Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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पशु सर्वथा पिछड़े ही नहीं हैं
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बोलचाल की भाषा में ‘पशु’ शब्द विचारणा है-भावना रहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है । शारीरिक और मानसिक दृष्टि से मनुष्य की तुलना में स्वरुप विकसित होने की बात कहना तो उचित है, किन्तु उन्हें विचारणा या भावना से रहित नहीं कहा जा सकता । उनमें से अनेकों में अपने ढंग की ऐसी विशेषताएँ पाई जाती है जिन्हें मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक अग्रणी कहा जा सकता है । भावना की दृष्टि से भी वे हेय नहीं है । उनमें से कितने ही ऐसे होते है जिन्हें नर-पशुओं की तुलना में कहीं विकसित और सराहनीय माना जा सकता है ।
हाथी अपने बच्चों को अनुशासन पालन करना सिखा लेते है । संकट में एक दूसरे की मदद करते है । नर-मादा में परस्पर स्नेह और सौहार्द्र होता है । सामान्य हाथी बूढ़ों की देखभाल करते है । ये हाथियों के कई वर्षों से निरीक्षण करने वाले व्यक्ति के निजी अनुभव है ।
केनिया के नैरोबी शहर की एक प्रख्यात सफरी कम्पनी जो यात्रियों का अफ्रीका के घने जंगल दिखाने के लिए वाहन व्यवस्था करती है, ‘केर एण्ड डाउनी’ कम्पनी में मैनेजर डोनाल्ड फेर अपने दो शिकारियों से अधिकृत निरीक्षण की रिपोर्ट के आधार पर बताते है-हाथियों के झुण्ड पर शिकारियों ने गोली चलाई, एक हाथी घायल हो गया, दो हाथी उसकी मदद के लिए आये । दोनों हाथियों ने अपने-अपने बड़े दो दाँत घायल हाथी के शरीर के नीचे घुसाये और दोनों ओर अपने-अपने शरीर का आधार देकर घायल हाथी को जमीन से ऊपर उठा लिया । इतना ही नहीं वे उसे दो मील तक ले गये । शिकारी उनके पीछे-पीछे गये और देखा कि रास्ते में तीन चार बार घायल हाथी गिर गया किन्तु फिर से उठा लिया । दे मील के बाद घायल हाथी में चेतनता आ गई और झुण्ड में जाकर मिल गया ।
‘केर एण्ड डाउनी’ कम्पनी के सीनियर शिकारी ‘विलरियन’ ने 42 वर्षों तक हाथियों का निरीक्षण किया । उनका कहना है कि वे मनुष्यों की तरह काम किया और कई बार तो मनुष्य से अधिक चतुरतापूर्वक कार्य करते है । शिकारियों ने जंगल में एक स्थायी कैम्प बनाया था, उसमें एक बगीचा लगाया था । हाथियों का एक झुण्ड अक्सर उनके बगीचे को ध्वस्त कर देता था । बगीचे के चारों ओर एक मजबूत बाड़ बनाई गयी, इतना ही नहीं उसमें विद्युत के तार भी लगाये गए । हाथियों को यह पता लगाने में कुछ ही रातें लगीं कि जब बत्ती बुझ जाती है तो बाड़ में कोई खतरा नहीं रहता और फिर से बगीचा ध्वस्त कर दिया । इसके बाद सारी रात जनरेटर को चालू रखा गया फिर से हाथियों के झुण्ड ने पता नहीं कैसे अनुभव प्राप्त कर लिया कि उनके बाहर वाले दाँतों को बाड़ से कोई खतरा नहीं है और बाहर वाले दाँतों से ही बाड़ से तहस-नहस कर दिया तब बाद में सुरक्षा के लिए बन्दूक वाले चौकीदार रखने पडे़ ।
अफ्रीका में ‘मश्ियन प्रपात नैशनल पार्क’ में कुछ मकान बन रहे थे, तब एक हाथी जिसका नाम रखा गया था ‘लार्ड मेयर झझ वारा’ वह मकान बनाने वाले बढ़इयों को पीछा करके भगा देता था मानो वह यह कहना चाहता था कि वह प्रदेश उसी का अधिकार क्षेत्र है । मकान पूरा बन जाने के बाद भी उसने अपना गश्त लगाना जारी रखा । अपने फोटो लेने वालों के प्रति वह उदार रहता तथा अन्य किसी को नहीं आने देता था केवल अपना फोटो ख्िचवाने के लिए खड़ा हो जाता था । एक रात को उसको केलों से बनने वाली ‘पोम्बे’ नामक शराब की गन्ध आयी । जिस झोपड़ी में से गन्ध आ रही थी उसकी छत अपनी सूँड़ से उठा कर फेंक दी और जितने केले थे, सबका सफाया कर दिया । अब वह प्रत्येक कार की केले के लिए तलाशी लेने लगा था । अगर र्पीछे की ओर सामान के साथ केले रखे होते तो उसे तोड़कर केले ले लेता था ।
एक रात ऐसा हुआ कि यात्रियों ने अपने केलों की टोकरी कार के नीचे रख दी । रात्रि की नींद में वे यात्री लोग अपनी कार को उठाये जाने एवं पलटे जाने से घबरा गये । टार्च जलाकर उन्होंने देखा तो कार के नीचे रखी हुई केलों की टोकरी के केलों को ‘लार्ड मेयर’ बड़े मजे से खा रहा था ।
केनिया में ‘अम्बोसेली’ गाँव पास पशुओं के लिए एक ‘अभय आरण्य’ है जिसमें एक हाथी रहता था । वह विनोदी स्वभाव का था । सँकरे रास्ते के मोड़ पर वह खड़ा रहता, जैसे ही कोई कार आती दिखाई देती, दौड़ने का दिखावा करता तथा जोर से चिंघाड़ने लगता था । कार में बैठे हुए लोगों को घबराया देखकर उसे सन्तोष हो जाता, वह वापस लौट जाता और एक किनारे पर खड़ा होकर लोगों को देखता रहता और अपनी छोटी आँखें चमकाता ।
‘क्वीन एलिजाबेथ पार्क’ में हजारों हाथी देखने को मिलते । ‘वार्डेन बेरे’ ने देखा कि हाथियों के झुण्ड में से एक सुन्दर नौजवान हाथी बाहर निकला । थोड़ी देर बाद एक हथिनी उसके पीछे-पीछे सिर हिलाते-हिलाते चल पड़ी । लगभग 200 गज दूर जाने पर नर हाथी ने अपनी सूँड़ के साथ अपने सिर वहाँ तक ऊँचें किये जहाँ तक दोनों के होट चुम्बन के लिए मिले । इतना ही नहीं हथिनी ने हाथी को खेल-खेल में थपथपाया और हाथी ने घास का एक पूड़ा उठाकर और मिट्टी झाड़ कर हथिनी को उपहार स्वरुप भेंट किया ! हथिनी ने उसको अपने मुँह में डाल कर कन्धे से कन्धा घिसते हुए एक दूसरे का चुम्बन करते हुए, वे झाड़ियों में ओझल हो गए । उनका ‘हनीमून’ दस महीने तक चलता है । गर्भिणी हथिनी की देखभाल एक बूढ़ी हथिनी किया करती है । बच्चे को 21 मास तक माँ दूध पिलाया करती है । बच्चा सूँड़ को ऊपर उठा कर दूध मुँह से ही पीता है । हाथी अपने बच्चों पर मनुष्य जैसा वात्सल्य रखते है । जैसे मनुष्यों में कोई वाँयें हाथ से तथा कोई दाँये हाथ से काम करता है वैसे ही हाथी भी जमीन से आलू इत्यादि कन्द अपने एक ही दन्त दन्त सूँड़ से ही निकालता है । हाथी को अपनी खुराक के लिए 16 घण्टें तक परिश्रम करना पड़ता है । उसकी प्रतिदिन की 340-400 किलो घास या पत्तियाँ खुराक होती है तथा 30-40 गैलन तक पानी की जरुरत होती है । हाथी की नींद आदमी की आधी हुआ करती है ।
हाथी दो मील की दूरी से मनुष्य की गन्ध को पहचान लेता है, इतना ही नहीं पद चिन्हों को सूँघकर जान लेता है कि कोई उसका दुश्मन है या सामान्य आदमी । दुश्मन को वह कभी भूलता नहीं । ऐसे ही जिसने प्यार किया है उसके प्रति जिन्दगी भर बफादर रहता है ।
केनिया के कर्नल ‘ब्रूशमिथ’ ने एक हाथी के बच्चे के पिछले पैर में घाव पाया, वे बच्चे को अपने घर ले गये और कुछ दिन डे्रसिंग करके उसको ठीक कर दिया । कुछ महीनों बाद इस हाथी को नैरोबी जहाज पर चढ़ाया गया तब तक, जब भी हाथी का बच्चा कर्नल को देखता, अपनी सूँड़ से उसका हाथ पकड़ कर अपने घाव वाले स्थान पर ले जाता और आँखों से आभार व्यक्त करता ।
अपने भारतवर्ष में तो हाथी की चतुरता के बारे में अनेकों कहानियाँ है । मनुष्य से बढ़कर बुद्विमत्ता के कारण ही सबसे पहले हाथी की सूँड़ वाले गणपति की पूजा की जाती है ।
जर्मनी के ‘म्यूनिक विश्व विद्यालय’ के प्राणि शास्त्र के प्रोफेसर ‘डा. कोन्राड लारेन्ज’ ने विगत अनेकों वर्षों से विभिन्न पशुओं एवं पक्षियों के व्यवहार एवं भाषा पर अनुसन्धान कार्य किया है । उनका कहना है कि पशुओं के सामाजिक व्यवहार एवं मानवीय सामाजिक व्यवहारों में आर्श्चयजनक समानता पायी जाती है ।
सामान्यतः पशुओं के बारे में यह मान्यता रही है कि उनमें मानवीय गुण जैसे अनुभवी, योग्य एवं वृद्वों का सम्मान करना आदि गुण नहीं पाये जाते है और “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली कहावत चरितार्थ होती है अर्थात् शारीरिक बल की प्रधानता होती है । परन्तु डाक्टर लारेन्ज के अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि पशुओं में भी मानवीय गुण होते है । लापरवाह कौए जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी बड़ों का आदर एवं उनकी योग्यता अनुभव, पद आदि का सम्मान करना जैसे गुण पाये जाते है । टेलीफोन के तार पर बैठे पंक्तिवद्व कौवों का सूक्ष्म अवलोकन करने से पता चलेगा कि वे दाँये आयु, योग्यता एवं अनुभव आदि के अनुसार बैठे हुए है । कौवों के समूह में निर्बलों का रक्षण सबलों के द्वारा अवश्य किया जाता है ।
पशु भी लड़ाई के नियमों का पालन करते है । मुर्गों की लड़ाई में प्रायः देखा जाता है कि जब कोई मुर्गा जीत न सकने की सम्भावना होने पर अपनी गर्दन झुका लेता है तो दूसरा बलवान मुर्गा उसके समर्पण को स्वीकार करके युद्व बन्द कर देता है ।
डा. लारेन्स ने हंसों पर भी हल गहन अध्ययन किया है और पाया कि उनमें विवाह आदि का सामाजिक स्वरुप होता है तथा स्नेह भरा दाम्पत्य-जीवन और सभी के मर जाने या बिछुड़ जाने पर मानवीय-विरह-व्यथा सम्बेदनाएँ व्यक्त करते है तथा ब्रहृचर्य जीवन व्यतीत करते है ।
हंस एवं अधिकाँश अन्य प्राणी विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के द्वारा अपने भावों की अभिव्यक्ति करते है । इतना ही नहीं अपनी विभिन्न शारीरिक मुद्राओं के माध्यम से भी वे भावाभिव्यक्ति करते है । इसको वैज्ञानिक लोग ‘रिलीजर मिकैनिज्म’ कहते है । हंसों में लम्बी गर्दन के कारण गर्दन को विभिन्न प्रकार से मरोड़ने की सैकड़ों मुद्राएँ पायी जाती है जो कि उनकी भाषा के संकेत है । डा. लारेन्ज के इन अध्ययनों से विज्ञान की शाखा (इयोलोजी) मानव व्यवहार विज्ञान को नये आयाम मिले है मानव ईश्वर की सर्वोकृष्ट रचना है लेकिन नैतिक मूल्य केवल मनुष्यों की ही सम्पति नहीं है वरन् पशु-पक्षियों में भी नैतिक मर्यादाएँ पायी जाती है ।
विश्व के सबसे अधिक विकसित केन्द्र बन्दरों के अध्ययन के लिये बने हुए है, इनमें तीन प्रमुख केन्द्र विशेष प्रसिद्ध हैं-(1) क्योटो यूनीवर्सिटी का ‘प्राइवेट रिसर्च इन्स्टीट्यूट (2) इन्यूयामा का जापान मंकी सेन्टर (3) ओसाका सिटी यूनीवर्सिटी । इन केन्द्रों से सर्म्पक बनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों का आना जाना लगा रहता है ।
वहाँ के इन प्रमुख केन्द्रों में 2400 बन्दरों के 24 से 30 वर्षों तक के रिकार्ड रखे गये है जिनमें उनके व्यावहारिक ढ़ंग पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्ध, स्वास्थ्य आदि का विस्तृत विवरण संकलित किया जा रहा है ।
जापान के ‘ऐथोपोलोजिस्ट’ जूनीकीरो इटैनी’ का कहना है कि बन्दर क्रमशः प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे है । वे नयी चीजें सीखते रहते है और उनके बच्चे नवीन आदतों को ग्रहण करते रहते है । बन्दरों में 60 प्रतिशत व्यवहार शिक्षण द्वारा प्राप्त किये जाते है ।
प्रारम्भ में बन्दर अधिक समय पेड़ों पर ही रहा करते थे । अनुसन्धानकर्त्ता टोली आने के बाद से वे अब अपना 80 प्रतिशत तक समय जमीन पर ही बिताते हैं तथा दो पैरों पर खड़े होकर काफी दूर तक चल लेते है ।
इसी प्रकार उन्होंने अपने खाने के तरीकों में नये-नये ढ़ंग सीख लिये है । पहले अनाज के मिट्टी या बालू में मिले होने पर एक-एक दाना बीनकर खाते थे और अब गेहूँ और बालू को मुट्ठी भरकर नदी के किनारे दौड़ जाते है तथा पानी में डाल देते है जिससें बालू तो नीचे बैठ जाती है और वे गेहूँ खा लेते है । ऐसे ही वे पहले पानी में कभी नहीं जाते थे । प्रारम्भ में तो पानी में मूँगफली आदि के दाने डालने पर उन्हें लेने जाने लगे फिर तो स्वंय ही तैरने, उछलने, खेलने आदि में खूब आनन्द लेने लगे है ।
अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए 38 विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का आविष्कार भी बन्दरों ने किया है जिनके द्वारा वे अपनी भावनाओं, आदेशों एवं निर्णयों आदि को व्यक्त करते है जैसे ‘क्यान’ ध्वनि का अर्थ ‘खतरा’ होता है ।
विशेषज्ञों ने अध्ययन करके पता लगाया है कि बन्दरों में उत्तम सामाजिक व्यवस्था भी होती है । प्रत्येंक समूह का एक नायक होता है। नायक का चुनाव प्रजातन्त्र प्रणाली से होता है और स्त्रियों के बोटों को अधिक महत्व दिया जाता है। जिसे स्त्रियों का विश्वास प्राप्त नहीं होता, उसे निष्कासित कर दिया जाता है।
बन्दर जब विश्राम करते हैं तो दो वृत्ताकार घेरों में बैठते हैं । भीतर वाले घेरे में नायक, स्त्रियाँ एवं शरारती रहते हैं। भोजन के समय अपने-अपने ‘रैन्क’ के क्रम से भोजन करते हैं । उनमें बड़ों के प्रति सम्मान करने का तरीका है धीरे से उनके पीछे हो जाना तथा उनकी गरदन के बालों को सहलाना।अब ये बन्दर मनुष्यों के साथ मित्रता भी करने लगे हैं। एक समय, एक छोटे बन्दर के बच्चे को एक पेड़ की टहनी देते हुए वैज्ञानिक को देखकर एक बड़ा बन्दर वैज्ञानिक महोदय के ऊपर आक्रमण करने लगा। बच्चे की माँ ने तुरन्त ‘को-को-को’ ध्वनि द्वारा नायक को बुला लिया। नायक ने उस बन्दर को हटा कर भगा दिया।बन्दर तो मानवीय गुणों की नकल करके अपने स्वभाव में परिवर्तन करने लगे हैं, परन्तु मानव अपने गुणों को छोड़ता हुआ पशुता की सीमा से भी नीचे गिरता चला जा रहा है।ममता और स्नेह की भावना मनुष्यों में ही नहीं अन्य प्राणियों में पाई जाती है किसी न किसी में तो सभ्य कहे जाने वाले मानव से भी अधिक होती है।
कछुए और घड़ियाल ऐसे प्राणी तो अपने अण्डों को सुरक्षा की दृष्टि से बालू में छिपा रखती है किन्तु बच्चे के कुबुलाने लगने पर अण्डा तोड़ कर उसे उससे बाहर कर लेती है।
धनेश नामक पक्षी जब अण्डा देती है तो किसी पेड़ के खोखले में नर धनेश मादा धनेश को इस प्रकार घोंसला बना कर बन्द कर देता है कि मादा धनेश की चोंच तक ही दिखई पडत्रती है। नर धनेश अपने पारिवारिक उत्तरदायित्य अकेले ही उठाता है और काफि दौड़ धूप कर मादा धनेश के लिए भी भोजन इकट्ठा करता है और बाहर से ही उसकी चोंच में डाल-डालकर दिखलाता रहता है। अण्डों से बच्चे निकल आने पर नर धनेश मादा के ऊपर के घोंसले को तोड़कर उसे बाहर निकाल लेता है।
पनडुब्बी पक्षी सुरक्षा की दृष्टि से अपने बच्चों को उनके समर्थ होने तक पीठ पर लादे-लादे फिरती है और संकट आने पर बच्चे सहित डुबकि लगा कर दूर निकलती है। यह उसकी ममत्व की भावना का ही परिचायक है।
स्तनधरियों में स्पइनी एन्ट ईटर उण्डज प्राणी है। स्तन की जगह इसके ष्शरीर में स्तन ग्रन्थियाँ होती हैं। अण्डों से निकल कर इसके बच्चे चुँगते नहीं बल्कि मादा की स्तन ग्रन्थियों से एक प्रकार का तरल पदार्थ बहने लगता है जो इसके बालों में चिपक जाता है। एन्ट ईटर के बच्चे इस स्त्राव को चाट कर अपनी क्षुधा की पूर्ति करते हैं!
मदा कंगारु के पेट में एक शिशु धानी होती है। इस शिशु धानी में ही मादा कंगारु अपअने बच्चे को छिपा लेती है। शिशु धानी के अन्दर ही पेट में मादा कंगारु का स्तन होता है। जिससे दूध की धार स्वतः बहती रहती है और उसहाय बच्चे पीते रहते हैं।
बिल्ली अपने बच्चों को पालन-पोषण से लेकर उनके समर्थ होने तक उनका मार्गदर्शन करती है। बच्चों को शिकार करने से लेकर घर-घर घुमाकर बच्चों को हर परिस्थिति से परिचित करा देती है।
बन्दरों में ममत्व की भावना सबसे ज्यादा पायी जाती है। मादा बन्दर अपने बच्चों को पेट और पीठ में चिपकाए-चिपकाए फिरती रहती है। यहाँ तक कि बच्चे के मर जाने पर भी वह उसकी लाश को तब तक लिए रहती है जब तक कि वह सड़ने न लगे। प्राणियों में ममत्व की इसे पराकाष्ट ही कहनी चाहिए।