकार विद्युत्मय कर देती है जैसे बिजली के तार से छू जाने पर कोई धातु अपने में विद्युत धारा प्रवाहित करने लगती है।
येल निवासी मस्तिष्क विज्ञानी डा. जोज डेलगाड़ो ने अपने प्रयोगों और परीक्षणों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क में बाहर से विद्युत पहुँच कर उसके अभीष्ट केन्द्रों को सक्रिय अथवा निष्क्रिय किया जा सकता है। कम्युनिस्ट देशों में विरोधी विचार रखने वाले व्यक्तियों को इसी पद्धति से ‘ब्रेनवाश’ द्वारा अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाया जाता है। सम्मोहन क्रिया में मस्तिष्क की विद्युत द्वारा ही मस्तिष्क को प्रभावित करने तथा दूसरे व्यक्ति को अपनी वशवर्ती बनाने की प्रक्रिया अपनायी जाती है। लेकिन अब यह काम, विशेष प्रकार के इलेक्ट्रानिक यंत्रों द्वारा भी किया जाने लगा है तथा इन प्रयोगों द्वारा मनुष्य की इच्छा शक्ति, ज्ञान-शक्ति एवं क्रिया-शक्ति पर नियंत्रण करके उसे अमुक प्रकार से सोचने या कार्य करने के लिए विवश करने में सफलता पायी जा चुकी है।
यह प्रयोग इसी सीमा तक सफल हुए हैं कि सब तक प्रयोग चलता रहे तब तक व्यक्ति वशवर्ती रहे, पीड़ा अनुभव न करे अथवा उससे अपना आदेश, निर्देश पालन करवाया जा सके। प्रयोग बन्द होते ही अथवा प्रयोग की पकड़ ढीली पड़ती ही वह पुनः अपनी पिछली स्थिति में आ जाता है और अभ्यस्त शैली का आचरण करने लगता है।
इन नियमों का विवेचन करते हुए डा. जोज ने कहा है कि यदि मनुष्य अपने सम्पूर्ण मनोयोग से किसी एक ही दिशा में अपनी मस्तिष्कीय क्षमताओं को नियोजित कर दे तो प्रसुप्त मस्तिष्कीय क्षमता जागृत हो सकती है। किसी को अपना इच्छानुवर्ती बनाना, सम्मोहन या इलेक्ट्रानिक यंत्रों द्वारा किसी को प्रभावित, वशीकृत कर लेना अलग बात है। उससे न मस्तिष्कीय क्षमता जागृत होती है और न उसमें अभिवृद्धि। वह तो ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी निर्बल, दुर्बल को शारीरिक बल या शस्त्रास्त्रों द्वारा अपने अधीन कर लेना। लेकिन मस्तिष्कीय क्षमता की दृष्टि से सशक्त, सबल व्यक्ति किसी के आगे यों ही हार नहीं मान जायगा और न उसे पराजित करना आसान होगा।
रुके हुए पानी को बाँध पाना आसान है; परन्तु बहते पानी को रोकना सरल सम्भव नहीं है। जागृत मस्तिष्कीय क्षमतायें वेगवती धारा से भी अधिक प्रचण्ड होती है। उन्हें जागृत करने का एक ही उपाय है कि उपलब्ध मस्तिष्कीय क्षमता को सुनिश्चित दिशा में नियोजित कर दिया जाय। कुँए में फूट पड़ने वाले सोते एक सीमा तक पानी निकाल कर रुक से जाते हैं परन्तु झरनों के रूप में फूटने वाले सोते निरन्तर बहते रहते हैं। क्योंकि वहाँ निरन्तर प्रवाह बना रहता है। प्रकृति का यह नियम है कि जो वस्तु उपयोग में आती रहती है वह चमकती है। उपलब्ध सारा भण्डार दाँव पर लगा दिया जाता है तो अक्षय स्रोत खुल जाता है। यदि वर्तमान मस्तिष्कीय क्षमता को पूरे दाँव पर लगा दिया जाय उसे सुनिश्चित दिशा में लगा दिया जाय-उसके बिखराव को रोक दिया जाय-उसे निष्क्रिय अवस्था में से निकाल कर सक्रिय कर दिया जाय तो मस्तिष्क भी अपनी विलक्षण विशेषताओं के साथ जागृत हो उठाता है।