Magazine - Year 1979 - June 1979
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Language: HINDI
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सर्वचिन्ता परित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते।
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योग का उद्देश्य मानसिक परिष्कार है। उसमें संग्रहित कुसंस्कारों का शमन करना पड़ता है। स्वभाव का अंग बनी हुई दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में जुटना होता है। भौतिक लिप्साओं की ललक शान्त करनी पड़ती है। चिन्तन को उत्कृष्टता में रस लेने के लिए सहमत किया जाना है। आत्मा और परमात्मा के बीच की खाई पाटनी होती है। यह सारे कार्य अन्तःपरिशोधन और आत्म परिष्कार से संबन्धित है। इसलिए योग साधना वस्तुतः मन को साधने की ही विद्या है। उसमें अपनी अन्त भूमिका से ही जूझना पड़ता है। इसे गीता का आन्तरिक महाभारत कह सकते हैं। हर साधक को अर्जुन की तरह अपना मनोबल-गाण्डीव संभालना पड़ता है। जो इस महा-समर में तत्पर होते है; भगवान उनका रथ हाँकते हैं और सफलता के लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। योग की प्रवृत्ति आत्म परिष्कार की पृष्ठभूमि बनाती है-
यदा पंचावतिष्ठानों ज्ञानानि मनसा सहः।
बुद्धिश्च न विचेष्ठति तामाहुः परमाँ गतिम्॥
ताँ योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रि धारणम्॥
चित्त को विषयों से हटाकर आत्मा में ही समावेश करना अध्यात्म योग है। चक्षुरादि पंचेन्द्रिय, मन और बुद्धि आत्मा में अविचलित होकर समाविष्ट हो, यही योग है।
सर्वचिन्ता परित्यागो निश्चिन्तों योगउच्यते।
(योग शास्त्र)
“जिस समय मनुष्य सब उद्विग्नताओं को त्याग देता है, उस समय उसके मनकी लयोवस्था को योग कहते हैं।”
असंयतात्मा योगों दुष्प्राय इति में मति।
वश्यात्मना तुयतता शक्योंऽवप्त मुपायत॥
(गीता)
“जिनका मन वश में नहीं है उनके लिये योग का प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, यह मेरा मत है। परन्तु मन को वश में किये हुये प्रयत्नशील पुरुष साधन द्वारा योग प्राप्त कर सकते हैं।”
धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शान्तिश्चिर गेहिनी।
सत्यं सूनुरयं दया च भगिनी भ्राता मन संयमः।
शय्या भूमितल दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन-
येते यस्य कुटुम्बिनों वद सखे कस्माद्भयं योगिनः।
धैर्य जिसका पिता है, क्षमा माता है, नित्य शान्ति स्त्री है, सत्य पुत्र है, दया भगिनी है, तथा मनः संयम भ्राता है, भूमितल ही जिसकी सुकोमल शय्या है, दिशायें ही वस्त्र हैं और ज्ञानामृत ही जिसका भोजन है, जिसके ये सब कुटुम्बी हैं, कहो मित्र, उस योगी को किससे भय हो सकता है।
गृहारण्य समालोके गतव्रीड़ा दिगम्बराः।
चरन्ति गर्दभाद्याश्च विरक्तारन्ते भवन्तिकिम्॥
यदि घर छोड़कर जंगल में रहने और नंगे बदन रहने से योगी बना जा सकता होता तो वैसा ही आचरण करने वाले गधे क्यों विरक्त न कहलाते।
आजन्म मरणात्त गंगादि तटिनी स्थिताः।
मराडूकमत्स्य प्रमुखों योगिनस्ते भवन्तिकिम्॥
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगा के किनारे और उसी के जल में रहने वाले मेंढक क्यों योगी नहीं कहलाते? जबकि वैसे निवास मात्र से लोग योगी होने का अहंकार करते हैं।
तस्मान्तित्यादिकं कर्म लौकरंजन कारकम्।
मोक्षस्य कारणं साक्षात्तत्वज्ञानं श्वमेंश्वर॥
बाह्य आवरण तो लोक व्यवहार एवं सुविधा की दृष्टि से हैं। उनका विशेष महत्व नहीं है। हे गरुड़ बंधन मुक्ति का कारण तो तत्व ज्ञान हैं उसी को उपलब्ध करने से योग का उद्देश्य पूरा होता है।