Magazine - Year 1980 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
बुद्धं शरणं गच्छामि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कपिलवस्तु में भगववान बुद्ध ने अपने संघ के साथ प्रवेश किया है, यह समाचार सुनकर शुद्धोधन का हृदय शोकविदग्ध हो गया । कैसा दुर्भाग्य है यह ? जिस पुत्र को चक्रवर्ती सम्राट बनाकर इसी राजधानी में, इसी राज सिंहासन पर आसीन होना था, जो मेरा एकमात्र पुत्र है और जिसे लेकर क्या-क्या स्वप्न नहीं सँजाये थे ? वही पुत्र आशा और कल्पना के विपरीत इसी नगरी में द्वार-द्वार जा कर भिक्षा माँग रहा है जबकि उसके नगर यात्रा पर निकलने पर लोग पलक पाँवड़े विछा देते, उसके अभिवादन में नतमस्तक हो उठते ।
शुद्धोधन इन्हीं विचार, भावतरंगों में डूब उतरा रहे थे कि किसी ने आकर सूचना दी, नियमानुसार अमिताभ गौतम राजभवन के द्वार पर भी भिक्षा के लिए आए है । दौड़ कर शुद्धोधन द्वार पर पहुँचे । देखा, उनका अपना सिद्वार्थ तापस वेश में सामने खड़ा है । उस वेश को देखकर पितृ हृदय चीत्कार उठा । शुद्धोधन ने कुछ उपालम्भ भरे स्वरों में भी कहा ‘क्या यही हमारे कुल की परिपाटी है ? फिर कुछ रुक कर बोले, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा सिद्वार्थ, तुम इस वेश का परित्याग कर यह सिंहासन सम्हालों ।
धीर-गम्भीर वाणी में गौतम ने कहा, ‘रजन ! यह आपके कुल की नहीं, बुद्ध कुल की परम्परा है । मै अब राज परिवार का सदस्य नहीं हूँ, आत्मकल्याण और लोकमंगल की साधना में लगे भिक्षु संघ का परिजन हूँ ।’
वाणी में जो दृढ़ता थी, जो संकल्प था उसने शुद्धोधन को निरुत्तर कर दिया और जैसे इतने में ही सन्तोष मान रहे हों, वह बोले, ‘तो भिक्षु ! क्या तुम मेरा आतिथ्य स्वीकार करोगे ?
‘अवश्य राजन ! अपने संघ सहित में कल मध्याहन समय पुनः आऊँगा’ बुद्ध ने कहा और वे चले गये ।
नियत समय पर बुद्ध देव आये । उन्होंने सभी परिजनों का अभिवादन स्वीकार किया, जैसे सर्वत्र करते थे और शाँत भाव से धर्मदर्शना की । उधर पति के चिर-वियोग से पीड़ित यशोधरा को तथागत के आगमन का समाचार मिला तो उसका हृदय प्रसन्नता से छल-छला उठा । पति समीम नहीं है तो क्या हुआ ? उनकी स्मृतियाँ तो मेरे साथ है । लोककल्याण के लिए उन्होंने भले ही मेरा परित्याग कर दिय हो ? अर्द्धागिनी के रुप में भले मेरा उन पर कोई अधिकार न हो परन्तु एक मानवी के रुप में तो में उनकी प्रियपात्र हूँ ही ।
यशोधरा इन्हीं विचारों में डूब उतरा रही थी कि भगवान पधारे । उन्होंने यशोधरा के त्याग की उपेक्षा नहीं की थी । वे उसके पास आए और पूछा यशोधरे ! कुशल से तो हो ?
‘हाँ स्वामी’ चिर प्रतिक्षित स्वर सुन कर यशोधरा का हृदय गद्गद् हो उठा । ‘
स्वामी नहीं भिक्षु कहो यशोधरे ! में अपना धर्म निभाने आया हूँ । बोलो तुम कुछ भिक्षा दे सकोगी?”
यशोधरा विचारमग्न हो उठी । अब क्या बचा है देने के लिए ? अपने दाम्पत्य की स्मृतियों को छोड़कर और कुछ भी तो नहीं है, जो देने योग्य हो । कुछ क्षण तक विचार करते रह कर उसके चेहरे पर निश्चय के भाव उभरे और बोली, ‘भन्ते ! अपने पूर्व सम्बन्धों को ही दृष्टिगत रख कर क्या आप भी कुछ प्रतिदान कर सकोगे ?
‘भिक्षु धर्म की मर्यादा का उल्लखंन न होता होगा तो अवश्य करुँगा आर्य,’ बुद्ध ने उत्तर दिया ।
यशोधरा ने अपने पुत्र राहुल को पुकारा और तथा-गत की ओर उन्मुख होकर बोली, ‘तो भगवान ! राहुल को भी अपनी पितृ परम्परा निभाने देकर उसे अपना अधिकार पाने दीजिए ।’
और फिर राहुल से बोली, जाओ बेटा ! अपनी पितृ परम्परा का अनुकरण करो । बुद्व की शरण में, धर्म की शरण में, धर्म की शरण में, संघ की शरण में जाओं ।
राहुल के समवेत स्वरों में गूँज उठा, बुद्ध शरणं गच्छामि.......... ।’ उस महान विदुषी ने अपने महात्याग का एक और परिचय दिया ।